Thursday 24 October 2013

अबतकनहींआबादपुर

                                                               स्वर्गारोहण का पथ 




'अबतकनहींआबादपुर' शहर का नाम किससे सुना याद भी नहीं है। किसी किताब में कहीं दिखा हो शायद। लेकिन किस किताब में, रचनाकार कौन है, ये बताना मुश्किल है। याद इतनी धुंधली है कि कभी-कभी तो लगता है - ये नाम 'अबतकनहींआबादपुर' किसी गोपन स्वप्न-समय में मेरी ही रचना हो। लेकिन बस इतना ही। इसके बारे में और कोई जानकारी देने की स्थिति नहीं है। कभी देखा भी नहीं साक्षात, इन आँखों से। केवल इतना सुना है कि जब तक कोई इस शहर के बारे में केवल ‘सुनता’ है , यह शहर होता नहीं है, इसका कोई अस्तित्व भी नहीं होता। पर ज्योंहि कोई इस शहर में कदम रखता है, यह शहर उसी क्षण 'बन' जाता है। कईयों का मानना है कि ये शहर 'अबतकनहींआबादपुर', दरअसल अकेला नहीं है। यह एक 'जोड़ी' शहर है, 'अबतकनहीं' और 'आबादपुर' - दोनों को जोड़ती अटूट भाषिक कारीगरी, ये इसकी विशिष्टता है। लेकिन ये जोड़ने की कारीगरी खानों में खानों को फंसा कर नहीं बनी है बल्कि ढीली-ढाली श्रृंखलहीन रचना है_विश्रंखल। ये भी कोई खास बात नहीं है। कोई-कोई और भी आगे बढ़कर बताता है कि शहर एक 'जोड़ी' शहर है, ये भी महत्त्वपूर्ण नहीं है - और अगर कोई इसे जरूरी मान भी ले, बहस टालने की गरज़ से, तो असली बात ये है कि एक शहर दूसरे की 'मिरर इमेज' है। लेकिन दोनों शहरों के युग्म जादू को इकट्ठे देखने की कोई तरकीब नहीं है। एक को देखो तो दूसरा 'गैरहाजिर' दूसरे को देखो तो पहला 'गुम' ये साला शहर किसी को इजाजत नहीं देता कि इसकी युग्म तस्वीर कोई देख सके। इस
मनहूस, 'बेअक्ल' शहर को क्या कहिए . . .
'यात्रा' का मतलब है -- झंझट, 'बवाल', 'किचाईन', 'चिक-चिक' - ये हमेशा सही नहीं भी होता। सोच- विचार कर छप्पन मानचित्रों को 'कन्सल्ट' करके जो यात्रा होती है, उसमें मानसिक 'बवाल' हो सकता है - होता भी है - लेकिन गौर करिए तो प्रगट होता है कि ये बवाल दरअसल अधिकाधिक सोचने से है। 'बवाल' हो सकता है . . . ऐसी धारण ही मानसिक 'किचाईन' का प्रमुख कारण है। और जहाँ यात्रा की पंचसाला योजना नहीं है , सिर्फ 'निकल' पड़ने का संकल्प भर है - साफ आसमान वाला, सुनहरे धूप वाला दिन हो तो क्या कहने, भी हो तो क्या फर्क पड़ता है।
कि फर्क पैंदा यार ...
ऐसे संकल्प से मानसिक तनाव कुछ कमतर रहता है। ऐसा मैंने तय किया। यह ख्वाहिश बहुत पुरानी है। और कुछ कहूँ तो ये ख्वाहिश ही ‘यात्रा’ की मुख्य बात है। बाकी तो कदम-कदम पर होती चलती है। इसलिए अकेले ही निकल पड़ा हूँ - इस शहर को ढूँढ़ने।
जर्नी टू 'अबतकनहींआबादपुर'...

उम्र दस-पन्द्रह बरस कम होती तो 'बैकपैकर' बन जाता, यही सोच-सोच कर धीरे-धीरे,थ्यावस से  आगे बढ़ रहा था। ...

एक समय ये काफिला चलते-चलते अबतकनहींआबादपुर के शहर फाटक पर पहुँच गया। स्कारलैट ग्रुप के गाइड ने बताया कि ऐसे-ऐसे तीन प्रवेशद्वार हैं - शहर केतोरण सज्जित। उनमें से यह एक है। दूसरा थोड़ी पश्चिम की ओर है, और तीसरा - उत्तरद्वार - कभी होता है, कभी नहीं होता।

आँखों के सामने शहर खजूर के मेरूदण्ड की तरह खड़ा है। इस वक्त एक अद्भुत माजरा हुआ। प्रवेशद्वार से लगा हुआ एक खुला बाजार, कुछ चाय नाश्ते की दुकानें, कुछ अन्य दुकानें। यहीं चेकपोस्ट भी है। इन्क्वायरी काउन्टर है। इसके अलावा और कुछ नहीं दिखा। थोड़ी दूर पर धूसर शहर की अलसायी इमारतें नजर रही थी। दाहिने और बांयी ओर।
फिर मैंने दायीं ओर गर्दन घुमायी। लगा जैसे साथ-साथ इस ओर का शहर प्रस्फुटित हुआ।
फिर मैंने बायीं ओर गर्दन घुमायी। इस बार भी वैसा ही अहसास दोहरा गया।
इस अहसास के साथ यह भी अहसास हुआ के ज्योंहि बांयी ओर गर्दन घुमी और शहर नजर आया, इसी क्षण दांयी ओर वाला शहर बुझ गया, अदृश्य हो गया।

गाइड से पूछा तो उसने स्वीकृति में हामी भरी कि सारे लोगों के साथ ऐसा ही होता है। लेकिन ये अहसास केवल 'अहसास' भर नहीं है - आप सोचते हो कोई दृष्टिभ्रम - बिल्कुल ऐसा नहीं है। इस शहर का यही दस्तूर है। मजे की बात है कि इस अद्भुत रूप से ये शहर दृष्टिनिर्भर है, और यूं ही यह अपनी लय में बनता-बुझता रहता है। गाइड ने आगे बताया कि जैसे मैं और आप दोनों दो विपरीत दिशाओं में देख रहे हों तो दोनों की दृष्टि में ये शहर रहता है। ऐसे में
जब आप दांयी से बांयी ओर और मैं बांयी से दांयी ओर घूमता हूँ तो मेरा शहर उस एक क्षण में ही विलुप्त हो जाता है। फिर आपकी दृष्टि में वो शहर एक क्षण में फिर बनता है। मेरा देखा शहर जल्दी-जल्दी गायब हो जाता है। ऐसा मत मानिए कि मेरे शहर को आपने देखा और आपके शहर को मैंने देखा - इतना सहज नहीं है ये कारोबार।

. . .  इस  करमजले शहर का क्या करें . . .
इस नाशपीटे,कढीबिगाड,अंटागुड्गुड,दल्लू के दशहरे को कंहा ले जायें...
यूं तो शहर दाहिने और  बांये को है लेकिन इसका विस्तार दाहिने-बांये नहीं है। ये खड़ी सीढ़ियों से ऊपर नीचे की ओर फैला हुआ है। खड़ी-खड़ी सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते ये शहर दाहिने-बांये अजीबोगरीब ढंग से फैला है, वहां एक-एक मोहल्ला है। कोई अगर इन सीढ़ियों पर लगतार चढ़ता रहे तो पामीर के पठार को पार कर दुनिया की छत के सिरहाने शिखर जी के बगलगीर गगनचुंबी मंदिर तक जा सकता है - कोई नीचे उतरता रहे तो अनजाने पाताल भैरवी के बंकर भी आप पहुंच सकते हैं।

इस 'अबतकनहींआबादपुर' का अर्थ यूं तो निकर्मी,खोखल  संज्ञा से ही विदित है, लेकिन इसका एक अर्थ पत्तों, लताओं, पेड़ों की गंध से सराबोर है, जैसा कि यहाँ रहते हुए समझ में आता है। ये निगोडा शहर रोज आँख खोलते ही खुद को बनाता है और नजर फेरते ही लुप्त हो लेता है। जो देखता है उसके लिए शहर होता है, जिसने नहीं देखा उसके लिए शहर है ही नहीं, केवल उजाड़, सात-सत्रह, छिटका-छत्तीस, चमक-चौदह ।
 इसका मतलब कि किसी विशिष्ट क्षण में यह शहर होता है और परस्पर नहीं भी होता। अर्थात परस्पर ’रहना-होना’ और ‘न रहना-न होना’, एक ही समय में ये इस शहर की अनुपम विशिष्टता है। यहाँ के लोग रोज शहर को नयी तरह से देखते हैं। रोज शहर के जिस्म पर इस निर्माण-ध्वंश के दाग लगे रहते हैं। बनने और मिटने के कत्थई-हरे-धूसर निशान।
शायद यही वजह है  कि इस शहर का कोई स्थायी मानचित्र नहीं बन पाया। अपनी दुलकी चाल पर चलता ये शहर अपनी खामख्याली में रोज बदलता-बदलता तरल गति से बढ़ता-चढ़ता रहता है। ऐसा है दल्लू का दशहरा, हमारा शहर 'अबतकनहींआबादपुर'

बाद में किसी ने बताया के शहर अदृश्य, मायावी, अलीक नहीं है। ईंट-काठ-स्टील-कांच-पत्थर के बदले ये शब्दों से निर्मित हैं। ’अक्षर’ नहीं,  ‘शब्द’ - जैसे शब्दों के बाद शब्दों की सजावट, बुनावट, जैसे माला में फूलों को गूंथते हैं, वैसा ही शब्दों का गूंथा हुआ 'टेक्सट' इसी 'टेक्सट' से ये शहर बना है। ये भी ख्याल किया कि भाषा नगर का प्रत्येक शब्द आरंभ हुआ है स्वर वर्ण से, इसलिए कई लोग इसे 'स्वर वर्ण शहर' भी पुकारते हैं।

स्वर वर्ण शहर जिस वर्ण से आरंभ है वह है '' - इसका वर्ण भी सफेद है। दूध जैसा सफेद नहीं बल्कि 'स्फटिक स्वच्छ' या 'प्रच्छन्न स्फटिक' जो कभी-कभी, कहीं-कहीं अशोक भौमिक के धूसर-ग्रे तक पहुँच जाता है। चूंकि सफेद रंग सारी रश्मियों को इनकार  करता अकेला ही विचरता है, इसलिए आज तक उसे पूरे डिटेल में पकड़ा नहीं जा सका। यही हाल इस शहर का है। चारों ओर सफेद - शफ्फाक यूं बिखरा पड़ा है कि इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। और चूंकि अनुमान कोई निश्चितता नहीं दे सकता, इसलिए अनुमान के नाना प्रकार के फेरबदल से शहर में सफेद रौशनी और दुलकी-मंथर चाल का आख्यान झंकृत होता रहता है।
शहर के प्राण 'केन्द्र' में अवस्थित है - एक लाइब्रेरी। नायिका के वक्ष की सी नरम उष्मा से शब्द समूह को गला कर किसी 'मोल्ड' में ढाल कर बना है - लाइब्रेरी का ढांचा। उसके ऊपर स्तंभों और बीम की जगह, जोड़ को मजबूत करने के इरादे से रखी है, सारी आधुनिक, झग्गू परिभाषाएँ। लाइब्रेरी अष्ट प्रहर खुली रहती है क्योंकि इसका कोई दरवाजा है ही नहीं। यहाँ पढ़ने और बुक लेंडिंग के लिए एक धेला भी नहीं लगता, विदेशियों  से एक दो कौड़ी जरूर ली जाती है। विदेशियों को प्रवेश की अनुमति भी लेनी पड़ती है। यह अनुमति उनसे  कसरत करवाती है - योगाभ्यास सरीखा, विशेष शारीरिक परिश्रम नहीं ,केवल मन-चित्त का एकाग्र संयम । जैसा कि कहा गया है यह प्राण केन्द्र में अवस्थित है, दरअसल, यही शहर का 'प्राण’ केन्द्र है, लेकिन यह एक ही जगह स्थायी नहीं रह पाता। क्योंकि इस शहर के और भी कई 'केन्द्र' हैं और इन केन्द्रों के दबाव में इनकी परिधि अस्थिर होती रहती है । इस तरह इस शहर की बुनावट पूरी की पूरी अस्थायी है जिनके नामांतर और स्थानान्तरण होते रहते हैं।
शहर के दूसरे केन्द्र हैं, जहाँ कहीं संसद है, कहीं सरकारी आवास, कहीं बढ़िया शराब की ब्रेवरी है, कहीं गोल्फ मैदान, यारानों के कॉफी हाउस, कहीं प्रेमियों  के बैठने के पार्क जहाँ दिन में भी सांझ रहती है। कहीं झुग्गी झोपड़ी नहीं है, कोई कसाईखाना भी नहीं है। स्टैगप्रेमियों की भी एक अलग जगह है जिसे फ्रीकींग स्ट्रीट कहते हैं।विषमलैंगिकों में कम दिलचस्पी  वालों का एक क्रूसिंग प्वाइंट है। बोर्ड पर एक सेक्सुअलिटि स्केल है,जंहा 1—5 और 7—10 अंकित है।साथ ही एक बडे गुलाबी 6 पर पिंक तीर का निशान। यंहा तीर-धनुष केवल गुलाबी फूलों से लदे हैं,शायद फूलों से ही बने भी हों।लेकिन किसी भी केन्द्र की कहानी स्थायी, सुस्थिर, सुस्पष्ट और औपन्यासिक नहीं है। इस तरह अनेक समकेन्द्रिक वृत्तों वाला ये शहर पारस्परिक दबावों में दुमड़ता-सिमटता-फैलता ऐसे आकार को पा गया है कि आधुनिक युग की उन्नत भग्नांशधर्मी ज्यामिति इस रूप की व्याख्या कर पाने में हाथ खड़े कर देती है। हाय-तौबा मचाना शुरु कर देती है, खडमंडल मच जाता है, इसके संसद पटल पर आते ही
इस शहर में प्रेम का प्रवाह है। लेकिन अगर कहूँ कि पहले दिन ही इसका इल्म हो गया था तो 'शब्द' की तरह वह भी निरा झूठ ही होगा। समझने की बात ये है कि जिन-जिन शब्दों के मायावी प्रयोग से प्रेम संभव है, उन सभी का स्वाद सस्ती 'वाइन' सा हो गया है, इनका शुरूर और झांस जलबले विनेगर के आस्वाद में तब्दील हो चुका है और ऊपर से दो-दो हाथ काउंटर से निकली गोमांस की दुकानों की नांई बढ़ी-चढ़ी 'यौनकुलीन प्रदर्शनप्रियता' ने उस पाक एहसास का इलहाम ही मुश्किल कर दिया है। लेकिन यह भी महसूस  किया
कि शब्दों की अनगिन सप्तऋषि मंडलों से एक-एक शब्द को हेर-हेर कर चौकड़ी  मिलायी जाए, इनके सरबत-खालसा से कोई आर्गेनिक शब्दों की रचना हो तो प्रेम सरीखी दीप्तिमय घटनाएं भी संभव हैं।
यह भी सही है कि शहर की साढे-सवा लाख अनिश्चितताओं के घेर-घूमेर में यह सब कुछ गडु-मडु है
यानी गोल-गाल, यानी गोल-माल, यानी गोल-मोल।
एक दिन का वाकया सुनाऊँ। आँखों से काजल चुराने को भी मात करती, जीभ पर हफ्ते पुरानी खटास-छाछ का स्वाद छोड़ती, बगैर हैलीपैड वाले शहर से जो छोकड़ी उड़ी, मारखेस की नायिका चादर सुखाते हवा के झोंके से उड़ गयी थी ज्यों ,आलोकधन्वा जैसे पतंग की डोर से हम सबकी सरंध्र  जवानी उड़ा दिया करते हैं,.................
........  साधो पवन चले उनचास...
उस 'सरोगेट मदर' के जीवन, प्रेमवृतांत और भयांश के लेखा-जोखे की सनसनी में कोई बकलोल टी.वी. एंकर, तिफ्ल पत्रकार भी दिलचस्पी नहीं लेगा। बयान हुआ कि वो प्रोलिफिक जननी, प्रेम के बगैर ही जन्मोदान और प्रसव का ‘लुत्फ / कष्ट’  उठाना चाहती है।

चूंकि, लुत्फ/कष्ट  =49
इसलिये लुत्फ    =कष्ट 49
इसलिये कष्ट     =लुत्फ/49
 ये बात और है कि उसकी
शुभ्रा-सरस्वती योनि आजतक शूक्र कीट के रूबरू भी नहीं  हो पायी है।
 लेकिन कानी का काजल भी नहीं सुहाता किसी को !
कर लौंडिया का मुंह काला,जाह्नवी का उत्तरसमाज  जिंदाबाद
 ऐसा समाज बनाया हमने ...ऐसा साहित्य,संस्कृति.....


हो!
भूल गया।
नदी का नाम - नलफल्लिम।
अबतकनहींआबादपुर के बीचो-बीच विजयदान देथा के कालिंदर सांप सी बलखाती, चम-चम चलती है। वैसे यहाँ की लड़कियों की चोटी सी इससे कम नहीं जो  सर्र-सर्र चलती हैं-- छम-छम। शहर के आखिरी हिस्से में जहाँ से नलफल्लिम 'उमरिया उन्नीस' की बलखाती कमर की तरह मुड़ती, बगैर किसी जायज वजह के शहर की परिधि के साथ-साथ फैलती है। अलटप्पू --एक घर ..........
और बिंदास एक सड़क के पार खड़ा है --ब्रिज।
इस शहर   के टूरिस्म के इतिहास का कंवरजी ,इकल्ला स्पॉट। अलसाया, उनींदा, धूसर-हरा, लज्जावती और फर्न से पटा एक लैंडस्केप। जिससे नॉस्टालजिया, प्रकृति- प्रेम और EVS की खदान भरी जा सकती है। जाहिर है यहाँ कोई प्राकृतिक, स्वतस्फूर्त निशान खोजना वृथा है क्योंकि जैसे नलफल्लिम बनी है जलमय, रसदार, तरल पनीले शब्दों के वेग से, बिल्कुल वैसे ही 3-4 भाषा पृथ्वी के तमाम, थोड़े निर्जन, थोड़े लोनली, दलछूट- भटके हुए शब्दों की अलकेमि से बना है ये ब्रिज।

शहर के मेयर ने एक सालाना जलसे में कहा था, ढलती शाम में कोई यहाँ आकर खड़ा हो जाए, तो कविता लिख सकता है - कोई भी, कोई भी आदमी।

इस शहर के रास्ते-गलियाँ, घर-मकान, हाट-बाजार, खेलकूद के मैदान, कैफेटेरिया सब कुछ गद्य भाषा में लिखे गए हैं। एकदम चुस्त-दुरुस्त, कांट-छांट, जेरे-जबर की मेटोनिमि (Metonymy)और जहां दुस्तर नील आकाशीय शून्य जगहों पर यहाँ के प्रगल्भ  मानुष-मानुषि
निवास करते हैं ,उनके आभयन्तरीन  सेहराओं की रचना की है --कविता के गूढ़ इशारों भरी रहस्यमय साद्रता ने। संक्षेप में कहिए तो यहाँ चलता है - 'मेटाफॉर राज'
 हालांकि ये सब भी इस अनार्किक - केओटिक शहर के लक-दक जमघट का राज पूरा नहीं खोल पाते।

शहर का एक-एक अंचल - जैसे लोअर-अपर विभाजन , या नॉर्थ-साउथ वर्गीकरण  या कि एक-एक मोहल्ला एक-एक भाषा के शब्दों से बना है।

ज्यों मानिये कि डाउन टाउन बना है अंग्रेजी के शब्दों से, सेन्ट्रल एवेन्यू बनी है खड़ी बोली के शब्दों से।पडी थी तो इसी का नाम ‘कोरवी’ था । ये भी सही है कि 'तीन भाग जल एक भाग स्थल' की तर्ज पर संस्कृत के शब्दों की भरमार है। लेकिन बांग्ला, तमिल-तेलूगू, कन्नड़, मराठी शब्दों का भी अभाव नहीं है। कोई-कोई हिप्पीजोन, बैकपैकर्स एरिया और काउच सरफर्स सेंटर स्पानी, फ्रेंच शब्दों से बना है
इस अर्थ में ये शहर 'कास्मोपालिटन' है।

हितेन,प्रियंकर  और शाश्र्वतो ने कहा के इस करमजले शहर पर एक टेक्सट तैयार करें,
मैंने भी कहा ठीक है‘मिल के करते हैं।‘
 कोई एमबीशस काम नहीं, एक छोटा प्रोजेक्ट। एक 'टेक्सुअल प्ले' शब्द नगरी को शब्दों के खेल से हथियाने की कोशिश।

What expresses itself in language, we can not express by means of language
 - --Lugwig wittgenstein

नगरी का स्थापत्य है, पहले बता चुका हूँ ना? शब्दों को गूंथ  कर । अब निर्माण के समय एक और समस्या खड़ी हुई। दो ईंटों को जोड़ा जाता है ,अधिकतर शहरों में बालू-सीमेंट के अर्द्धतरल दाम्पत्य में, इस निगोड़े शहर में शब्दों को किस चीज से जोड़ा जाए !
औघड़ शब्द अभियंताओं के टकले दल ने बताया कि - शब्दों का जोड़ शब्द से ही संभव है।
ये हुई बात!
 आज मालूम हुआ कि पाणिनी ने 'कारक' क्यों पढ़ाया था! लेकिन ये काउंटलेस जोड़ एक समय सीमा तक ही स्थायी है, लेकिन सर्वदा सछिद्र भी - Porous. जोडों  के भीतर असंख्य शून्य हाहाकार मचाते रहते हैं। एक-एक शून्य में कई-कई ब्रह्मांड। और चूंकि शून्यता सर्वाधिक उर्बर है, ब्रह्मांड प्रजनन में सर्वसक्षम, इस उर्बर प्रजनन शहर के स्थापत्य में 24x7 लाखों अर्थ जन्मते रहते हैं। कुछ प्रजातियाँ तो पुरानी चीन्ही प्रजातियों से भिन्न भी होती हैं। यही कारण है कि इसका कोई आजतक व्याकरण स्थिर नहीं हो सका, एक पल की तस्वीर दूसरे पल की तस्वीर से अलहदा हो जाती है।

कोई  शब्दबद्ध करने की कोशिश करे तो इस खुलजा सिम-सिम के गुफाद्वार आगे ठिठक जाना पड़ता है। किंकर्तब्यविमूढ,अंटागफिल....


ये किताब जो 'टेक्सट शहर' पर लिखनी  है, इसका  मैंने एक खांका तैयार किया है। जैसे फर्ज कीजिए, इसका
 'ले-आउट' हर पन्ने पर तीन अलग-अलग विभाग रहेंगे - तीन आनुभूमिक खण्ड। जो क्रमशः अगले पन्नों में अपनी 'जगाजमीन' बदलते, exchange करते, स्थांतरित करते / होते चलेंगे।

प्रथमांश में आरसी स्वभाव वाले इस शहर के बारे में भूमिपुत्रों के एक टेक्सट का 'फ्लो' होगा। यह उटपटांग हो तो अच्छा, वैसे गफ  हो --तो भी चलेगा। प्राथमिकता पहले वाले की होगी,’अमेचर’ के लिये गफ भी चलेगा।

द्वितीयांश में अर्थात पन्ने के बीचों-बीच शहर के हर इलाके का मानचित्र होगा या कई-कई फोटोग्राफ। कोई चाहे तो इसमें पेंसिल के स्केच भी शुमार हो सकते हैं। और तृतीय अंश में नीचे पन्ने की एड़ी के पास  रहेगा - उपरोक्त पन्नों और मानचित्र, स्केचों पर टेक्सट रचयिता  के  अनुभव, प्रतिक्रिया और प्रतिनिधि   अंश।

ये भी सोचा है कि ये तीसरा अंश फिर से दो पृथक वरटिकल कॉलमों में भी हो सकता है। ज्यों दो जने आमने-सामने बैठकर बात कर रहे हों
'रू-ब-रू'



गाइड ने आगाह किया था 'अबतकनहींआबादपुर' 'कुसौंणी' शहर है - एक बार जिस किसी ने इसका मुंह देख लिया तो दिन तो क्या सारा जीवन तीन-तेरह हो जाता है। यानी चौपटनंद अखिल भारत बेरोजगार युवक सभा . . . CABBYS
नादान - गंवई हिन्दी में बी.ए. - अंग्रेजी में मिडिल पास लौंडों  से यह बहरुपिया शहर छलावा करता रहता है। इसके रूप-सुगंध के जादू में जो आया वो  'डाईन' का बैल बनेगा, जीवन पर्यन्त अंधेरी सुरंग में भटकेगा और गुम हो जाएगा। लेकिन तसल्ली यही है कि खाने-पादने-हगने, सोने, लगाने वाले जीवन की गली के बाशिंदे की 'सभ्यता-संस्कृति' की कोई पगडंडी इस ओर आती ही नहीं है।

आयी जंजीर की झंकार . . . खुदा खैर करे . . .
दिल हुआ उसका तलबगार . . . खुदा खैर करे . . .

इस शहर की छटा में बिखरी पड़ी अट्टालिका, चौबारे, गढ़, हवेली, किले, मीनार, फाउंटेन,
उद्दान, स्कवायर, स्मारक या मूर्तियों की कोई फंक्शनिलिटी नहीं है। यानी इनकी कोई व्यवहारिक उपयोगिता ही नहीं है।
(क्या कहते हो! यार पूरा आधुनिक सभ्यता विमर्श ही तो ‘उपयोगिता-धर्मिता’ पर रचा गया है)।
कहीं कोई इतिहास चेतना, स्मृतिबिंब भी नहीं है।
(क्या कहते हो! यार पूरा सांस्कृतिक आख्यान   ही तो इतिहास चेतना, स्मृतिबिंब की मूअनजोदडों उत्खनन से निर्मित है)

 कहीं कोई सुदूर कोटेशन। आप्तवाक्य ''        '' भी नहीं दिखा।
जैसे सांय-सांय करते वीराने में, धू-धू बरजते सूरज तले, तिल-तिल कर जल-जल पड़े रहने को, मरने को अभिशप्त है ये शहर . . .

इसी तरह यहाँ नूतन और पूरातन हाथ पकड़े रहते हैं। तरह-तरह के बिसातियों का साझा कारोबार। और चूंकि शब्दों के बने इस शहर के स्ट्रक्चर में रोज अदला-बदली होती रहती है, इसलिए इस शहर का कोई representative, प्रतिनिधि रूप नहीं है, जिसे पेशेतेर किया जा सके। विभिन्न संस्कृतियों की स्वाभाविक परंतु, जबरदस्ती घुसमघुस और धींगामुश्ती में पंजा ये मादरचो.. संकर शहर 'अबतकनहींआबादपुर'

अब मैं इसकी लाइब्रेरी में गया हूँ ,जहाँ काम शुरु करना पड़ेगा। एनेक्से से कंधे पर लाद कर लाना पड़ा-- यहाँ के मानचित्रों का गठ्ठर। Volume-I, Volume-II ऐसा इसलिए कि किसी एक चित्र को देखकर कोई सर्वश्रेष्ठ मैपज्ञाता भी इस शहर को पकड़ तो क्या, छू भी नहीं पायेगा। असंख्य छोटे-छोटे, नन्हे-नन्हे मानचित्र जो अनजाने कारणों से रोज बदलते रहते हैं, को अगर वर्ग पहेली या 'जिगशा-पजल' की तरह आस-पास रखकर एक पल को मिला भी दिया जायें तो भी चित्र असंपूर्ण ही रहेगा।

हालांकि शहर का मध्य भाग और उसके बांयी ओर वाली थोड़ी तिरछी जो जगह है उसका रिप्रजेंटेशन कभी-कभी संभव है। कोई-कोई बताता है कि वही दरअसल शहर का असली प्रतिबिंब है।

यह शहर टूरिस्म को ज्यादा संजीदगी से नहीं लेता। प्रशासन का मानना है कि इसके अकारण ही भीड़-भड़क्का होगा जिससे शहर की चमक म्लान होती है। इंटरनेट में भी शायद इसी वजह से इसकी अनुपस्थिति हमारा ध्यान खींचती है। आरियंटल टूरिस्ट की लपलपाती जीभ का यहाँ  स्वागत नहीं है क्योकि इससे प्रशासन की धारणानुसार शहर का कौलिन्य और रहस्यमयता भंग हो सकती है।

ये बात और है कि शहर में तमाम खाने-पीने की चीजें सुलभ उपलब्ध हैं। ऐसा भी नहीं के खाना-पीना पांच सितारा किस्म का है लेकिन पास मार्क 36 उसे अनायास ही दिए जा सकते हैं।
कुछेक मस्त-मौला, पीर-फकीरों के अलावा यहाँ कभी-कभी आगंतुक टूरिस्ट भी दिखते हैं जो किसी साधारण से मयखाने में या कभी-कभी असंख्य ब्रेबरी के आस-पास टहलते पाये जाते हैं। लेकिन ये कौन लोग हैं, कहाँ से आए हैं? इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता।
जैसा कि एक दिन का वाकया बताऊँ। धौले दोपहर एक को मैंने चीखते हुए, ‘वाकिंग एंड टाकिंग’ करते देखा। मोबाइल का ऐसा    सदुपयोग हम अक्सर देखते ही हैं। उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। आँखें फीकी-फीकी, रंग उड़ा-उड़ा। सांसों में तेज दुर्गन्ध। वह बात कर रहा है और चलता जा रहा है। आस-पास के लोग उससे बच कर निकल रहे थे। लड़कियाँ तो छिटकी जा रही थी। बाद में मालुम हुआ वह स्थानीय भाषा में फोन पर किसी को गालियाँ बक रहा था। हमें चूंकि भाषा समझ में नहीं आती थी इसलिए हमें बिल्कुल अश्लील नहीं लगा। उसकी भाव-भंगिमा, उच्चारण, पॉज । उलटे हम तो धाराप्रवाह परफारमेंस की प्रशंसा ही कर रहे थे। छोटा सा मोबाइल उसकी हथेली में समाया था, हाथ उसके कान द्वार पर अंटा पड़ा था। उसे किसी की कोई परवाह नहीं थी, उसने मुड़ कर किसी को देखा भी नहीं। कभी किसी रेस्तरां के सामने चलते-चलते बक रहा है। कभी किसी होटल के सामने पड़ी कुर्सी को खींच कर उस पर उकड़ू बैठ रहा है, कभी कुर्सी पर पांव रखकर वार्तालाप चला रहा है। फिर कुर्सी को वहीं छोड़ कर उलटी तरह चला जा रहा है। किसके साथ इतनी बातें, ऐसी तल्खी से कर रहा है? आखिरकार एक समय उसकी बातें खत्म हुई। उसने मोबाइल के कई बटन दबा कर मोबाइल बंद किया। अपनी बांयी जेब में सुरक्षित रखा। इस वक्त रहस्योद्घाटन हुआ कि दरअसल उसके हाथ में कोई मोबाइल है ही नहीं, कभी था ही नहीं। यहाँ भी वह रुका नहीं, मोबाइल रिचार्ज के इरादे से एक दुकान में घुसा और रिचार्ज करवाने लगा। दस का नोट दुकानदार के आगे करके वह 'रिचार्ज' के लिए कहने लगा। अब मालुम हुआ कि हाथ में दस का नोट, पाकेट का मोबाइल, उसके जरिए बात करने वाला उसका दिमाग सब कुछ जादू से निर्मित है। असलियत में वहाँ शून्य के अलावा कुछ भी नहीं। ऐसी है शून्य की उर्बरता।

वह नशेड़ी है या पागल, इस पर मिशेल फूको भी कोई राय नहीं बना पायेंगे। एक दूसरे कम 'पागल' ने बताया कि उसके दिमाग में कोई बात-चीत चल रही होती है - सर्वदा। उसी का जवाब ये देता रहता है। कथोपकथन, गिले-शिकवे, वार्तालाप, संवाद, थिंकिंग - दिस मैन इस किंग आफ हिज ओन वर्ल्ड, which exists nowhere except in his void . . . Zero . . . शून्य।

यह शहर अंतःसलिला है, इसे समझने के लिए मन का धीरज और आँख की तेजी चाहिए। यहाँ किसी प्रकार की व्यस्तता का कोई चिह्न नहीं है। सारे लोग ढीले-ढाले, फक्कड़-फकीरों जैसे हैं।

पागलों की अंधी दौड़ में इनका यकीन नहीं। ये मत समझिए कि इसका मतलब यहाँ कोई कुछ नहीं करता और केवल ठाले बैठे-बैठे दुलकी चाल के मजे लूटते है। यहाँ सभी “कुछ ‘न’  कुछ” 'करते' हैं। यह भी सही कि इस तमाम 'कुछ कुछ' करने की एक सामूहिक लिस्ट बनायी जाये तो वह बहुत 'अर्थवान' नहीं होगी, . . .अब तक। लेकिन ताज्जुब देखिए कि इस शहर के बाशिंदे अपनी हरेक गतिविधी से शहर की  अर्थवत्ता हासिल करने की, उसे 'अर्थवान' बनाने की कोशिश में जी-जान से मगन है।

शहर के नाम को लेकर सवा सौ  प्रकार के संशय हैं। यह जिस ऊंचे ठौर  का शहर है इसका नाम इसे प्रदर्शित कम ही कर पाता है। कहीं  न कहीं कोई बात खटकती रहती है, कुछ है जो छूट  रहा है। अखबारों - पत्रिकाओं में इस पर ढेरों चिट्ठियाँ छपती रहती है। कारपोरेशन इस बार इसके नामकरण पर एक गंभीर सभा करने जा रही है। इस  पर अध्यापकों की तरफ से एक सुझाव है - शहर का नाम किसी सरस ‘पालिन्ड्रॉम’ शब्द पर  होना चाहिए ताकि उलटी तरफ से पढ़ने पर भी इसका अर्थ खोए
जैसे
''सरबतबरस''
इसे यहाँ खत्म मत समझिए . . .
ये चुड़ैल की मुहब्बत.....  
किसी के बनाए बने, रोके रुके . . . .
ज्यों इश्क की कविता में ये 'आग'
. . . लगाए लगे
बुझाए बुझे . . .

यह भी अब जानिये कि इसका असली नाम 'अबतकनहींआबादपुर' नहीं है। वो तो जैसे 'बेलमूड़ी' स्टेशन का नाम कोई लेना नहीं चाहता और इसलिए उसे 'माझेगांव' कहते हैं वैसे ही इसका असली नाम मैं भी जुबान पर नहीं लाऊंगा .
कुसौंडी,कुलछना,अपशगुना जो ठहरा,...
लेकिन भेद तो खोलना पड़ेगा, लिख तो सकता हूँ।
जब शहरफाट्क  में प्रवेश किया था तो यह था 'ताजपुर'
लिखा था एक तख्ती पर छोटे हरफ में।
फिर उस बूढ़े ने ब्रिज के पास बताया के पूरा नाम है 'सरताजपुर' जो कि संक्षिप्त होकर 'सर' कटा   गया।
फिर एक अंथ्रोपॉलाजी अध्यापक ने बताया था, नलफल्लिम नदी के किनारे के यह 'स्वरताजपुर' है आप पक्का मानिए . . . खुदाई से भी यह प्रमाणित है,वर्णविपर्यय की प्राचीर से लेकर शब्द पतन के टीले तक इसके निशान मौजूद हैं।  
फिर यह लाइब्रेरी के गेट पर 'ऋस्वरताजपुर' हो गया था।
इसी तरह 'रिसरताजपुर'
फिर 'इसरताजपुर'
फिर 'ईश्र्वरताजपुर'
वो मोबाइल वाला पागल किसी 'ईश्र्वरपुर' का भी जिक्र कर रहा था। पूरी बोली में ये शब्द बार-बार   रहा था।


साथियों को उपन्यास का यह मुखड़ा दिखाया तो उनकी प्रतिक्रिया मिक्सड इकानमि या नैचुरल जस्टिस की तर्ज पर एलकेमिक्स्ड थी।

जितेन ने कहा कि its too early to write like this (as such) .
तुम्हारा अभी तब कोई ढंग का संग्रह भी नहीं आया है।  शुभंकर ने भी इसकी ताईद की। जितेन का प्रियंकर शाश्वत सुझाव भी लोकतंत्र के वोट की guillotine पर शहीद हो गया,उसे मृत्युदंड मिला था।हांलाकि उसे 20 बरसों तक फांसी न हो सकी.कभी-कभी वह घर वालों से,दोस्तों से मिलता था—लेकिन पैरोल पर,यह भेद उसकी मौत के साथ खुला ।
तो मैंने इसे वहीं छोड़ दिया और 'किरामन-कातिबिनलिखने लगा ...
उसमें भी 'ऋस्वरताजपुर' की पापगंध छूट नहीं पा रही थी। लेडी मैकबेथ  के हाथों से जैसे खून के बदबूदार धब्बे छूट पाते थे? ये खून के निशान थे या रक्तगंध?
जिनसे पीछा छुड़ाना नामुमकिन था। फिर मैंने तय किया कि कोई वर्तमान 'हिन्दी साहित्य' से मेल खाती लंबी कहानी/उपन्यास लिखा जाये...
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