Sunday 11 December 2011

कहानी 'अकार' में प्रकाशित


                           हड़प्पा की शिलालिपि              *विजय शर्मा                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

सावन –भादो में नदी ऐसी फूलती है कि अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि साल के 6-9 महीने इस पर साईकिल चल जाती है । कोई –कोई इसकी कृशकाया  की हंसी उड़ाता यह भी कहता है कि ‘बिल्ली कूदे नदी, गांव की सदगति । वैसे यह नदी, तिस्ता की एक धार भर  है। लेकिन लोकल महात्म्य मे इसे तिस्ता ही कहते हैं   - कंवारी नदी तिस्ता । जैसे किशोरियां अल्हड़, मस्त,बेखौफ मुग्धा होती हैं,यौवन –रुपगर्विता, उसी के स्वभाव से मिलती जुलती,सारे रास्ते रौनक बिखेरती,किसी –किसी की प्यास बुझाती ,कहीं –कहीं अचानक किसी के सामने पड़, फट मुंह फेरती और तेजी से चलती अपनी दुलकती पीठ,उचकते कांधो,हिलती चोटियों और ना जाने क्या-क्या मटकाती यह भटकोट पहुँचती है जहां इसका कंवारपन उतारने रंगीला  नद रंगीत भी पहुँचा होता है ।
[पाठक के लिये होमवर्क: नदी  प्रसंग को थोडा बढाया जाये । यहां भी अडल्टरी,प्रेम – वासना वाले प्रसंग जुडें । यहां भी कथा प्रेम –वासना –जीवन के जटिल व्यूह  में व्यक्त होती चलेगी,जहां किसी भी पक्ष मे निर्णय देना संभव न हो सकेगा ...संकेतों में कहानी  प्रोग्रेस करेगी,प्रारंभ से आखिर तक कोई बात स्पष्ट नहीं हो पायेगी .. .केवल घेर- घूमेर ..  मालूम नहीं पड़ना चाहिये कि बात नदी की हो रही है , आखरी सफे मे ये राज खुलेगा ...].         
इसी  के किनारे एक शहर बसा है जिसका नाम गँवई तर्ज पर अब भी सुभानपुर है । पहले यह एक निरा गाँव था जो बसते –बसते एक उलझे हुए गंदे शहर मे तब्दील हो चुका था । लकड़ियों के मकान चार-चार मंजिलों तक उपर उठ गये थे । संकरे रास्ते और उनसे भी तंग गलियों के साढे सत्ताईश कट्टम -कुट्टा से यह एक गंधाती बस्ती यानि ‘स्लम’ मे ढल चुका था । वैसे तो ‘राज’ यहाँ मेयर का चलता था, कायदे –कानून में तमाम प्रावधान उपस्थित थे -- भवन निर्माण के,सड़कों के आगे पीछे पर्याप्त जगह छोडने के। एक मकान से दूसरे मकान के बीच कम-स-कम तीन गज की खुली जमीन ,जिस पर कोई निर्माण कार्य गैर कानूनी था । लेकिन ये नियम –कायदे सख्ती से लागू नहीं हो पाते थे । कई मकान तो इन नियम –कानून से भी प्राचीन थे, अतः यह और भी पेचीदा हो चला था । 3 x 3 मील के इस शहर की आबादी दुनिया में इस आकार मे सर्वाधिक थी। सर्वाधिक यानि किसी दूसरे इसी आकार के शहर से डेढ, दो गुना नहीं,उन्नीस गुना ज्यादा । शहर को इस ‘यूनीक’ स्थिति का गर्व –गुमान भी था-भरपूर ।
ज्यादातर मकानों मे चार पाँच मंजिलों तक पहुँचने के लिये अलग– अलग सीढियां थी। गोया पहली सीढी पहले-दूसरे तल्ले पर खत्म। फिर दूसरी सीढी जो तीसरे तल्ले को जाती है उसके बीच पहले –दूसरे तल्ले नहीं आते। इसी प्रकार जो तीसरी सीढी चौथे  तल्ले को जाती है, वो पहली दूसरी का मुँह भी नही देखती । नीचे वाले तल्लों के सामने तो सडक खुली होना मजबूरी थी,क्योंकि उसका अतिक्रमण उग्र विवाद पैदा करता था । लेकिन दूसरे ,तीसरे ,चौथे ,पाँचवे तल्ले वाले अपनी बीमों के बाहर पहले छ्ज्जे ,फिर बरामदे,बालकनी ,फिर घेर कर पूरा घर बना लेते थे । इस तरह कई मकानों के उपरी तल आपस में मिल से जाते थे । जहाँ आसमान किसी नीली लकीर और सूरज किसी मोटी ट्यूबलाईट की तरह ही चमक सकता था या कभी कभार दिखता था। चूंकि ये आम बात थी, हर कोई यही करता था या कम –स –कम करना चाह्ता था, इसलिये इसे एक सामाजिक स्वीकृति  मिली हुई थी। मेयर कभी –कभी इस तरह के निर्माण को गैरकानूनी करार देते हुए उन्हें ढहाने का डर दिखाते थे । लेकिन यह इतनी बडी कारवाई थी के कभी पूरी न हो सकी । इससे तो सारा शहर ही ढह जायेगा। नागरिक समाज उठ खड़ा होता,कहता कि  ऐसा तो सदियों से चला आ रहा है,ये नया  मेयर ‘पागल’ है जो शहर को उजाड़ना चाहता है ,रियाया को बेघर करना चाहता है ,अपने ही वतन में अनिकेत । ज़ाहिर है ये कभी संभव न हो सका ।
कभी कभी मेयर अत्यधिक संवेदनशील होते बात पलटने  की कोशिश करते । जैसे किसी दुर्घटना  का खौफ दिखाते कहते कि ऐसे वक्त यह शहर बहुत जोखिम भरा हो जायेगा । चूंकि कोई दुरुस्त सुरक्षाविभाग है ही नही, अगर हो तो भी अग्निकांड मे फंसे इस एक दूसरे की पीठ पर लदे, सिरों को जोडे, टांग मे टांग फंसाये  शहर को बचाना दुश्वार हो जायेगा। शहर में चूंकि लोकतंत्र था, इस घनघोर दुर्दशा ,फटेहाली,बीमारी ,बेरोज़गारी के समानांतर ,इसलिये इस पर बहस हो सकती थी,कारवाई और काम की कोई गारंटी नही थी।
ज्यादातर लोग ,तकरीबन 89% लोग छोटे –छोटे, बंद ,दबड़े नुमा घरों मे रहते थे,पति-पत्नी, बाल-बच्चे,माँ-बाप,भाई-बहन,निराश्रित रिश्तेदार,उम्रदराज़, रुग्ण, वृद्ध ।
सीढियाँ और गलियाँ इतनी तंग थी कि अर्थी निकलने मे भी मुश्किल होती थी। कैसी-कैसी जिमनास्टिक करतबों से किसी बीमार को यहाँ से निकालना पड़ता था, इस पर कोई चाहे तो दांताकिलकिल मचा सकता है। सारे के सारे मकान खुली नालियों-मोहरियों के किनारे बसे थे,जहाँ मच्छर मक्खी भिनभिनाते रहते थे। शौच की बड़ी दिक्कतें थी,इसका प्रभाव नागरिक जीवन पर इस कदर तारी था कि इसकी दुर्गंध सपनों तक में प्रवेश कर चुकी थी  ।यहाँ का सम्पन्न ,शक्तिशाली,प्रशासक भी ऐसी ही स्थिति  मे रहता था, हाँ जगह उन्होनें थोड़ी ज्यादा हथियाई हुई थी,जैसे दो की जगह चार कमरे ।इसलिये इस पर कोई भृकुटि नही तन सकती थी, वैसे इसे समतामूलक समाज और लोकतंत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण भी माना जाता था ।गरीब का बच्चा 52 साल तक जी जाता था ऐसी  नज़ीरें भी उपलब्ध थी,बडे आदमी कि बीवी 26 की वय में मच्छर काटने से मर सकती थी। इस पर एक सांझा विचार घर कर चुका था कि जीना मरना ईश्वर के हाथ है...जाको राखे सांईयाँ ....किस्म की घोर चुगद बातें...
यहाँ के ज्यादातर बाशिंदे घर मे रोटी नही बनाते थे क्योंकि छोटे -2 दबड़े नुमा मकान में चुल्हा-चौका की जगह निकालना रईसी और खर्चीला माना जाता था ।  इससे एक फायदा यह था कि स्त्रियाँ चूल्हे-चौके में कम पिसती थी,वैसे उन्हें पीसने के बाकी सारे औज़ार मौज़ूद थे। कईयों ने घर में ही दुकान खोल रखी थी,व्यवसाय के नाम पर वो रोटी –दाल –सब्जी बनाते बेचते थे। ढेर सारे लोग इनसे रोटी सब्जी खरीद कर ले जाते और खा कर सो रहते ।इनकी कीमत इतनी ‘वाज़िब’ होती कि किसी को भी अखरता नहीँ था । वैसे दुकानदारों की मजबूरी ये थी कि इससे अधिक  दाम उन्हें मिलना संभव नही था,शहर की क्रयक्षमता बडी सीमित थी। इससे दुनिया भर  मे  ‘सस्ता’ शहर होने का गर्व भी फोकट में मिल जाता था ।व्यापारियों के नाम पर यहाँ कुछ परदेसी-प्रवासी भी आते थे जो इनकी जरुरत की चीजें बनाकर या लाकर बेचते थे । ये अपेक्षाकृत अमीर लोग होते, जिन से स्थानीय लोग डाह रखते थे,लेकिन उनके आगे ये बेबस थे ।क्योंकि जरुरत की चीजें वही लाते । कीमत भी कोई ज्यादा नहीं, चूंकि क्रयक्षमता ही जूते के फीते की तर्ज पर सिमटी थी, दाम को वाज़िब होना ही पड़ता था, झक मार के...।  
ऐसी असंख्य  रोटी सब्जी की दुकाने थी,जहाँ रात-दिन चुल्हा भट्टी धधकती रहती थी, यहाँ से सारे दिन धुंआ उठता रहता, मुर्गा मच्छी की गंध और खून  वातावरण को दूषित किये रहता। लेकिन आम आदमी इस रसोई की खुशबू पर फिदा होता बेखौफ आता जाता रहता । तकलीफ तो दूर उसे कई बार इस सुगंधि से मज़ा आता ।एक दिन शाम के वक्त ऐसी ही एक मांगेराम की दुकान मे आग लग गयी। थोड़ी देर मे लकड़ी के फट्टे और फूस के छप्पर सुलगने लगे। चूंकि सारे मकान एक दूसरे से सिर जोडे थे इसलिये आग फैलती चली गयी।पूरा शहर धीरे –धीरे इसकी गिरफ्त में आने लगा। अग्निशमक विभाग लाचार था,पास की नदी से पानी ला कर आग बुझाने की कोशिश होती रही ,लेकिन नाकामयाब। उपर से इस हजारों घरों वाली बस्ती मे सैकड़ों मे बारूद रखा था। जिसका इस्तेमाल वो बाहरी आक्रमण के समय शत्रु सेना पर करते थे । लड़ाके वीर बहादुर शहर को इसका भी गुमान कम न था । वो भी एक –एक कर के फटने लगे,चारो और तबाही का मंज़र था । इस बारूद का इस्तेमाल मेयर ने ‘फायर लाईन’ बनाने के इरादे से करना चाहा ,वो यूं कि आग जिस ओर बढ रही थी, उसके रास्ते के एक मकान  को गोला दाग कर ढहा  दिया जाये, उम्मीद ये थी कि आग उसके आगे बढ नही पायेगी,क्योंकि वहाँ पहले से ही सब कुछ भस्मीभूत हो चुका होगा । लेकिन इससे कोई राहत नही मिली,उलटे तबाही और बढी ।सात दिन और आठ रात के बाद जब हवा ने रुख मोड़ा तब जाकर आग फैलनी बंद हुई। कुछेक पक्के मकानों के अलावा यहाँ के घर-बार,हाट-बजार,मंदिर –देवालय,मस्जिद –गिरजे,स्कूल,पुलिस चौकी,कचहरी,वेश्यालय,दारू के अड्डे ,चंडूखाने सब जल कर राख हो गये ।गिनती में केवल 66 लोगों की लाशें मिली,जिनमें 39 की शिनाख्त नही हो पायी । मेयर  ने सुझाया कि ये एक अच्छी बात हुई,जान का नुकसान कम रहा ।
लेकिन उसके पहले नागरिकों की कोई पुख्ता लिस्ट नही थी,कभी मर्दुमशुमारी भी नही हुई थी,   हज़ारों लोग लापता थे, उन्हें ढूंढने वाला भी कोई नही आ रहा था,इसलिये कईयों ने इस संख्या को लीपापोती माना,झूठी गिनती,यहाँ अजीब रिवाज़ था की सरकारी किसी भी आंकड़े को कोई सही नही मानता था । सरकार भी कभी विश्वास अर्जित करने के लिये बेचैन हो,ऐसा कभी नही दिखा ।कुछ ने ये भी कहा की घरों के साथ लाशें  भी जल गयी होंगी, फिर गिनती काहे की ? ये विवाद कई दिनों तक चलता रहा । सारी दुनिया के ज्ञात इतिहास मे ऐसा अग्निकांड कभी नही हुआ था । कम-स-कम 99 सालों में। इससे अधिक उम्र का कोई आदमी मौज़ूद नही था,
ना लिखित इतिहास ।विश्वविद्यालय में तब तक इतिहास पढाने लायक विषय नही माना गया था ।
कईयों ने इसे प्रलय भी माना ।शहर के लिये यह प्रलयंकारी था भी ।
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प्रलय के बाद फिर सृष्टि......फिर प्रलय...
पाँच सालों तक इसकी तहकीकात होती  रही। कई जगहों पर बाशिंदों ने प्रवासी-परदेसियों को मारा –पीटा,जिंदा जला  दिया –लींचींग । इस शक पर कि इस अग्निकांड मे इन्ही का हाथ है । हमारे आबाद शहर से जल कर इन्होने ऐसा किया । ऐसी घटनाओं से शहर की काफी बदनामी हुई। लेकिन जिंदा बचे लोगों मे एकता भी स्थापित हुई  - भुमिपुत्रों की एकता । मांगेराम को कोसने वालों की कमी न थी,कईयों ने उसे विदेशी  षडयंत्र मे शामिल करार दिया ।आज इस घटना को  हुये 99x2=198 साल गुज़र गये। दोबारा शहर बसना शुरू हुआ ।
इस बार बाकायदा नियम –कायदों,प्लानिंग आर्किटेक्ट,नज़ाकत ,खूबसूरती ,कला,सुरूचि,एसथेटिक्स वगैरह को शामिल किया गया।चौडी सड़कें ,चौकोर प्लाट,प्रशासनिक क्षेत्र शहर के मध्य में। गोल गुंबदाकार इमारतें,कई –कई दरवाजे,आदमकद खिड़कियां,सामने खुली हरियाली,बाग बगीचे,फाउंटेन.,मूर्तियाँ ।इसके चारों और आयताकार परिधि में दफ्तर ,कामकाजी,व्यवसायी रंगत वाला इलाका । सलीकेदार एक ही  रंग की झक्कास इमारतें । इनके बनावट में इनकी उपयोगिता निहित । जो काम जहाँ हो ,उससे मिलतारू स्वरुप । आप जूतों की फैक्ट्री से  स्कूल की इमारत अलग पायेंगे । बाजार और थाने ऐसे कि देखते ही पहचान मे आ जायें । किसी धोखे की कोई गुंजाइश ही नही। और इस वृत्त के बाहर रिहाईशी इलाका । एक–दो तल्ले के काटेज –बंगले नुमा मकान। चारो ओर खुले,धुप –बारिश,रौशनी-हवा के लिये तो बाँह खोले,पलक बिछाये इंतजार रत । गाडियों के हॉर्न बजाने पर भी पाबंदी । निहायत जरूरी हो तभी ये बजें ।सड़क के किनारे उन्नतग्रीव दरख्त जिन्हे फल की चिंता बिल्कुल नहीं,केवल पत्ते-छाया,चिड़िया-घोसला और वसंत की प्रतीक्षा  की फिक्र ।
अब शहर फैलाव ले चुका है,40 मील बाई 40 मील । उत्कृष्ट,दक्ष म्युनिसिपालिटी इसका रख रखाव करती है । सारी दुनिया के शानदार शहरों में इसका शुमार है ।यहाँ होना जन्नत में होने सरीखा है ।शहर के बीचोबीच मांगेराम की मूर्ति लगी है ,यहाँ मांगेराम एक रुमाली रोटी जिसका आकार एक बडी छतरी के समान है ,को हवा मे बादल सा उड़ा रहा है जो अब तवे पर गिरने ही वाली है ।जिसकी दुकान से शुरु हुये अग्निकांड ने शहर को ये भव्य रुप प्रदान किया ।कोई देखे तो बरबस मुहँ से निकल पड्ता है – सुभान अल्लाह । नाम अब भी इसका सुभानपुर ही है । शहर के इतिहास को समेटे जो म्युजियम बना है ,उसका नाम भी मांगेराम म्युजियम है । अपने पुरखों  के प्रति ऐसा है शहर का कृतज्ञता बोध ।
मांगेराम की पत्नी थी,अनिन्द्य सुंदरी,नाम उसका तृष्णा। सारे शहर मे मांगेराम की रूमाली रोटी और मा की दाल की धूम थी। चटोरी के चौराहे के पार उसकी दुकान पर सारे दिन जमघट लगा रहता था। जिस किसी ने देखा उसे भाड़ झोंकते ही देखा । इसमे दाल छौंकना भी शामिल। वह अपने काम मे तल्लीन रहता था। उसकी पत्नी तृष्णा आटा गूंदती,चक्की पीसती,आटे का खमीर उठाती,लोये तोड़ती ,वहीं उसके पीछे बैठी रहती। सुंदर स्त्री और स्वादिष्ट खाने का जोड़ द्रौपदी से ही चला आ रहा है ।और जैसे द्रौपदी को अन्नपूर्णा का वरदान था वैसे ही तृषणा की रसोई से कोई भूखा न जाता था, हाँ मांगेराम इसके पैसे वसूल लेता था बेशक ।चूल्हा लीपना,दुकान की सफाई करना,आँच लगाना,राख झाड़ना जैसे कामों में रत तृष्णा का शरीर तप –तप कर कच्ची हल्दी और पके सोने के बीच का रंग ले चुका था। दुकानदारी जमी हुई थी,कमाई के साथ सुनाम भी हासिल था । कई लोग नदी पार कर उसकी दुकान पर आते थे, ऐसी थी उसकी रसोई की खुश्बू और उसका रंग । नदी के दूसरी तरफ भी एक छोटी बसैत थी,जहाँ 20-30 घरों के अलावा एक उजाड़ मंदिर था । वहाँ यदा कदा कोई साधु महात्मा आया करते । जिसके दर्शन करने माथा टेकने पति-पत्नि जाया करते थे ।जिस दिन जाते ,तो साथ चार रोटियां और दाल –सब्जी भी ले जाते ,जिसे पाकर और खा कर महात्मा तृप्त हो जाते और आशीर्वाद देते ।
’तेरा नाम तृष्णा क्यों है ? जबकि तेरे खाने में सबकी ऎसी तृप्ति ।‘ साधु महाराज कहते 
सलज्ज नज़रों से दम्पति उनके पैर छूते और वापस आ जाते।
उस उजाड़ मंदिर में मूर्ति के नाम पर एक यक्ष –यक्षिणि की  भग्न आकृति भर थी, जो किसी चरम प्रणय समय मे पाषाण में तब्दील हो चुके थे और उसके बाद कभी उस अवस्था से बाहर ही नही निकले । मूर्तियों की योनियों पर फंगस लगा था ,जहाँ गौरय्या ने अपना घोंसला बना रखा था । उजाड़ मंदिर मे कई बार लोग    इन्हीं खांजो में धूपबत्ती लगा दिया करते थे ,क्योंकि और कोई माकूल जगह नही थी,  खोंसने की ।  इनकी सुगंधि से उजाड़ मंदिर घंटे दो घंटे भरा रहता । फिर धूपबत्ती और सुगंधि राख मे तब्दील हो कर जमीन पर पड़ जाती,और फिर हवा के झोंके से इधर उधर फैलती रहती ।
इसकी  खुशबू हर किसी को नही मिलती ,महात्मा बताते कि ये नसीब वालों को ही मिलता है जैसे तृष्णा के पकवानों का स्वाद ।
तृष्णा झेंप जाती ,साधु रोटी सब्जी को जब ‘पकवान’ बताते ।
अरे ! भूखे  दुर्वासा के लिये ये उससे भी बढ कर है ।
कभी –कभी निराले एकांत मे जब ये धूप सुलगनी शुरू होती,और सुगंधी हवा मे कुलांचे भरने लगती तो ये मूर्तियां थोड़ी निकट आ जाती । ऐसा कई बार साधु ने महसूस किया था । इसकी चर्चा वह किसी से न करता था क्योंकि इससे जादू-टोने का भ्रम और भूत-प्रेत की अफवाह पक्की होती । लेकिन एक दिन उसने ये किस्सा मांगे दम्पति से सांझा किया । मांगे को यह बडा तिलिस्मी जान पड़ा - अबूझ । लेकिन तृष्णा चुप रही जैसे वह इसकी ताईद कर रही हो। इस घटना को सुनते वक्त उसके कान लाल हो गये ,गालों पर पसीने की बूंदे दिख पडी,सांस धौंकनी की तरह जोर –जोर चलने लगी,उसने अपने निचले होठ उपर के दांतो से काटे ,जिसे यक्ष –यक्षिणि और गौरय्या  के  अलावा कोई न देख सका ,क्योंकि इसे पत्थर की आंख देख सकती थी,या फिर कलर ब्लाईंड गौरय्या । ये शरद के खत्म होने और जाड़ों के आगमन का मौसम था, उतरते कार्तिक ,मृगसिर के पहले कदम । रास्ते भर उसे झुरझुरी होती रही , हाँलाकि सर्दी ज्यादा नही थी। नदी के तट पर मांझी एक छिदाम मे नदी पार करवाता था । उसने दो छिदाम दिये और पति-पत्नि तेज तेज कदमों से चलते वापस घर आ गये ।   
उस रात दुकान बढाने के बाद पति-पत्नि सारी रात गुत्थम -गुत्था रहे ।आज मांगेराम उसे बता रहा था कि आटा गूंदा कैसे जाता है? चक्की पीसने में लय कैसे परवान चढती है,जिससे ताकत कम लगे,थकावट बिल्कुल न हो, और आटा महीन पीसा जाये,खमीर उठाने का सही वक्त कैसे भांपा और सूंघा जाता है। लोये तोड़ते वक्त क्या-क्या सावधानी बरतनी चाहिये,ताकि सारे लोये इकसार बनें ,न छोटे न बढे,बिल्कुल सम। तृष्णा को ताज्जुब होता रहा  कि रसोई –पाक कला की ऐसी बारीक जानकारी मांगेराम को कैसे आयी। वह तो आज तक खुद को ही बढी पारखी और बेनजीर कारीगर समझती आयी है। आज वो समझी कि द्रौपदी गांडीवधारी अर्जुन की रसिया क्यों थी,थोडे पाप और पक्षपात का बोझ उठाते हुए भी।
तुमने ये सब पहले कभी बताया नहीं?
कब बताता ,रात –दिन तो काम –काज मे ही धंसा रहता हूँ। फिर आज मौसम अच्छा है,देखो ये उत्तर वाली दरीची खुली रह गयी थी,। उन्होनें महसूस किया के नदी पार वाले मन्दिर की सुगन्धि सारी रात इस मोखले से दस्युदल की तरह घुसती रही है ।
मांगे ने कहा आज मैं नही जा सकूंगा,तुम्ही साधु का खाना ले जाना ।
कल की झुरझुरी को याद करते वो एक दुशाले मे खुद को लपेटे दोपहर बाद उस पार गयी ।
 1x2 छिदाम मांगे ने पहले ही खिड्की पर धर दिये थे ,एक में जाना एक में आना। शाम उतरते –उतरते वो वापस आ गयी  - थोड़ी उदास । वहाँ आज साधु नही मिला,ना ही वो सुगन्धी थी,मूर्तियाँ भी दूर-दूर खड़ी थी। वापस लौटते वक्त मांझी ने बताया कि इस ‘थान ‘ का यही तो रोना है।यहाँ कोई साधु ज्यादा दिनों तक नहीं रुक पाता,इसीलिये तो यहाँ बसैत अच्छी नही है।कोई टिकने वाले महात्मा आ जायें तो इधर भी सुभानपुर बन जाय।लेकिन साधु भी टिके कैसे ,.....................................................................................................
वैसे इसका फायदा भी है,इधर का इलाका गच-पच नहीं है,खुला खुला  है यहाँ सांस अच्छी आती  है। फिर  बोला लेकिन बसैत अच्छी हो जाये तो मेरा धन्धा भी ठीक हो जाये। आप बताओ दिन में चार फेरे भी न लगें,20-40 लोग भी आर-पार न हों तो नाव क्या सूखे मे चलेगी। मैं काम में कोई पेंच नही रखता ,भाड़ा मैने एक छिदाम रखा है,बिल्कुल वाजिब ,लेकिन पैसा पहले लेता हूँ ,नाव मे पैर बाद मे धरने देता हूँ ।भाव में भाई क्या करेगा ,उधार का काम मुझे नही सुहाता। कई लोग नाराज़ भी हो जाते हैं,लेकिन मेरा उसूल है।कोई भला माने तो भला ,बुरा माने तो उसकी बला ।तृष्णा ने जब बताया कि वो मांगे की पत्नि है,तो उसने कहा की उसे उसके बारे में सब पता है,उसकी रुमाली रोटी,दाल का छौंक ,काया का रंग,सुनाम,मंदिर में जाना इत्यादि-इत्यादि।तृष्णा को भी कोई हैरत नही हुई।बहरहाल...........
इसके बाद से उसे जब वक्त मिलता वो नदी पार मंदिर जाती। कभी कोई साधु होता ,कभी नही भी होता,सारे रास्ते जंगली झाड़ियों मे बैंगनी फूल हेरती वो मंदिर मे धूप जलाती,थोडी देर अनमनी सी बैठी रहती,फिर आते वक्त जंगली झाड़ियों से चुन-चुन कर मौसम रंग के फूल इकट्ठा  करती,मांझी को एक छिदाम देकर उससे मुफ्त की बातें करती वापस आ जाती। मांझी की बातों मे उसे कभी साधु की गमक दिखती ,कभी नितांत बेहया किस्म की हल्की बातें भी होती ।कह सकते है मांझी से भी उसकी दोस्ती सी हो गयी थी। कभी-कभार वो उसकी दुकान पर आता तो उसे एक रोटी ज्यादा दे देती ,दाल का भी एक चमचा अधिक । मांगे ने महसूस किया के तृष्णा अनमनी सी रहती है,कभी आटे को ओसणने मे कमी रह जाती,चक्की का शोर ज्यादा होता पिसाई कम ,खमीर कभी कच्चा उतर जाता, कभी थोडी खटास ले लेता और लोये छोटे-बढे, हल्के-भारी हो जाते ।
तृष्णा काम मे मन लगाने की कोशिश करती लेकिन ये यह संभव नही हो पाता। उसे आटा गूंदते वक्त कभी अपने घर की सीढियां,कभी भट्टी की धौंकनी,कभी गहरी नदी का पानी,कभी राख में बदलते जलावन की याद आ जाती। पति-पत्नि जब एकांत में होते तो उसे पति की छाती पर कंटीली झाड़ियां उगती दिखती,कभी उजाड़ मंदिर की भग्न प्राचीर,पाषाण में तब्दील हुये प्रणयरत यक्ष-यक्षिणि,कभी मांझी की बेहया बातें,कभी धूप की सुगन्धि,कभी साधु के लहराते वस्त्र ,कभी खटास लिये आटे के लौंदे की याद हो आती । वह कोशिश करती कि जिस वक्त जो काम सामने हो ,उसी को निबटाया जाये। लेकिन ऎसी मनःस्थिति होती कि तमाम चित्र एक दूसरे को धकेलते,उपर नीचे फेंटते,कटते-जुडते रहते, और वह एकाग्रता  कायम नहीं  कर पाती।
उसने ये बातें मांगे से सांझा करनी चाही तो मांगे का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया । उसने इसरार किया कि उसके साथ भी इन दिनों यही हो रहा है ।मैं रोटी बेलते वक्त कभी तुम्हारी हल्दी सी काया देखता हूँ,धौंकनी फूंकते वकत मुझे वो ‘रात’ याद आ जाती है।चूल्हे मे जलावन झोंकते हुये मैं अक्सर सहम जाता हूँ  कि गलती से मैनें सब्जी न झोंक दी हो । उपर चढते हुए  सीढियां नीचे की ओर जाती लगती हैं,पैसा लेते वक्त अक्सर भूल हो जाती है,मेरी दुकान नदी के पार दिखती है,घर में वो मंदिर दिखाई देता है ,कभी धूप के खोंसने का स्थल ।जलती मिर्च में सुगन्धि महसूस करता हूँ , सूखी नदी मे फंस जाने का वहम होता है,कभी-कभी तो लगता है सारे शहर मे आग लग गयी है और तुम्हारी लाश मैं नदी से खींच कर बाहर निकाल रहा हूँ।
उन्होनें उस पुराने परखे हुए खेल को भी आजमाने की कोशिश की ,जिसे वो हड़प्पा की शिलालिपि कहते थे । इसमे पति-पत्नि को बारी –बारी से एक दूसरे की नंगी पीठ पर उंगली से कुछ लिखना होता  और दूसरे को बताना होता के उसने लिखा क्या है?
मांगे ने लिखा ‘प्रेम
तृष्णा ने पढा ‘काम
और जो तृष्णा ने लिखा ‘मोक्ष
तो मांगे ने पढा ‘मृत्यु
फिर मांगे ने लिखा ‘आग
 जिसे तृष्णा ने फिर पढा ‘बादल’
तृष्णा ने अबके लिखा ‘आनंद’
जिसे मांगे ने पढा ‘वैराग्य’
चूंकि ये दोनों हिन्दी और उर्दू दोनो भाषायें जानते थे ,अत: इनसे बराबर चूक हो रही थी, आज ,ये ऐसी मनसिथति मे थे कि यह भी तय नही कर पाये कि लिपि को दाहिने से बांये जाना चाहिये कि बांये से दाहिने । इसे पूछने का निषेध था खेल शुरू होने के बाद ।इसलिये खेल जम ही नहीं पाया ।
अब इनके लिपट कर रोने की बारी थी।सारी रात बादल बरसते रहे,बिजली कड़कती  रही,शोर ने ऎसा घेरा बना दिया कि बाहर की कोई आवाज कानों तक पहुँच ही ना सके । लिपटे-रोते- बिलखते उनकी नींद जब खुली तो दिन बहुत चढ चुका था बारिश रुक चुकी थी, मोहरियों में गन्दा पानी  धाराओं में बह रहा था। इतनी देर तक वे पहले कभी नही सोये थे,शादी के बाद वाले दिन भी नहीं । ऐसी बेखबर नींद ,ऐसा रहस्यमय स्वप्नसमय पहली बार आया था।
आज तृष्णा मंदिर गई,साधु को खाना परोसा।धूप जला कर वापस आने को हुई तो पाया कि उसकी अंटी से एक छिदाम गायब है ।उसने सोचना चाहा कि घर से वो दो पैसे लेकर चली थी या एक पैसा ।मांझी को आते समय एक के बदले दो पैसे न दे दिये हों । लेकिन फिर याद आया कि नाव से उतरने के बाद भी एक पैसा सलामत था,यानि कि एक पैसा इस पार रास्ते में कहीं गुम हुआ ।
उसने ससंकोच साधु से एक पैसा माँगा ।
साधु ने कहा मैं माया को स्पर्श नही करता ।
उसने अपने लम्बे संपर्को की दुहाई दी पर साधु पर कोई असर नही हुआ ।
लेकिन मैनें कभी कोई कृपणता नही की आपके समक्ष,सिर्फ इशारे पर ही मैनें सब कुछ समर्पित किया , आप एक पैसे के लिये मुझे तिरस्कृत कर रहे हैं-तृष्णा ने कहा ।
मैं भी तो अनुराग में अमित रहा,कभी तुम्हे ठेस लगे ऐसा आचरण सोचा भी नही,पर माया का प्रवेश प्रेम को प्रदूषित करता है।यह जो तुम अनुराग की एवज में पैसा माँग रही हो ,मैं इसके सख्त खिलाफ हूँ। साधु ने वचन कहे ।
मैंने कभी आपसे खाने के पैसे नही मांगे,केवल आपकी तृप्ति ही मेरा संधान रही,फिर ऐसी तुच्छ बात पर आप मुझे संकट में डाल रहे हैं,मुझे पार उतरने के लिये एक पैसा नाव को देना ही पडेगा।अन्यथा मैं जा न सकूँगी।
मेरी तृप्ति में तुम्हारी भी तो  तृष्णा मिटी है! यह तो बराबर का सहकार का बंधन है ,इसे पैसे के पलड़े मे मत तोलो .....
हार कर तृष्णा निकल पड़ी ,देर भी हो रही थी,सूरज  गुम होता जा रहा था। झींसी लग गयी थी। रास्ता दिखना भी दुश्वार था । सारे रास्ते उसने कोई फूल नही चुने,उसकी इच्छा हुई ,उसने चाहा-मनाया कि सारी दुनिया मे आग लग जाये । गिरती –पड़ती जब वह नाव तक पहुँची तो पाया कि मांझी वहाँ बैठा है,लेकिन बगैर पैसे वह पाँव न धरने देता था ।
मांझी ने कहा मैं तो तेरे इंतजार मे ही बैठा हूँ,वरना ऐसी तूफानी रात कोई सवारी मिलने से रही ।बारिश मे तर-बतर मुझे तेरा ही ख्याल आ रहा था ।लेकिन मेरी मज़ूरी मुझे मिलनी चाहिये।मैं कोई अधिक कीमत नही ले रहा आज हाँलाकि मौसम कितना खराब है,जोखिम कितना ज्यादा है,तू समझती होगी ।
तृष्णा ने दुकान की फाजिल रोटियों की गुहार लगाई,एक चमचा मजीद काली दाल से भी मन ना पसीजा- उस  कमीने मोट्यार का...
[कमीने को पेन थ्रू करें]
उसकी हंसी ठिठोली बेहया बातों का भी वास्ता दिया,लेकिन फजूल
आखिर मेरे पास देने को पैसा तो है नहीं, तू चाहे तो और कुछ ‘ले ले’ उसकी बेहया बातों को याद करते उसने कहा ।
मैं मुफ्त का एहसान नही लेता,वो भी मुसीबत मे पड़ी औरत से। आज मेरे पास फूटी कौड़ी भी नही है,वरना एक कौड़ी मे तुम्हारा साथ खरीद  सकता था,लेकिन उधारी का काम मेरे उसूल मे नहीं है ।एक पल को तो पक्के सोने के रंग वाली भीगी काया से उसका ईमान डोल गया था।उसकी अचानक तेज़ हुई सांसो की धुक-पुक देख तृष्णा ने नाव में कदम रखना था कि...
मांझी ने खुद को संभाला,औरत की लप्पा चोटी की और बाहर धकेल दिया...
स्पर्श से उसकी देह जल के भभके सी सुनहरी हो गयी,लेकिन उसूल तो उसूल है ,उसे यूँ ही आंसू की नांई टपका के धूल मे नही गिराया जा सके है । हाँलाकि उसका शरीर टनटनाये हुए था ।
निराश तृष्णा ने  एक कम चौडी पाट वाली जगह तलाशी जहाँ पानी कम हो और पैदल ही नदी में उतर गयी।लेकिन जहाँ पाट कम चौडा हो वहाँ बहाव तेज़ होता है ।उस पार पहुँचने मे सारी रात लग गयी उसे,सशरीर,लेकिन ...
उसकी लाश निकालते वक्त मांगेराम को ‘वो’ सपना  याद आ गया जिसका जिक्र उसने तृष्णा से भी किया था,....तो क्या सपने सच होते हैं?समय चूंकि अनंत है और कोई घटना कभी न कभी तो होती ही है,कम-स-कम संभावना तो रहती ही है।वैसे बगैर कल्पनाधार के सपने भी नही बुने जा सकते ।और इस अर्थ मे सारे सपने कभी न कभी सच हो सकते हैं।हमारे जीवन काल में या फिर उसके पश्चात कभी।तो क्या शहर के जल कर खाक हो जाने वाली बात भी सही हो सकती है?
मांगे ने इसका जिक्र किसी को करना ठीक नही समझा।इसी उधेडबुन मे मांगे की किसी लापरवाही से कोई चूक हुई,जिससे आग लगी,जिस आग ने शहर को लील लिया।उसे सपना सच होने का इतमीनान भी था लेकिन ऐसे भयानक सच की खुशी किसी को क्या होगी ।
ये किस्सा भी कईयों  को पता है।शहर के वकील और अदीब जो ज्यादतर ‘पालिटिक्स ‘ में है,अक्सरहा इस पर बहस –जिरह करते हैं । इस बहस में शहर कई ‘वर्गो’ मे बंट जाता है।भूमिपुत्र ‘विचारधाराओं’ में कटने –काटने लगते हैं।
पूंजी.पैसा,प्रेम,समता,विकास के तमाम प्रतिनिघि पात्र जब –तब स्थानांतरित हो जाते हैं ।
 पहली विचारधारा वाले शहर की गन्दगी और दमघोंटू माहौल को इस अग्निकांड का कारण बताते हैं,जिसकी जड़ें तृष्णा की खुदकुशी में भी थी।
दूसरी विचारधारा उस साधु को बेरहम ,ढोंगी और कामुक करार देती है जिससे एक दमडी नहीं दी गयी एक ‘अबला’ की जान बचाने के लिये।सुंदर स्त्री के साथ ऐसा सलूक अक्षम्य है ।
तीसरी धारा उस हरामखोर मांझी को गाली देती है जिसके धन्धे के उसूल ने सुन्दरी की हत्या की।कुछ लोग उसे मेहनतकश का वाजिब हक मांगने वाला और चरित्रवान भी मानते हैं,गरीब था,लेकिन  लंगोट का पक्का,सिद्धांतनिष्ठ  ।
एक चौथी विचारधारा है जिसका मानना है कि पुरूष की अनदेखी से बेचारी औरत बरबस नदी की ‘धार’ मे फंस कर जान देने को अभिशप्त है ।आज नही  तो कल उसके साथ यही होता।इनमें से कुछ लोग विवाह –परिवार संस्था को ही क्रूर निर्दयी मानते हैं ।
एक पाँचवा दल है जो सबसे निराला है ,जो मानते हैं कि ‘कुलटा’ का यही हश्र होना होना चाहिये,उसे वहाँ जाने की जरूरत क्या थी,अपने घर में बैठ नही सकी ईज्जत से –निचलायी ..
एक छोटा दल मांगेराम को प्रताडक कम और विक्टिम ज्यादा मानता है ,सामाजिकता के अनिवार्य षडयंत्र के दुष्कर्म में फंसा बेचारा मर्द...
इसके बाद के एक पन्ने को मैं कालिमा से नही भरूँगा ,काली सियाही काग़ज की पवित्रता को कलुषित करेगी। इस पन्ने के बाकी हिस्से को ‘साईलेंस’ से भरा रहने दें ...
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don't HONK,please,published in prabhat varta daily



                 कृपया  हॉर्न  मत  बजाईये    * विजय शर्मा
मशहूर  बांग्ला  साहित्यकार  नारायण गांगुली  ने  सुनन्दो  पत्रिका  में  लिखा  कि “शायद मैं  कुछ दिन  और  जी  लेता लेकिन  लाऊड स्पीकर,पटाखों  और  गाड़ियों  के हॉर्न  ने  मेरा  जीना  मुहाल  कर  दिया  है,सुना है  इनकी  रोकथाम  के  लिये  कोई  कानून  भी  है,पर  यह  अफवाह  ही  होगी।” हाईकोर्ट के  जज  माननीय  भगवती प्रसाद  बनर्जी  ने  यह  पढा  तो  बड़े  द्रवित  हुये। आखिर  लिखने  वाला  मूर्धन्य  साहित्यकार नारायण गांगुली  है। जब तक वे  इसका  संज्ञान  लेते,  नारायण  दा  कोलकाता  और इस  दुनिया  को  अलविदा कर  चुके  थे। जजसाब ने  तत्काल  इसकी रोकथाम के  लिये  एक  ऐतिहासिक  फैसला दिया और  यह  कानून  की  किताब  में  शामिल  हो  गया।
कोलकाता की  तमाम  अम्ल-मधुर  विसंगतियों  में  यह  भी  शामिल  है  कि हमारा  शहर सर्वाधिक  शोर-शराबे  वाला  शहर  है। गाड़ियों  के  हॉर्न  यहाँ  सबसे ज्यादा  बजते  हैं,और  अनायास  ही  इसे  हांकिंग राजधानी  का  खिताब  मिला  हुआ  है। सारी  दुनिया  में  प्रमाणित  है कि  ज्यादा  शोर  शराबा बच्चों की  श्रवण शक्ति और  सीखने-पढने-समझने की  क्षमता को  प्रभावित  करता  है। यह  उनके  स्वभाव  में  चिड़चिड़ाहट और  उत्तेजना  पैदा  करता   है। जो  प्रकारांत  से  उनके  सामाजिक  व्यवहार को नुकसान पहुँचाता  है। इस  सिलसिले  की  शुरुआत  कम  और  ऊँचा  सुनने  से  होती  है,फिर  जोर  बोलना,फिर  और  ऊँचा सुनना,टीवी  को  पूरे  वाल्युम पर  रखना इससे  और  श्रवणशक्ति  का  ह्रास ,और  चिल्लाना—और  आखिरकार  आदमी  एक  भयंकर  कुचक्र में  फँस  जाता  है।  क्योंकि सामने  वाला  भी  इसी  राह  से  आया  हुआ और  इसी  व्याधि  से  पीड़ित  होता  है।
क्या  वजह  है  इस  शोर  की?
गाड़ियाँ  तो  सभी  शहरों  में  हैं,युरप  ,अमरीका में  तो  यहाँ  से  भी  ज्यादा।लेकिन  हॉर्न  बजाने  का  रिवाज  कहीं  नहीं।
कुछ लोग  इसे  कोलकाता  के  लाऊड  कल्चर  से  जोड़ते  हैं। चूंकि  यहाँ  समाज प्रतिवादी  चेतना,रिफ्युजी संस्कृति,धरना-प्रदर्शन,घेराव,चक्का जाम,जुलूस-स्लोगन को  अपनी  सांस्कृतिक पहचान मानता  है,इसलिये  अनायास  ही  यहाँ  का  कल्चर लाऊड  या  उग्र  हो  गया। रास्ते  में  वाहन  भी  इस  प्रतीकार्थ का  अनुशरण करते  हैं।
कोई ठहर कर पूछे कि  रास्ता  अगर  खाली  है  तो  आपको  हॉर्न  बजाने  की  जरुरत  क्यों  है? दूसरे  अगर  रास्ता  जाम  है तो  फिर  आपका  हॉर्न  क्या  हासिल  करेगा? यह  सोचना  भी  अजीब  है  कि  आपके सामने वाले  चालक को  जल्दी  नहीं  है,वह  तो  बेकार  ही  पेट्रोल  फूँक कर जॉय राईड  कर  रहा  है,और  आप असली  काम पर  निकले  हैं,सो  आपको  जल्दी  है। क्या कोई  यकीन  करेगा  कि  युरप  में  हॉर्न  बजते  ही  नहीं। भीड़  वाली  जगहों  पर  भी  नहीं।
एक  कार  विक्रेता  ने  हँसते  हुये  बताया  कि  केवल  हिंदोस्तान  में ग्राहक  गाड़ी खरीदने  के  पहले  हॉर्न  बजा  कर  चेक  करता  है। फिर  ज्यादातर ग्राहक कम्पनी के  हॉर्न  के  अलावा  भी मल्टी  टोन, श्रिल,रिवर्स गीयर या  म्युजिकल  हॉर्न  लगवाते  हैं।  सारी  दुनिया  हम  पर  हँसती  हो ,हमें  कि  फर्क  पैंदा?  यह  कहते  हुये  वह हँस-हँस कर लोट-पोट  हो  गया।
एक  समाजविज्ञानी के  अनुसार यहाँ  के  नगरिक  जीवन में  असुरक्षा भाव,बेरोजगारी,आंतरिक  बेचैनी,झुंझलाहट और  मन  की  अशांति हॉर्न  बजाने  में  जाहिर  होती  है। जैसे  नाकामयाब आदमी  में  इतमीनान,ठहराव का  अभाव  हो जाता  है,हड़बड़ी ,जल्दबाजी और  जोर  बोलना उसकी आदत में  शुमार  हो  जाता  है,ठीक  वैसे  ही।यह  भी  संभव  है  कि  इस  जल्दबाजी, हड़बड़ी की  वजह  से इतमीनान के  अभाव  में ही वो  पिछड़  जाता  हो।  बात  दोनों  तरफ  से  सही  हो  सकती  है। कार्य-कारण  सिद्धांत  का  चकरघिन्नी  पेंच। कोलकाता  में  40%  लोग  आंशिक  बहरेपन के  शिकार हैं, या  इस  व्याधि को  एक्सपोज्ड  हैं।अपोलो  अस्पताल  के ऑडियोलॉजिस्ट  डाक्टर सोमनाथ  मुखर्जी  से  पूछिये तो  चौंकाने  वाले तथ्य  बतायेंगे।
कोलकाता में  हॉर्न बजाने के  खिलाफ  काम करने वाली  संस्था पब्लिक की श्रीमती बनानी कक्क्ड़ बताती  हैं कि ट्राफिक अनुशासन के अभाव में ,चूंकि  लेन  सेंस  कम  है,अत:  हर  ड्राईवर  आतंकित रहता है कि कहीँ से  कोई  गाड़ी  अचानक  उसके  रास्ते में  आ  जायेगी,इस  आशंका से  बचने के  लिये  वह  लगातार बेवजह  हॉर्न बजाता  चलता  है। और इस विशियस  चक्र में  हम  सबका  जीवन  दुश्वार बनाते चलते  हैं। एक 20  साल के  नौजवान ने  दिलचस्प वाकया  बताया कि असली गुनहगार ड्राईविंग  स्कूल हैं। जो पहले  ही  दिन  यह समझाते  हैं  कि ड्राईविंग में पैर  हमेशा  ब्रेक  पर  होना चाहिये  और  हाथ  हमेशा हॉर्न  पर। उनके  आगे कोई  दलील  नहीं  चलती,अपनी  समझदारी पर  वे  मुतमईन हैं। वे  यकीन  नहीं  करते कि  इसी कोलकाता में  ऐसे  चालक भी  हैं जिन्होंने  पिछले बीस  बरसों  में  कभी  हॉर्न  नहीं  बजाया ,इससे  उन्हें  कभी  देर  भी  नहीं  हुई ना ही  कोई  काम  छूटा। इस  बात की  ताईद श्री प्रदीप कक्क्ड़ से  टॉलीगंज क्लब में कभी  भी  कर  लें। पब्लिक संस्था  ने एक  कैम्पेन चलाया जिसमें पुलिस  की मदद  से  स्कूली  छात्र-छात्राओं ने स्कूल,अस्पताल के  आगे  प्रदर्शन किया,परचे  बाँटे, नो हॉर्न की  तख्तियाँ  दिखायी। पुलिस ने  कई  ड्राईवरों  का तत्काल फाईन भी  किया। लेकिन प्रदर्शनकारियों का  मजाक भी  कम  नहीं  उड़ा।
हाल ही में  कोलकाता पुलिस ने  इसे  गम्भीरता  से  लिया  है।पूर्व  कमीश्नर श्री गौतम  मोहन  चक्रवर्ती के  तो  नये  साल की  प्रतिज्ञा  में  शामिल  था-कोलकाता को  हांक मुक्त  करना। पुलिस  ने  इस  बाबद  सैकड़ों  बोर्ड  भी  लगाये  हैं। एक  अफसर  ने  बताया  कि हमारी सारी  उर्जा-ध्यान सड़क  पर  वाहनों  का  जाम निबटाने  में  चली  जाती  है,प्राथमिकताओं में  दूसरी बातें  आ  ही  नहीं  पाती। पर  सख्त  कारवाई भी  जरुरी  है। केवल अवेयरनेस  के  भरोसे  नहीं रहा  जा  सकता। वैसे तो  कानूनन  सौ  रुपये के  स्पाट  दण्ड  का  प्रावधान  है,लेकिन  इसके  आर्थिक  पक्ष को  ध्यान  में  रखते  इसे 10-20 रुपया भी किया जा सकता  है,कुछ  नहीं तो  दोषी  वाहनचालक  को  दस –बीस  मिनट का  डिटेंशन  दिया जा सकता  है। ताकि यह  संदेश  दूर  तक  फैले। साईलेंस क्षेत्र  स्कूल अस्पताल,रिहाईशी  इलाकों  में तो कड़ी  कारवाई होनी  ही  चाहिये।
पिछली  सरकार की  एक  खास  उपलब्धि  यह  रही कि उन्होनें  यह  पक्का विश्वास दिल  में  बैठा  दिया  था कि  कुछ नहीं  हो  सकता, चाहे  वह  बेहाला, टालीगंज  का  जाम  हो,मच्छरों  का  उत्पात  या कि अन्य कोई  भी  नागरिक सुविधा। पर  नई  सरकार के  आते ही  बेहाला की सड़क  जादुई तरीके  से  खुल  गयी। बेहाला के  राहगीरों के  लिये  यह चमत्कार है। अगर  पटाखों  पर  प्रतिबंध  सम्भव है,रेल  में धूम्रपान  पर  लगाम  लग  सकती है.माईक  का  बजना नियंत्रित हो  सकता  है,तो  हॉर्न  पर  भी रोक  संभव है। इसके कुप्रभावों की  जानकारी,सभ्य समाज के  तौर  तरीके  याद  करें तो समझदारी से राजनैतिक  इच्छाशक्ति भी  आ जाती  है।  प्रशासन  अगर  इस  पर   गम्भीरता  से  सोचे तो बूढे,बच्चे,छात्र,बीमार  और  मानसिक असंतुलन वाले  बच्चों  की दुआ  उन्हें  मिलेगी।  सभ्यता  का  पैमाना  यह  भी  है  कि आप  अपने  बूढे,बीमारों,बच्चों,कमजोरों  का कितना  ख्याल  रखते  है।
रोग  के  उपचार  के  दो  तरीके  हैं। एक  में रोग की   जड़  पर  प्रहार  किया जाता  है,दूसरी  पद्धति उसके लक्षणों  को  दबाने  में कारगर  होती  है। दोनों  विधियाँ  सर्वमान्य  हैं। एक  समाज  वैज्ञानिक  का कहना  है  कि कोलकाता में  हॉर्न  बजना  बंद  हो जाये तो यहाँ की  फितरत  भी  परिवर्तित  हो  जायेगी।  इसकी जरुरत  आन  पड़ी है ।
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यूरोप की अमीरी: प्रभात वार्ता में प्रकाशित 11.12.11


                     यूरोप की  अमीरी                    *विजय  शर्मा
यूरोप इतना अमीर क्यों  है?
इसलिये कि  वहाँ  औद्योगिक क्रांति सबसे  पहले हुई।  
फिर  यह  बतायें कि  औद्योगिक  क्रांति वहीं  प्रथम  क्यों  हुई। यूरोप  में क्या  खास  है?
वैसे  यह  एक  संयोग भी  है,पर वहाँ इसके  पूर्ववर्ती कारण  भी मौजूद  थे।
औद्योगिक क्रांति के  लिये  जरुरी है कि आबादी का  एक छोटा ,पर महत्वपूर्ण हिस्सा खेती के  अलावा कोई दूसरा  काम  कर  सके। या  किसानों  को भी इतनी  फुरसत  हो कि दैन्नदिन किसानी के  अलावा किसी और  नई बात,खोज पर  लगें,कुछ  ईजाद करने की  सोचें। ऐसा कुछ जिससे इज्जत  ,सामाजिक रुतबे और  आर्थिक  स्थिति में  इजाफा हो। वैश्वीकरण कोई  नया  शब्द नहीं  है,संस्कृतियों में व्यापार और  ज्ञान की  आवाजाही सदियों  पुरानी है। इसके  दूरगामी और चौंकानेवाले परिणाम होते  हैं। यूरोप को यह  फुरसत  का  समय  कैसे  मिला?
यूरोप ने  पहलेपहल एक  बोर्ड हल बना लिया  था जो  अपने  पूर्ववर्ती नुकिले भाले  नुमा हल की  जगह एक  चपटे लोहे के  पटरे का  इस्तेमाल करता था। हालाँकि यह  उन्हें  चीन से  मिला  था,लेकिन इसके इस्तेमाल और  निपुणता का  फल  यूरोप को  मिला। इससे  उत्तरी यूरोप में  खेती सुलभ  हुई।  इसके  पहले मैदानों  की  उपरी कठोर मिट्टी की परत को  काटने –तोड़ने का कोई  औजार  नहीं  था। यह  नया  हल जमीन  की  उपरी  कठोर  पपड़ी को  काट  पाया जिसके  नीचे  नरम  उपजाऊ मिट्टी मिली। दूसरी बात  उन्होनें खेती की  डिजाईन  बदली, दो  की  जगह  तीन  फसलें। फिर घोड़ों  का  खेती में  इस्तेमाल।  इस  तीसरी फसल से पैदावार में  20% तक  की  वृद्धि  आयी। यहाँ  वे  अलफालफा (एक घास नुमा,घोड़ों का  खाद्य) लगाते  थे,जो नाईट्रोजन  की  मात्रा  को  नियंत्रित  कर  जमीन  को  उपजाऊ भी बनाती है। यह  बात और  है  कि  यह  उन्हें  ईरान से  मिली  जानकारी थी। कम उपजाऊ जमीन पर  भी जानवरों के  चारों की  खेती होने लगी। घोड़े की बैलों  से  खुराक  कम  और  गति  ज्यादा।  इससे  यातायात और ढुलाई  सुगम  हुई।  इन्हीं  तगड़े  घोड़ों  ने  सेना को  भी  मजबूती दी। पैदावार  बढने  से  किसानों  को  फायदा  हुआ  और  वे इतनी  फुरसत पा  सके  कि  दूसरे  कामों  में समय  और  उर्जा  लगा  सकें। इससे  आबादी बढने  लगी ,यानि  और मजदूर  यानि  और  पैदावार। इससे  खाद्य  सप्लाई  बढी जिसने  आबादी को  और  बढाया। इसे  वर्चुअस सर्किल कह  सकते  है,विशियस  सर्किल के उलट अर्थ में ।
चूंकि  खेती-किसानी  में  अब  ज्यादा  लोगों की  जरुरत  नहीं  थी  तो  शहरों का  बसना  शुरु  हुआ। शहरों की  संख्या बढी और  पुराने  शहरों के  आकार  भी  बढे। किसानी  से  फुरसत पाये  ये  लोग  व्यापार करने  लगे,नई  चीजें,मार्ग  और  जानकारियों का  द्वार  खुला।  सूदूर  चीन  तक  से  सम्बंध  प्रगाढ  हुये,यहीं  से  अरब  होते  इन्हें  कागज  मिला।  इससे  प्रकाशन  शुरु  हुआ। ज्ञान सस्ता सुलभ  हुआ,अचानक  पढ-लिख सकने  वालों  की  संख्या  में  बेतहाशा वृद्धि  हुई।
इसके  बाद  14वीं  सदी का प्लेग  आया जो कि भारत,मध्यएशिया  से  गया  था।  इसने यूरोप  की  एक  तिहाई  आबादी को  लील  लिया। इससे  खाद्य  सामग्री की  माँग कम हुई,किसानी में  और  कम  लोग  रह  गये। रोमन  कैथोलिक  चर्च  की जकड़बंदी  कम हुई।  इसके  पहले  चर्च  सारी बातें  नियंत्रित  करता  था।  पादरी  पैसे  लेकर पापमुक्ति  करवाते  थे  और  स्वर्ग  का  टिकट  देते  थे। प्लेग  में  पादरी भी  मरे। इसका  कोई निराकरण  या निवारण  चर्च  न दे  पाया,  इससे  उसकी मॉरल  अथारिटी को  चुनौती मिली। चर्च  की चंगुल  से  निकले  लोगो  को  एक  नयी  आजादी का एहसास हुआ जिसने  सोचने-समझने  के  तौर -तरीको  को  बदल  दिया।
चर्च  का  प्रभाव  कम हुआ और  छपाई  मशीन  का  आगमन।  हालाँकि  गुटेनबर्ग  को इसका श्रेय  दिया गया लेकिन सही  यह  है की छपाई मशीन की ईजाद और इसे सुलभ  करने  में  कईयों का अवदान रहा,गुटेनबर्ग  ने  चूंकि  बाईबिल  छापी  थी  जो कि सर्वाधिक  प्रचारित  किताब  हुई इस नाते कईयों  ने  उसे  छपाई का  पितृपुरुष  मान  लिया। चर्च के  समानांतर खगोल,गणित भूगोल  और तकनीक की  किताबें  आयी  जिनमे  ज्यादातर चर्च  की  बातों  का  खंडन होता था।
स्पेन  ने  नई दुनिया  की  खोज  की  ,अमेरिका  नक्शे  पर  आया,पहला उपनिवेश  अमेरीका  ही  बना,  यह  हर तरह  से माकूल  भी था। नयी  जमीन,अपार  धन  और  नयी  भोजन सामग्री।  आलू जिसे  प्रोटीन  और  अन्य  पोषक  तत्वों  की  खान  कह सकते  है,यूरोप  की  थाली में  नमूदार हुआ,लातीन  अमरीका की चीनी की  मिठास।  ऐसे  आहार  को पाकर  यूरोप  की जिंदगी  बदल  गयी,औसत  आयु,देहक्षमता और सोच  भी उसी के  अनुरुप।

ये  परिवर्तन यूरोप  को  हक्का -बक्का  किये  हुये  थे ,ऐसा धन ,खाना  वैभव  उन्होने पहले  कभी  देखा न था। लेकिन वे  परेशान,शंकित  भी  थे  कि  इस  धन,वैभव  का  क्या करें,इससे कैसे  निबटे? क्योंकि रोमन  कैथोलिक  चर्च  धन  को शक की  निगाह से  देखता था।  बाईबल  मे  है  कि  ऊंट  सूई  की नोक  से  निकल  ले  लेकिन  अमीर आदमी ईश्वर की  चौखट  नहीं  चढ  सकता। प्रोटेस्टैंट  सुधार 16वी  सदी मे  शुरु  हुये ,साथ  ही  साथ  जॉन कैल्विन  भी।  उन्होंने  पुराना नजरिया बदल  दिया। पहली  बार  कोई धर्म कह रहा था कि  अमीरी  मे  बुराई  नहीं। ईश्वर  से  वैभव  का  विरोध  कैसा? बल्कि  यह ईश्वर  की  नेमत  है  कि आप  धनी  हुये। आप को  ईश्वर ज्यादा  चाहते  हैं,तभी  तो  आप  अमीर  हुये। उसकी  मर्जी  से  ही  यह  सम्भव  हुआ।जॉन  कैल्विन  ने  बताया  के  आदमी को खूब  मेहनत  करनी  चाहिये,  धन  कमाना  चाहिये  ,सादगी से  रहना चाहिये ताकि इस  धन  को निवेश  किया  जा सके,इसे  अच्छे और मदद के कामों  में  नियोजित  किया  जा सके। अधिक  धन  किसी  भी  प्रकार अधिक  पाप या शैतानी का  चिन्ह  नही  है,उलटे  यह  चिन्ह  इस  बात  का प्रमाण है कि  आप खुदा के  प्यारे  बंदे  हैं,तभी तो  आपको  यह सब  मिला  है(उसकी  कृपा  से)।  कहते  हैं,औद्योगिक क्रांति  के  दो  जनक  है, उपनिवेशवाद और प्रोटैस्टैंट  सुधार। इसने  ही विस्तार-विकास  को  सम्भव  बनाया  बल्कि  अपरिहार्य  भी।

राजशाही किसानी समाजों का  राजनैतिक सिस्टम  है। दुनिया बदल  रही  थी  जहाँ  जमीन  सबसे महत्वपूर्ण  सम्पत्ति  नही  रह गयी  थी।पूंजी  का  प्रादुर्भाव  हुआ ,सुधार  और विद्रोह पनपने लगे,एक  नया  मध्यम  वर्ग  अगली  कतार  मे  आया जो  व्यक्ति स्वातंत्र्य,स्वास्थ्य , सम्पन्नता और  आनंद  को  झिझक और पापबोध  से  नही देखता था  बल्कि  जरुरी  और  काम्य  मानता था। गरीबी की  कामना  करने वालों  और  इसे  गौरवान्वित करने  वालों  को  सुनना  पड़ा  कि  यह  ईच्छा –कामना  वैसी ही  है  जैसे  कोई  बीमार रहने की  मनौती  माने।
इसी  मध्यवर्ग  ने एनलाईटेनमेंट आलोकप्राप्ति  को  अपनाया  और कैथोलिक चर्च  और  राजशाही    से जा भिड़ा। जिसकी  सनद  फ्रांस  क्रांति से  लेकर पहले  विश्व  युद्ध  और  सोवियत  क्रांति  तक  में  दिखी।

यूरोप  का सिक्का केवल  जोर -जबरई और  जालिमपने,  लूट  पर  नहीं चलता। उसने चिकित्सा, गति  और  संचार में  जो  करतब  दिखाया  ,उसके  आगे  सब  नतमस्तक  हैं। ईश्वर को  चुनौती मेडिकल विज्ञान ने  दी  है,मोबाईल  फोन  ने  दी  है, बुलेट  ट्रेन  ने  दी है। यह  केवल  साहित्य  और  सदिच्छा  और भलमनशाही सेक्युलर  फोर्स  के  बूते  का  नही  था। यूरोप  का  राज सॉफ्ट पावर (विज्ञान,संचार,गति) से  चला,केवल  हार्ड पावर(युद्ध,हथियार ,पैसे,लूट) से  नहीं।

सारी  दुनिया  मे  सर्वाधिक शानदार 20  राष्ट्रों  में  16  यूरोप  में  हैं,बाकी  चार  जापान ,कोरिया  इत्यादि  ने भी  उसी  की  राह  पर  चलकर यह मुकाम  हासिल  किया।  यह  चिढने  और  जलने  की  बात  नहीं  है,इससे  सीखने  की  राह  भी  खुलनी चाहिये।
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Friday 9 December 2011

published in prabhaat varta daily; वाम की समस्या


                 मिलो  न तुम तो हम घबरायें, मिलो तो आंख  चुरायें...   * विजय शर्मा
यह  एक  अजीब  स्थिति  है।  वामपार्टियों  से  बुद्धिजीवियों की  नाराजगी  चल  रही  है। वामपार्टियों  की  ज्यादतियों,लोकतंत्रहरण,पार्टी  से  समाज  को  अपदस्थ करना,अपने चहेतों  (अयोग्य  होने  पर  भी) की ताजपोशी  इत्यादि ऐसे  आरोप  हैं,जिनसे  वामपंथी  सरकारें  बच  न  सकीं और  अंतत:  उन्हें  सत्ताच्युत  होना  पड़ा।  इस  परिवर्तन  को  त्वरित  करने में विशेषकर  वाम मन  वाले  बुद्धिजीवियों  की  सर्वाधिक  सक्रिय  भुमिका  रही। यह  पश्चिम  बंगाल  ,केरल  से  लेकर  सारी  दुनिया  में  हुआ। युरप,रुस  में  भी  तानाशाही  कम्युनिष्टों  की  खिलाफत  सबसे  पहले  और  सबसे  ज्यादा वो  करते  रहे,जिन्हें वाम  ही  माना जाता  है।  ऐतिहासिक  कारणों  से  वोट  की  राजनीति  में  वाम  थोड़ा  कमजोर  है। और  इस  ऑफीशियल  वाम से  नाराज विचारकों,नागरिक  संगठनों,मानव  अधिकार  कार्यकर्ताओं  और  पर्यावरण  प्रिय लोगों  की  तो  अपने  यहाँ चुनाव लड़ने-जीतने  की  हैसियत  ही  नहीं  बनी। यह  तबका  वाम  को  सैद्धांतिक  चुनौती  दे  सकता  है, इन  पर  नैतिक सवाल  खड़े  कर  उसकी  विचारधारा  या  कार्यक्रम को  सकते  में  डाल  सकता है।  पार्टी  की  मॉरल  अथारिटी  इस  प्रेशर  ग्रुप के  सामने  बेबस  हो  जाती  है। और  आखिरकार  कोई  दूसरा  ग्रुप-पार्टी  चुनावी  फायदा ले  उड़ता  है।  यह  स्वाभाविक  भी  है क्योंकि किसी  के  अपदस्थ  होने  पर  जो  दूसरा ग्रुप या  दल सबसे अ‍ॅरग्नाईज्ड  होगा फायदा  उसे  ही  मिलेगा।  इसपर  ज्यादा जी  छोटा  कर कोई  लाभ  नहीं। इसके  साक्ष्य  फ्रेंच  क्रांति  से  रुश से लेकर अपने  यहाँ  तक   देखे  जा सकते  हैं।यहाँ  तक  तो  ठीक  है,अजीब  स्थिति इसके  बाद  शुरू  होती  है।
ज्यादातर  वो  वाम  मन  वाले,  जिन्होनें पिछली वामपार्टियों  का  गढ  तोड़ने  में  साहसिक और  अहम  भूमिका  निभायी, दरअसल  वामपंथ  को  थोड़ा  सुधार-बुहार  कर  वापस  लाना चाहते हैं। नई  सरकार  से  उनकी मित्रता  ज्यादा दिन  निभ  नही    पाती। ऐसे  में  सवाल यह  है  कि  ये  लोग  वामपंथ  को इतना  कनसेशन\रियायत  क्यूँ  देना चाहते  हैं। कि  यह  थोड़ी  रद्दोबदल  सुधार-बुहार  के  साथ  वापिस  सत्ता  पर  काबिज  हो  जायें। यह  मश्विरा  कि  वाम  अगर  अपनी  ज्यादितियों,लोकतंत्र  विरोध,पार्टी  को  ही  समाज  मानने की  प्रवृत्ति,अयोग्य चहेतों  को  चढाना-बढाना, से  अगर  बाज  आ जाये  तो  इसे  वापिस  लाया  जा  सकता  है। क्या कोई  कहेगा  कि  पूंजीवाद  अपने लालच-मुनाफे  को  थोड़ा  कम कर  दे,थोड़ा  शील  और  संयम अपना ले तो  इसमें  भी  कोई  बुराई नहीं।  याकि  हिंदूत्ववादी  पार्टीयाँ, क्षेत्रीय दल  थोड़ी  उदारता  दिखाते  थोड़ी  सेक्युलर रंग-पुताई  कर  लें  तो  वाजपेयी ,आडवाणी  भी  किसी  से  कम  योग्य  और  काम्य नहीं।  यह  छूट  अन्य किसी दल  को नहीं दी  जा  सकती तो  फिर कॉपी  जाँचने  में  इतनी ढिलाई-छूट  नरमदिली  और  ग्रेस  नम्बर का प्रावधान  का  फायदा वाम  को  क्यों  मिलना चाहिये? यह  तो  सरासर  तौल  में  दंडी  मारने  जैसे हैं।
सारी  दुनिया  में  अरब  मुल्कों  से  लेकर  वालस्ट्रीट  तक की  खबरें  साफ  नहीं  हैं। जिन  सरकारों  को  6  महीने  पहले तक  अवैध  घोषित  किया गया वहाँ  नये  आये  नेतृत्व  की  साख  भी  धूल  चाट  रही  है। सारे  मुल्क  उसी  घमासान  से  गुजर  रहे  हैं-अब  भी।  शायद  थोड़े ज्यादा  ही  बदहवास  और  दिशाहीन। वाल  स्ट्रीट  को  दखल  करो  का  नारा  भी  अब  तक  समझ  के  बाहिर है,और  अपने-अपने  रुझान  से  कयास  लागाये  जा रहे  हैं। ग्रीस, स्पेन,  आयरलैंड,  पुर्तगाल और  ईटली  दिवालिया  होने के  आखरी  कगार  पर  खस्ताहाल  हैं। जनता  सड़कों  पर  आ  गयी  है-यह सब  पूंजीवाद  के  विरोध में  है या  सरकारी  नौकरियों के  संकोचन  के  खिलाफ  या   स्वास्थ्य,  शिक्षा  जैसे सामाजिक महत्व के क्षेत्रों  में आर्थिक कटौती  के  खिलाफ,आस्टरिटी  मेजर(कमखर्ची)  के  खिलाफ  या कि  केवल  बेकार  मनचलों,  हिप्पी किस्म  के ठाले बैठे  लोगों  की  भीड़  है,इस  पर  अलग-अलग  मत  हैं। सबसे  रोचक  तथ्य यह  भी  कि  यहाँ  कई  सारी  जगहों  पर  समाजवादी रुझान की सरकारें  हैं और  जनता  के  गुस्से  के  निशाने  पर  समाजवादी  नेतृत्व  भी है। स्पेन में तो  सीधे  समाजवादी  सरकार  थी। डूबती  अर्थव्यव्स्था  को  सम्हालने  हेतु  सरकार खर्चों  मे  कटौती करने  को  मजबूर  है।  जाहिर  है  सरकारी  खर्चों  में  कटौती-  मतलब वेतन,पेंशन,भत्ता,इंक्रीमेंट और  सामाजिक  क्षेत्रों  स्वास्थ्य  शिक्षा  के  खर्चे  में  कटौती। इससे  कमजोर तबका परेशान और प्रभावित  है। नये  टैक्स  लगाने की  कारवाई  पर  मध्यम वर्ग (जो  टैक्स देता  है) भी  नाराज  है। इस तरह सरकार दोनों तरफ  फँसी हुई  है। पहले  कहते  थे,अच्छी इक्नामिक्स ही  अच्छी  पॉलिटिक्स है,अब  कहते  हैं,बुरी (अलोकप्रिय) इक्नामिक्स,  अच्छी  पॉलिटिक्स(लोकप्रिय)  है। यह  भी  समाजवादियों  और  पूंजीवादियों(वे  खुद  को  उदारवादी  और  लोकतांत्रिक कहते  है) में  टकराव  का  एक  पुराना  मुद्दा  है।
अपने  यहाँ  से  समझना  चाहें  तो  गुजरात,  पंजाब,  हरियाणा  जैसे  (अ)समाजवादी  प्रदेशों  की तुलना   पश्चिम  बंगाल,  बिहार  या  पूर्वांचल  जैसे जनवादी- समाजवादी प्रदेशों  से  कर  सकते  हैं।  जनवादी  प्रदेशों  की  सरकार  गरीबों  की  हमदर्द  है,मजदूर  किसानों  की  खैरख्वाह हैं लेकिन  इनकी  अंटी में  इतना  पैसा  नही  है या  फिर  इसके  अभाव  में  कोई  ऐसी  योजना  भी  नहीं  है कि बगैर पैसों  या  कम  पैसों  में  कमजोर  तबके को  कैसे  खुशहाल  बनाया  जाये। दूसरी  तरफ  गुजरात,  हरियाणा, पंजाब  की  सरकारें उद्योग-उद्यम  को  बढावा  देती  है,इंटरप्रेन्योरशिप  को  केंद्र  में  रखती  हैं।  जिससे  तात्कालिक  रुप  से  मजदूर-  किसान-गरीब  की  थोड़ी अनदेखी  भी  होती  हो।  पर  चूंकि  समाज  की   सम्पन्नता  बढती  जाती है,तो  यह  गरीब  तबका भी  लाभान्वित  होता  है। इस  लाभ  के  पैसों  का  उपयोग  सामाजिक  क्षेत्रों  में  होता है,मसलन सड़क,पानी , बिजली , स्वास्थ्य,  शिक्षा, बिजलीघर।  जिससे वह  गरीब  भी  लाभ  पाता  है,और  वैसा  गरीब  नहीं रह  जाता। एक  सर्किल  अ‍ॅटोमेटेड  होता  है  जहाँ  फ्लाईव्हील  यानि  विकास  का  बड़ा  पहिया  स्पीड  पकड़  लेता  है जिसकी  हवा सभी  को  मिलती  है। इसे  यूँ  समझें  कि  कोलकाता  में  डायमंड  हार्बर  रोड  अगर  दुरुस्त हो,  तो सागर-आमतल्ला  का  गरीब  60  कि.मी.  का सफर  कर  रोज  शहर  आ  सकता  है-- दिहाड़ी  करने,  चने  बेचने। लेकिन  अगर  सड़क सफर  में  ही  4  और  4  घंटे लग  जायें तो  वह  इससे  वंचित  रहेगा। क्योंकि  रोज  की  आवाजाही  का कष्ट  उसे  इस  लायक  न  रखेगा  कि  वह  इसकी  सोच  भी  सके। ये  दो  विचारधारा  हैं  जिनकी  प्रतियोगिता  100  सालों  से  चल  रही है। दोनों  के  अपने  तर्क  हैं। लेकिन प्रमाण  के  लिये  समाजवादियों  के  पास  उदाहरण  इक्का-दुक्का ही हों  ,वहीं  लोकतांत्रिक, उदारवादी, बाजारवादी(जिन्हें  दवाब  बनाने और चिढाने   के  लिये पूंजीवादी कहा  जाता  है) धारा के  पास ऐसे  समाजों  की  लम्बी  फेहरिश्त  है।
फिर  कहूँ  कि:
1.अगर लालच’  पूंजीवाद में अंतर्निहित है , तो समाजवाद के सर पर भी डाह’  सवार है...
2.अरस्तु ने सही कहा कि सम’  अवस्था  उन दोनों अतिरेकों के मध्य विराजती है ,जो दोनों ही दोषपूर्ण  हैं...
vsharma61@rediffmail.com

published in prabhaat varta daily;Hindi Brotherhood




                            हिन्दी ब्रदरहुड      
 हिन्दी की प्रबुद्ध बिरादरी मे एक ही तरह के लोगों की बहुतायत है। लगभग सभी लोग प्रवासी, देहाती पृष्ठभुमि के,छोटे- मोटे नगरों  के स्कूल-कालेज में पढाने वाले या फिर बैंक के कर्मचारी सरकारी दफ्तरों के हिंदी अधिकारी किस्म के लोग हैं,लगता  है हिन्दी भाषी  बुद्धिजीवि सिर्फ हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी ,र्शोधार्थी, अध्यापक, अफसर ही है।
क्या न अच्छा होता, अगर इसमे अंग्रेजी पढने- पढाने वाले,अर्थनीति, राजनीति शाष्त्र ,मनोविज्ञान, दर्शनशाष्त्र के लोग भी शुमार होते और भी आगे बढ्कर विज्ञान  यानि रसायन शाष्त्र,भौतिकी, जीव विज्ञान, गणित, ज्यामिति के लोगो का भी स्वागत होता । कॉमर्स,  मैनजमेंट, मार्केटिंग, इंज़िनियरिंग, चिकित्सा के लोग भी हमारे बीच उठते-बैठते  तो मजा आ जाता।लेकिन ले दे कर  वही कवि-कहानीकार,पत्रकार, आलोचक किस्म का जीव ही हमें नसीब होता है। हिन्दी भाषी  क्यों सिर्फ हिन्दी साहित्य की जद मे बंधा  रहे,भिन्न विषयों से आने वाले आई ए एस,आई पी एस तथा ज्युडिसरी के लोग भी इसमे होते तो बातचीत  का दायरा और भी फैलता।
कभी-कभी इच्छा होती  है के पता करें कि बजट को हमारे आचार्य कितना समझते है.पार्टीलाइन के अलावा हमारा बौद्धिक इस पर कोई टिप्पणी करने काबिल नहीं,’पार्टीगणित’ के अलावा और कोई गणित हमने सीखा ही नहीं । वामपंथी साहित्यकारों-विचारकों का इकनॉमिक्स ज्ञान पास मार्क लायक भी नहीं।
ऎसा नही है के हिन्दी साहित्य के छात्र ,शोधार्थी ,अध्यापक प्रखर और गम्भीर चिंतक नही हो सकते,लेकिन साहित्य की अपनी सीमा है,और ऎसे में साहित्य समाज का (एकांगी और सीमित )दर्पण बन कर रह जाता है,
जिन्दगी के आइने को तोड़ दो, इसमे अब कुछ भी नजर आता  नहीं.....
विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले ज्यों दुकानदार,छोटा और बड़ा, उद्योगपति ,सामान्य और
विशिष्ट ,बैंकर (कर्मचारी,लिपिक,अनुवादक, अफसर नही),चार्टर्ड एकाउनटेंट, प्रबंधन के गम्भीर अध्येता,कानून की बारीकियों का इतिहास- विकास और वर्तमान परिपेक्ष्य को  समझने वाले लोग,मानवाधिकारों के पैरोकार,लेजिस्लेशन और ज्युरिसप्रुडेंश के अधिकारी विद्वान,अभियंता और चिकित्सक हमारी बिरादरी को समर्थ करें ना करें ,एकांगी  भावविव्हल  होने से थोड़ा बचायेंगे.,यही बात शिक्षाशाष्त्री  पर (शिक्षकों पर नहीं) भी लागू  होती है.,इतिहासकारों (इतिहास के अध्यापक नही) पर भी सही है,.,वैसे तो आर्किटेक्चर ,अंथ्रोपोलोजी.,ज्योतिष, संस्कृत, पर्यावरण,यातायात एक्स्पर्ट, सिटी प्लानर का साथ भी गजब का है, कमसकम दूसरी भाषा अंग्रेजी,फ्रेंच,स्पानी, अरबी, जर्मन, उर्दू  के जानकार के बगैर हमारा  ज्ञान संकुल कितना अधूरा  होता है, इस पर गौर करना चाहिये।
इनके बगैर हमारी तीखी बातचीतों मे क्या कुछ छूट  जाता  है,क्या- क्या हमसे ‘मिस’   हो ज़ाता है, इसका शायद हमे अन्दाजा भी  नहीं है,  भौतिकी और गणित मूल विषय है इससे दर्शन और लॉजिक का निकट का सम्बन्ध है, जो जा  कर व्याकरण  के माध्यम से भाषा मे प्रदर्शित होता  है।
सभी रुपंकर और प्रदर्शन कलाओं मे इसकी ध्वनि खनखनाती  है । नाटक,  चित्रकला ,संगीत वास्तुकला, सिनेमा, फोटोग्राफी   कैसे हमारे चिंतन के सघन अंग है, यह  शायद  हमे पता भी नही होता, इन की विकास यात्रा ने कैसे - कैसे हमारे सोच और ज़िन्दगी को बदला है, यह हतप्रभ कर देने वाला है।
भाषा और केवल भाषा उदघाटित कम करती है, छिपाती ज्यादा है । दूसरे विषयों की अंतरंगता के अभाव मे वह भावातिरेक की शिकार होती  है , आत्मविह्व्ल हो कर हम कविता कहानी लिखने -पढने लग जाते है , अपने  को समदर्शी , सम्वेदनशील और सेकुलर, आधुनिक मान बैठते   हैं, गरीब- पिछड़ा –कमजोर, अक्लियत के प्रति  अतिशय  लगाव महसूस करते है, उनके लिये कुछ किया भी चाहते है ,परंतु यह सदभावना आकांक्षा  से अधिक कुछ नही बन पाती ,सदाशयता बेपंख उडान ही नही भर पाती ।
क्योंकि, जीवन की खासकर आधुनिक जीवन की ,वर्तमान समय की  संशलिष्टता  और जटिलता---  हमें न तो उसका  मूल्यांकन करने की क्षमता  देती  है, न ही उससे  निजात की कारवाई  करने  का फन और काबिलियत। ऐसे में केवल सम्वेदना के हथियार से सारी मनुष्यता और देशकाल को समझने का प्रयास दोषपूर्ण और अधूरा ही रह जाता है
कभी जब हमारे पास ये साधन नहीं  थे तब तो खैर मजबूरी थी , लेकिन आज भी उसी पुरानी चक्की  में आटा पीसने की जिद हठ  से अधिक कुछ नहीं ।
यह कोई नूतन का अवगाहन और पुराने को तिलांजलि नही है , यह ‘बाइनरी’ सोच ही त्रुटिपुर्ण है । चीजें अक्सर बाइनरी को समेट कर उसके पार जाकर सम्पूर्णता प्राप्त करती है ,अर्थ् सिद्धि करती है। बाइनरी तो समझने का एक प्रारम्भिक औजार और प्रवेशद्वार मात्र है।
ऐसी जिद से उसका भी कोई  भला नही  होगा, जिसके लिये हमारा ह्रदय तड़पता है।
सारे विश्व  मे इतने महत्वपूर्ण काम, तमाम विषयों मे हुये हैं के साहित्य को पैनापन उनसे उधार लेना पड़ता है। साहित्य लगातार उनकी मदद से खुद को धारदार और प्रभावी करता चलता है। ऐसा मानने मे कोई  हेठी नही है लेकिन अपने यहां साहित्य प्रेमचन्द के ग्राम दर्शन ,जैनेन्द्र के मनोविज्ञान और निर्मल वर्मा की आधुनिक शहरी निस्संगता से जान नही छुड़ा पा रहा । उपर से स्त्री ,दलित, अस्मिता विमर्श भी इसका हमराह हो गया ,इसके उपर करेले पे नीम चढी भ्रष्ट राजनीति और डफर एलिट का बोलबाला।
सच्चे का मुंह काला और झुठे का बोलबाला...
......
लेकिन इन बातों को प्रभावी बनाने के लिये जिस इंटरडिसिप्लिन निर्ममता और व्यवहारिक  कुशलता चाहिये , वो यहा नदारद है।
छोटे कस्बों से आए बी ए पास बेरोजगार नौजवान की पीड़ा और हताशा समझने की बात है, उनका क्रोधी और विद्रोही होना भी लाजिमी है । बड़े नगरों के महाविद्यालयों का डेरा और पार्टी के लोगो की साथ -संगत उनमे एक प्रकार की प्रखरता –तीव्रता- बैचैनी भी भरती है।
अकसरहः  ये जोरदार- मुग्धकारी , तेजाब की तरह उफनती कविता भी लिखते है ।
यह बीए पास (ज्यादातर हिन्दी में,क्योंकि बारंहवी के परिणाम ने बाकी सारे रास्ते बन्द किये) आत्मकथानक  गजलों ,कहानी ,स्त्रीविमर्श , दलितचेतना के लिये भी सोलह आने सही है।
लेकिन  विश्व्वविद्यालयों  और अखबारी दफ्तरों  मे युवा  उर्जा को अधिक सुगठित –नियंत्रित संयमी- समझदार, विवेकवान और न्यायपूर्ण   बनाने का  भी  मौका  होता  है। 
शक्तिशाली को न्यायशील बनावे और न्यायशील को शक्तिशाली--  यही तो मंत्र है।
यही तो लोकतंत्र है, सुशाशन है, सुराज है, देशप्रेम है ................
वरना ऐसा क्योँ  कर होता है के धुमिल ,दुश्यंत ,आलोकधन्वा , मंगलेश डबराल ,वीरेन डंगवाल सरीखी अद्भुत पंक्तिया लिखने वाले लोगों के जीवन काल में ही उनकी प्रारम्भिक रचनायें फीकी - फीकी सी लगती हैँ ,खुद उन्हें भी, कमसकम प्रभावोत्पादकता के मामले  मे -नारे की  टीप पर लिखी  गई ।
 हमें सुकांत भट्टाचार्य और जीवनानन्द दास के फर्क को गम्भीरता  से परखना  चाहिये । मुक्तिबोध क्योंकर धुमिल, दुश्यंत ,आलोकधंवा ,  मंगलेश डबराल  और वीरेन डंगवाल  से अधिक दीर्घायु है यह भी ध्यान देना चाहिये ।
भूख, गरीबी, खून ,पसीना ,आंसु
मजदूर, शोषण, मुनाफा, स्त्री -दलित ,क्रांति ,लाल किले पर लाल निशान    जैसी कविता राजनीति के पद- प्रच्छालन ही कर सकती है । किसी दुस्समय मे किसी हारे की सहचर-  पाथेय बन सकती है , भ्रष्ट -निरंकुश  सत्ता का राज मार्ग पर थोड़े समय को रास्ता रोको  अभियान बन सकती है परंतु दीर्घकालिक प्रभाव के लिये पूरी  संस्कृति की राह मे एक निर्णायक मोड़ बनने के लिये उसे गरमागरम ,तेजाबी ,मुँहफट, बेखौफ, जवान, दीवानी कविता से अधिक कुछ होना चहिये । बीस बरस पहले शलभ श्री राम सिंह   का गीत नफस-नफस कदम-कदम .....राष्ट्र  गीत के बराबर पाये का लगता था, हम लोग उसे यहां वहां गाते भी थे (नूर ,कोलख्यान ,बातिश ,कुशेश्वर को याद होगा)लेकिन इतने दिनों के अंतराल मे हालात थोड़े भी बदले नहीं (जरुर कोइ भारी  चूक है)।
यह गीत आज भी प्रासंगिक है ,यह दर्प की बात नहीं है, ऐसी प्रासंगिकता पर केवल शर्म और झेंप होनी चाहिये
किसी ने कहा है के बुद्ध के पहले भी दुनिया ऐसी ही बेतरतीब थी जैसी बुद्ध के बाद।
फिर अपनी क्या हस्ती, तेरी मेरी क्या बिसात.....