आखिरी मुलाकात की हड़बड़ी
अनय जी को याद करते हुये यह लिखने का कोई अर्थ नहीं बनता कि वे कितने अच्छे इंसान थे,,मुझे कितना चाहते थे,हमलोगों के कितने घनिष्ठ थे। किन-किन से उनके दोस्ताने थे,किनसे वे नाराज रहते थे।क्योंकि ज्यादातर सम्पर्क –सम्बंध इसी ढर्रे के होते हैं,फिर पढने- लिखने में रुचि रखने वाले विचारशील,सामाजिक सरोकार रखने वाले गृहस्थों और देश दुनिया के हालात पर दुखी रहने वाले चित्तधर क्योंकर अलग हों भला।
हर आदमी ‘यूनिक’ होता है,यह जैसे सही है,वैसे ही यह भी उतना ही सही है कि हमसब एक से लोग,एक सा जीवन जीते हैं।एक सी चिंताओं और सरोकारों में फंसे होते हैं। एक ही सी लालच,पद-प्रतिष्ठा,अच्छा जीवन, सम्मान, मैत्री और प्रेम की तलाश में भटकते हैं-आजीवन। चूंकि हर कोई बढिया मैत्री,प्रेम और सम्मान की तलाश में मुब्तिला होता है,अत: यह भीड़ अधिकाधिक इसके अभ्यर्थियों की भीड़ बनती जाती है,जहाँ हर कोई इसे पाना चाहता है,और इसे देने वाले (गुण)ग्राहक कम बचते हैं।
हर मौत यूँ तो कुछ सिखा जाती है,आँखों में उँगली डाल कर। लेकिन आस-पास की मौत ज्यादा प्रभावित करती है।अगर आप खुद को थोड़ा भी सामाजिक सम्बंधों से सम्बद्ध और संपृक्त मानते हैं,तो यकीन करना ही पड़ता है कि जिस लाईन में आप खड़े हैं,उसी पंक्ति में कोई साथी-सिपाही खेत रहा। फौजी जानकारी वाले बताते हैं कि लड़ाई के वारजोन में देशप्रेम,विदेशनीति और राजनैतिक-सामाजिक मुद्दों से अधिक विचलन इस बात से होता है कि अपनी टुकड़ी का कोई साथी खेत रहा। और इसी प्रेरणा, गुस्से,बदले की भावना से उनमें जोश भर जाता है। इसे ही कामरेडरी कहते हैं। जिसके साथ आपने सबेरे चाय पी हो,जिससे आपने कल अपने सिरहाने का तकिया सांझा किया हो,जिसने आपकी बेल्ट कसी हो,और आपके हैट-हेलमेट को ठीक पोजीशन किया हो,उसका चले जाना सचमुच चोट करता है। शायद यही वजह हो कि फौज, संघर्ष के मैदानों और जेल में साथ रहे लोगों की दोस्ती कुछ लग किस्म की पक्की सी होती है।
अनय जी हिंदी के अध्यापक रहे,अध्यापकों के संगठन से भी जुड़े रहे। ठीक-ठाक स्वास्थ्य में रिटायर हुये। पारिवारिक दायित्व भी लगभग सम्पन्न हो चुके थे। सुनते हैं कानपुर में एक घर भी बनाया। आम दृष्टि में वे सफल जीवन जी चुके थे। रोग-भोग भी बहुत ज्यादा न झेला था।
मैं कभी उनके घनिष्ठ रहा या नहीं ,पता नहीं। लेकिन मिलने पर वे हाथ मिलाते थे,अपनी या दूसरे की किसी तल्ख चुटकी पर जोर से गुड़ुप मार कर हँसते थे। हर सभा के बाद कुल जमा 15-20 लोगों में(हिंदी सभाओं की यह रिकार्ड उपस्थिति है,कोरम तो 5-6 में ही माना जाता है),जो 5-6 की दो तीन टोलियाँ बनती थी,जो सभा से निकल कर बाहर खड़े-खड़े कहीं चाय पीते,सिगरेट सुलगाते,एक छोटी सभा और फुटपाथ पर कर लेते,हमलोग हमेशा इसमें अनय जी के साथ ही होते।इस जरिये हमलोग उनकी भविष्य की योजनाओं,रुपरेखाओं के सक्रिय सहभागी भी होते ।
उपर से वे बेहद शांत दिखते लेकिन भीतर एक बेचैनी उन्हें कचोटती रहती।यह कोई निजी बेचैनी नहीं थी।हिंदी भाषियों की बात उठाने वाले अनय जी शहर में पहले आदमी थे।जाहिर है इसके लिये उन्हें वाम,प्रगतिशील-सेक्यूलर पार्टीलाईन मैनीफेस्टो से बाहर आना होता होगा। इसके अपने खतरे भी होंगे। माना के ये खतरे जान-जोखिम और गेस्टापो काल से नहीं होंगे,लेकिन शहर कोलकाता में ये कम भी न थे। खासकर जहाँ आदमी का पूरा बैकअप ही किसी छोटी कमेटी,किसी लघु यूनियन,किसी सीमित, एकांगी, विलुप्तप्राय विचार के इर्द-गिर्द घूमती हो। जिनकी कुल सदस्य संख्या 20-30 पार नहीं कर पाती,ऐसे में ‘अपने’ इस छोटे ग्रुप को नाराज करने का जोखिम उठाना साहसिकता ही मानी जायेगी।ये सवाल रुबरु होते ही न जाने क्यूँ जेहन में रामविलास शर्मा की तस्वीर आ जाती है।
जानते हैं,अनय जी अतृप्त गये। यह अतृप्ति क्या थी? वे पत्रिका निकालना चाहते थे। 64 पेजी साल में तीन। जिसका कुल खर्च 20हजार बनता है,प्रति अंक सात हजार से कम। वे बैठने की एक जगह चाहते थे,कोई झन्नाटेदार दफ्तर नहीं,बल्कि हिंदी पत्रिका निकालने और मित्रों और विद्वानों से मिलने-जुलने लायक एक अदद कमरा-कोठरी। जहाँ पानी और पेशाब की व्यवस्था हो ,जहाँ चाय बनायी या मँगवायी जा सके।
वे टीचर फ्रंट के सक्रिय नेता थे। सरकार के ओहदेदारों तक यह अर्जी-गुहार पहुँचा सकते थे। शायद अर्जी दी भी हो। भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी ,माकपा की बड़ी घटक है,जिसने 34 साल यहाँ राज किया। आज भी सारे प्रतिष्ठान,विश्वविद्यालय,पत्रिका,विचारमंच उनके दखल में हैं।वे प्रगतिशील लेखक संघ को सक्रिय देखना चाहते थे। कभी-कभी इस प्रण-प्रतिज्ञा को दोहरा भी देते थे कि मैं प्रलेस को दखल करने वाला हूँ।यह उनका स्वाभाविक हक था जिससे वे लगभग बेदखल और खारिज किये गये।उनकी पत्रिका तीन सालों से तैय्यार थी। विमल वर्मा का भी इसमें आधा सहयोग रहा। लेकिन पत्रिका निकल नहीं पायी। कई रचनाकारों ने नयी रचनायें भी दीं,जिनका समय रहते उपयोग न हो सका,इससे वे क्षेंप भी महसूस करते थे। निष्ठावान परंतु पराजित व्यक्ति का गुस्सा ,खीझ उनमें इन दिनों दिखती थी।
यह कैसा निष्ठुर समाज है,खासकर पढने-लिखने वाले विचारशीलों का ,जो अपने गैरतमंद साथी की सत-ईच्छा की कद्र न कर सके,इतना सहयोग समर्थन भी न दे सके कि 70 पार का एक ईमानदार विद्वान एक 64 पन्ने की पत्रिका न निकाल सके। ऐसी पार्टी,ऐसा शहर,ऐसा लेखक वर्ग –इसे क्या लानत दी जाये !
सर्वाधिक नाराज जिनसे थे ,वे सारे उनके ‘अपने’ लोग थे। उनकी राह में रोड़ा अटकाने वालों में कोई भी ‘दूसरा’ न था। कैसी विडम्बना है कि अपना शहर, अपनी भाषा बंधुहंता बन गई है। समकालीन मित्र-रचनाकार एक दूसरे के बारे में मुँह नहीं खोलते और खोलते हैं तो कच्चे चिट्ठे का काला रजिस्टर उड़ेल देते हैं। फिर कभी इसी क्रम में घायल और चोटिल होने का रास्ता भी बना जाते हैं।
जंगल की बीहड़ ट्रेकिंग जिन्होंने की है,वे पहला सबक यही सीखते हैं कि ग्रुप के साथी की जान तुम्हारी जान से ज्यादा जरुरी है। इसी आधार पर अपने साथी को सुरक्षित और सम्मानित करते आप भी सुरक्षित होते हैं। और सिर्फ खुद को बचाने के चक्कर में सभी अकेले पड़ते हैं,और सब का शिकार होता है।
अब जो बुजुर्ग हमारे साथ हैं,उन्हें बुलाईये,उन्हें सुनिये,उनसे बात करिये,60 पार या 70 पार के लोग्,वरना एक इतिहास स्मृति में संरक्षित न हो पायेगा। लेकिन यह कैसे सम्भव हो जबकि सारी विचारधाराएँ,राजनीति मित्र बनाने से दस गुणा ज्यादा फोकस शत्रु चिन्हित करने में लगाती हैं।
किसी ने बताया कि हमारे संताप का आधा हम यूँ हासिल करते हैं कि गलत लोगों से अपेक्षा रखते हैं,और आधा यूँ कि अच्छे लोगों में मीनमेख निकालने में लगा देते हैं।
अगर मालूम होता कि अनय जी ऐसे चले जायेंगे तो आखिरी मुलाकात में हम हड़बड़ी न दिखाते।
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