हिन्दी ब्रदरहुड
हिन्दी की प्रबुद्ध बिरादरी मे एक ही तरह के लोगों की बहुतायत है। लगभग सभी लोग प्रवासी, देहाती पृष्ठभुमि के,छोटे- मोटे नगरों के स्कूल-कालेज में पढाने वाले या फिर बैंक के कर्मचारी सरकारी दफ्तरों के हिंदी अधिकारी किस्म के लोग हैं,लगता है हिन्दी भाषी बुद्धिजीवि सिर्फ हिन्दी साहित्य का विद्यार्थी ,र्शोधार्थी, अध्यापक, अफसर ही है।
क्या न अच्छा होता, अगर इसमे अंग्रेजी पढने- पढाने वाले,अर्थनीति, राजनीति शाष्त्र ,मनोविज्ञान, दर्शनशाष्त्र के लोग भी शुमार होते और भी आगे बढ्कर विज्ञान यानि रसायन शाष्त्र,भौतिकी, जीव विज्ञान, गणित, ज्यामिति के लोगो का भी स्वागत होता । कॉमर्स, मैनजमेंट, मार्केटिंग, इंज़िनियरिंग, चिकित्सा के लोग भी हमारे बीच उठते-बैठते तो मजा आ जाता।लेकिन ले दे कर वही कवि-कहानीकार,पत्रकार, आलोचक किस्म का जीव ही हमें नसीब होता है। हिन्दी भाषी क्यों सिर्फ हिन्दी साहित्य की जद मे बंधा रहे,भिन्न विषयों से आने वाले आई ए एस,आई पी एस तथा ज्युडिसरी के लोग भी इसमे होते तो बातचीत का दायरा और भी फैलता।
कभी-कभी इच्छा होती है के पता करें कि बजट को हमारे आचार्य कितना समझते है.पार्टीलाइन के अलावा हमारा बौद्धिक इस पर कोई टिप्पणी करने काबिल नहीं,’पार्टीगणित’ के अलावा और कोई गणित हमने सीखा ही नहीं । वामपंथी साहित्यकारों-विचारकों का इकनॉमिक्स ज्ञान पास मार्क लायक भी नहीं।
ऎसा नही है के हिन्दी साहित्य के छात्र ,शोधार्थी ,अध्यापक प्रखर और गम्भीर चिंतक नही हो सकते,लेकिन साहित्य की अपनी सीमा है,और ऎसे में साहित्य समाज का (एकांगी और सीमित )दर्पण बन कर रह जाता है,
‘जिन्दगी के आइने को तोड़ दो, इसमे अब कुछ भी नजर आता नहीं.....’
विभिन्न क्षेत्रों से ताल्लुक रखने वाले ज्यों दुकानदार,छोटा और बड़ा, उद्योगपति ,सामान्य और
विशिष्ट ,बैंकर (कर्मचारी,लिपिक,अनुवादक, अफसर नही),चार्टर्ड एकाउनटेंट, प्रबंधन के गम्भीर अध्येता,कानून की बारीकियों का इतिहास- विकास और वर्तमान परिपेक्ष्य को समझने वाले लोग,मानवाधिकारों के पैरोकार,लेजिस्लेशन और ज्युरिसप्रुडेंश के अधिकारी विद्वान,अभियंता और चिकित्सक हमारी बिरादरी को समर्थ करें ना करें ,एकांगी भावविव्हल होने से थोड़ा बचायेंगे.,यही बात शिक्षाशाष्त्री पर (शिक्षकों पर नहीं) भी लागू होती है.,इतिहासकारों (इतिहास के अध्यापक नही) पर भी सही है,.,वैसे तो आर्किटेक्चर ,अंथ्रोपोलोजी.,ज्योतिष, संस्कृत, पर्यावरण,यातायात एक्स्पर्ट, सिटी प्लानर का साथ भी गजब का है, कमसकम दूसरी भाषा अंग्रेजी,फ्रेंच,स्पानी, अरबी, जर्मन, उर्दू के जानकार के बगैर हमारा ज्ञान संकुल कितना अधूरा होता है, इस पर गौर करना चाहिये।
इनके बगैर हमारी तीखी बातचीतों मे क्या कुछ छूट जाता है,क्या- क्या हमसे ‘मिस’ हो ज़ाता है, इसका शायद हमे अन्दाजा भी नहीं है, भौतिकी और गणित मूल विषय है इससे दर्शन और लॉजिक का निकट का सम्बन्ध है, जो जा कर व्याकरण के माध्यम से भाषा मे प्रदर्शित होता है।
सभी रुपंकर और प्रदर्शन कलाओं मे इसकी ध्वनि खनखनाती है । नाटक, चित्रकला ,संगीत वास्तुकला, सिनेमा, फोटोग्राफी कैसे हमारे चिंतन के सघन अंग है, यह शायद हमे पता भी नही होता, इन की विकास यात्रा ने कैसे - कैसे हमारे सोच और ज़िन्दगी को बदला है, यह हतप्रभ कर देने वाला है।
भाषा और केवल भाषा उदघाटित कम करती है, छिपाती ज्यादा है । दूसरे विषयों की अंतरंगता के अभाव मे वह भावातिरेक की शिकार होती है , आत्मविह्व्ल हो कर हम कविता कहानी लिखने -पढने लग जाते है , अपने को समदर्शी , सम्वेदनशील और सेकुलर, आधुनिक मान बैठते हैं, गरीब- पिछड़ा –कमजोर, अक्लियत के प्रति अतिशय लगाव महसूस करते है, उनके लिये कुछ किया भी चाहते है ,परंतु यह सदभावना आकांक्षा से अधिक कुछ नही बन पाती ,सदाशयता बेपंख उडान ही नही भर पाती ।
क्योंकि, जीवन की खासकर आधुनिक जीवन की ,वर्तमान समय की संशलिष्टता और जटिलता--- हमें न तो उसका मूल्यांकन करने की क्षमता देती है, न ही उससे निजात की कारवाई करने का फन और काबिलियत। ऐसे में केवल सम्वेदना के हथियार से सारी मनुष्यता और देशकाल को समझने का प्रयास दोषपूर्ण और अधूरा ही रह जाता है
कभी जब हमारे पास ये साधन नहीं थे तब तो खैर मजबूरी थी , लेकिन आज भी उसी पुरानी चक्की में आटा पीसने की जिद हठ से अधिक कुछ नहीं ।
यह कोई नूतन का अवगाहन और पुराने को तिलांजलि नही है , यह ‘बाइनरी’ सोच ही त्रुटिपुर्ण है । चीजें अक्सर बाइनरी को समेट कर उसके पार जाकर सम्पूर्णता प्राप्त करती है ,अर्थ् सिद्धि करती है। बाइनरी तो समझने का एक प्रारम्भिक औजार और प्रवेशद्वार मात्र है।
ऐसी जिद से उसका भी कोई भला नही होगा, जिसके लिये हमारा ह्रदय तड़पता है।
सारे विश्व मे इतने महत्वपूर्ण काम, तमाम विषयों मे हुये हैं के साहित्य को पैनापन उनसे उधार लेना पड़ता है। साहित्य लगातार उनकी मदद से खुद को धारदार और प्रभावी करता चलता है। ऐसा मानने मे कोई हेठी नही है लेकिन अपने यहां साहित्य प्रेमचन्द के ग्राम दर्शन ,जैनेन्द्र के मनोविज्ञान और निर्मल वर्मा की आधुनिक शहरी निस्संगता से जान नही छुड़ा पा रहा । उपर से स्त्री ,दलित, अस्मिता विमर्श भी इसका हमराह हो गया ,इसके उपर करेले पे नीम चढी भ्रष्ट राजनीति और डफर एलिट का बोलबाला।
सच्चे का मुंह काला और झुठे का बोलबाला...
......
लेकिन इन बातों को प्रभावी बनाने के लिये जिस इंटरडिसिप्लिन निर्ममता और व्यवहारिक कुशलता चाहिये , वो यहा नदारद है।
छोटे कस्बों से आए बी ए पास बेरोजगार नौजवान की पीड़ा और हताशा समझने की बात है, उनका क्रोधी और विद्रोही होना भी लाजिमी है । बड़े नगरों के महाविद्यालयों का डेरा और पार्टी के लोगो की साथ -संगत उनमे एक प्रकार की प्रखरता –तीव्रता- बैचैनी भी भरती है।
अकसरहः ये जोरदार- मुग्धकारी , तेजाब की तरह उफनती कविता भी लिखते है ।
यह बीए पास (ज्यादातर हिन्दी में,क्योंकि बारंहवी के परिणाम ने बाकी सारे रास्ते बन्द किये) आत्मकथानक गजलों ,कहानी ,स्त्रीविमर्श , दलितचेतना के लिये भी सोलह आने सही है।
लेकिन विश्व्वविद्यालयों और अखबारी दफ्तरों मे युवा उर्जा को अधिक सुगठित –नियंत्रित संयमी- समझदार, विवेकवान और न्यायपूर्ण बनाने का भी मौका होता है।
शक्तिशाली को न्यायशील बनावे और न्यायशील को शक्तिशाली-- यही तो मंत्र है।
यही तो लोकतंत्र है, सुशाशन है, सुराज है, देशप्रेम है ................
वरना ऐसा क्योँ कर होता है के धुमिल ,दुश्यंत ,आलोकधन्वा , मंगलेश डबराल ,वीरेन डंगवाल सरीखी अद्भुत पंक्तिया लिखने वाले लोगों के जीवन काल में ही उनकी प्रारम्भिक रचनायें फीकी - फीकी सी लगती हैँ ,खुद उन्हें भी, कमसकम प्रभावोत्पादकता के मामले मे -नारे की टीप पर लिखी गई ।
हमें सुकांत भट्टाचार्य और जीवनानन्द दास के फर्क को गम्भीरता से परखना चाहिये । मुक्तिबोध क्योंकर धुमिल, दुश्यंत ,आलोकधंवा , मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल से अधिक दीर्घायु है यह भी ध्यान देना चाहिये ।
भूख, गरीबी, खून ,पसीना ,आंसु
मजदूर, शोषण, मुनाफा, स्त्री -दलित ,क्रांति , “लाल किले पर लाल निशान” जैसी कविता राजनीति के पद- प्रच्छालन ही कर सकती है । किसी दुस्समय मे किसी हारे की सहचर- पाथेय बन सकती है , भ्रष्ट -निरंकुश सत्ता का राज मार्ग पर थोड़े समय को “रास्ता रोको” अभियान बन सकती है परंतु दीर्घकालिक प्रभाव के लिये पूरी संस्कृति की राह मे एक निर्णायक मोड़ बनने के लिये उसे गरमागरम ,तेजाबी ,मुँहफट, बेखौफ, जवान, दीवानी कविता से अधिक कुछ होना चहिये । बीस बरस पहले शलभ श्री राम सिंह का गीत “नफस-नफस कदम-कदम .....” राष्ट्र गीत के बराबर पाये का लगता था, हम लोग उसे यहां वहां गाते भी थे (नूर ,कोलख्यान ,बातिश ,कुशेश्वर को याद होगा)लेकिन इतने दिनों के अंतराल मे हालात थोड़े भी बदले नहीं (जरुर कोइ भारी चूक है)।
यह गीत आज भी प्रासंगिक है ,यह दर्प की बात नहीं है, ऐसी प्रासंगिकता पर केवल शर्म और झेंप होनी चाहिये
किसी ने कहा है के बुद्ध के पहले भी दुनिया ऐसी ही बेतरतीब थी जैसी बुद्ध के बाद।
फिर अपनी क्या हस्ती, तेरी मेरी क्या बिसात.....
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