कलकत्ता का नक्शा,शहर की झांकी-- श्री-श्री108 सह्र्दय कुलचूड़ कालीप्रसन्न सिंह की फटी बिवाई में रचनाकुसुम का चढावा:
1811 सन ,कलकत्ता में चारो दिशाओं में ढोल-ढमाका हो रहा है। चड़की की पीठ सर्र-सर्र कर रही है,लोहार का बान,बिल्ली,कांटा ,हंसुआ हाजिर है-सर्वांग में गहना,पैरों में नुपूर,सर पर जरीदार टोपी,कमर मे बंधा चंदरहार, ढाका की फिनफिनी मलमल धोती पहने,छापा वाला तारकेश्वरी गमछा हाथ,विल्वपत्र बंधे सूत गले मे डाले जितने छूंतर,ग्वाले,गंधी बनिये और ठठेरे बिसातियों की आनंद की सीमा नही है-आज हमारे मलकार के घर ‘गाजन’ है।
कम्पनी के बंगाल दखल के कुछ पहले और नन्दकुमार की फाँसी के तनिक पूर्व हमारे बाबू के प्रपितामह नमक के दीवान थे। तब नमक की दीवानी में मासिक 10 रुपये पर दाग नहीं लगता था। अत: मरने तक हमारे बाबू के दादाजी लाख रुपय्या जोड़- छोड़ गये-इसी दरम्यान बाबू परिवार की गिनती खानदानी रईस में होने लगी। रईस खानदानी होने को कलकत्ता में जो-जो चाहिये ,इनके पास सभी का इंतजाम है। जैसे एक निजी टोली,कुछ बाभनों-पण्डितों के नालायक छोकड़े,कुलीन वंशज,छत्री,कायस्थ,वैद्य,तेली,गंधी बनिये,ठठेरे और ढाका के लोहारों की अनुगत सेना। घर में कोई तिथि-बार, क्रिया -कर्म नागा नहीं होता। फी बरसी विलक्षण बाभनों को कुछ मिलता है,वैसे ये साल भर भद्रासन पर विराजमान विग्रह ,शालिग्राम शिला और अकबरी मोहरों से लदी-फदी लछमी की नित्य अर्चना करते हैं। दूसरी तरफ चूहड़े,चमार - भंगी और सभी बज्जात पैरों में नुपूर,सूत गले में डाले अपने अपने महत्व और शौर्य को दर्शाते वाण और बिल्ली कांधे पर डाले नाचते फिरते हैं,हर घर ,वेश्यालय और दारु की दुकान के आगे।
1965,कलकत्ता अड्डेबाजों का शहर था,हर पाड़े में इसकी नियोजित व्यवस्था होती थी।छोटी-छोटी चाय दुकानों; जहाँ खस्ता-टोस्ट बिस्कुट मिलता था। इन दुकानों का कोई नाम या साईनबोर्ड नहीं होता था। मंटू की दुकान,गोबिंदो के दुकान। यहाँ लकड़ी की बेंच और इक्के-दुक्के टेबल होते जिनकी वय मुअनजोदड़ो से ज्यादा होती,सबेरे-सबेरे इन्हें गरम पानी से नहलाया जाता,साफ सफाई पोंछा भी लग जाता और छिपे हुये कीड़ों का जनाजा भी निकल जाता। इसके अलावा कोई दर्जी की दुकान होती, जिसका नाम राजनैतिक शब्दावली से मिलता -जुलता डेमॉस या मैग्ना कार्टा सरीखा होता। जो अनायास किसी पार्टी के मुखपत्र का नाम भी हो सकता था। मसलन रिपब्लिक,नैशनल या ईस्ट बंगाल। यह नाम कोई जाने न जाने, सर्किल के लोग जरुर जानते।इनके मालिक अक्सर मालिक न हो कर असफल राजनैतिक लोग होते,जो राजनीति कर चुके थे,पत्रिका निकाल चुके थे,जेल जा चुके थे,या फिर असंख्य देशी-विदेशी कविताओं का सस्वर पाठ कर सकते थे।इन्हें दुकानदारी की चिंता कम होती और ज्यादा फिक्र इसकी होती की मेरे अड्डे की इमेज इलाके में कैसी है?कहीं प्रबुद्ध,प्रश्नाकुल सीरीयस जवान होते,कहीं उग्र हिंसक लड़के,कहीं खेल-कूद ,नाटक में रमे स्टुडेंट। हर मकान के आगे एक पक्का चबूतरा होता जहाँ शाम होते ही अड्डेबाजियां परवान चढती। यहाँ बूढे, वयस्क और नौजवानों के अलग -अलग चबूतरे होते जिसे लोकल भाषा मे ‘रॉक’ कहा जाता।जो ग्रुप यू ही बेमतलब बैठा रहता ,जहाँ कोई महीन बातचीत और उग्र विवाद न हो, उसे तंज में ‘रॉकबाज’ का उलाहना सुनना पड़ता । इन अड्डो पर शाम ढले इक्का-दुक्का शख्स ऐसे आते जो कवि, साहित्यकार, प्रोफेसर, अध्यापक या राजनीति से जुड़े लोग होते। इनके हाथ मे कोई पत्रिका,किताब, कविता-अनुवाद जरुर होती जिसे ये उन लड़कों से साझा करते।इन अड्डों के ये गुरु, पितृपुरुष और गार्डियन होते। इनके घरों में,गृहस्थी में इन लड़कों का अबाध आना जाना होता। किसी भी दिन, किसी भी समय। हमलोग उसे अपना गुरु मानते। इलाके में ग्रुप की पहचान उस गुरु से लड़कों के रुप में होती। दोनों पक्षों का साझा गर्व,मान। ये साधारण जीवन जीते,घर में काली चाय पिलाते कभी एक बिस्कुट्। लेकिन इतने उदारमना,प्रभावशाली और सम्पर्क सम्पन्न होते कि सारे शहर में, हर महकमें,मोहल्ले में इनका कोई साथी संगी कद्रदान और शिष्य होता। टेलीफोन ठीक करवाने से लेकर,किसी को किसी अपरिचित इलाके में ढूंढना हो,किसी स्कूल, थाने, अस्पताल में कोई काम हो,तो इनके नाम से आपको वहाँ रेकोगनाईज किया जाता। इसी तरह के रिफरेंश से आये किसी आगंतुक के लिये हम भी उसके काम में जुट जाते और किये बगैर न लौटते। हालाँकि ये काम अति सामान्य किस्म के होते,किसी डाक्टर से मरीज को मिलवा देना,किसी स्कूल कॉलेज में दाखिले का फॉर्म जुगाड़ देना। किसी की साईकिल थाने में पकड़ी गयी तो उसे छुड़ा लाना,और किसी की जेब कट गयी या साईकिल चुरा ली गई तो उस इलाके में तफ्तीश -कारवाई कर उसे हासिल करवा देना। थाने में भी और स्थानीय लोगों द्वारा भी। इन्हीं लोगों की जान-पहचान बंधुत्व के विन्याश पर यह शहर खड़ा था।कोई पाड़ा अपरिचित नहीं,कोई आदमी पहुंच के बाहर नहीं,पूरा शहर अपना,हर ईलाके में यार-दोस्त।
ये हर बंगाली पाड़ा की बात थी,जहाँ सिगरेट पीने किसी रेलवे स्टेशन के पास जाना होता।पहला कश न जाने कितनों का ,किसी उजाड़ स्टेशन के पुल के अंधियारे में लगा होगा। उन सुनसान बैंगनी शामों में सीटी बजाती रेल और दिल धड़काती माल गाड़ी के शोर में कलेजे में फंसे पहले कश का धुंआ और खांसी अब भी नही भूलती- निंजा में फानी की तरह्। लंग फैग और माऊथ फैग का फर्क समझने के शुरुआती दिन।
एक बोहेमियन गुरु थे,जो बताते कि आदमी को एक जेब में बचपन और दूसरी में बोतल रखनी चाहिये। बारी बारी से जिससे घूंट लिया जा सके,अमृत छका जा सके। हमें बोतल तब नहीं मिली लेकिन मुड़ी-तुड़ी कुम्हलाई सी निढाल सिगरेट से काम चलाते।
उन दिंनों बिजली का जाना ‘लोडशेडिंग’ आम बात थी।गर्मी में तो तकलीफ हद पार कर जाती। लेकिन ताज्जुब कि बिजली गुल होते ही एक उल्लास चारो दिशाओं में गूंज जाता।ज्योंहि बिजली गयी और अंधेरा उतरा,सारी जगहों से एक हर्षध्वनि या हंसध्वनि फूट पड़ती,जैसे फुटबाल में गोल होने पर पूरा स्टेडियम एक सामूहिक अद्भुत (रिदम) आवाज करता है। ये बिजली वापस आने पर कभी नहीं होता। किसी ने बताया कि रात को खाना खाने के बाद टहलना अच्छा होता है,तो हमें शगल मिल गया। वैसे भी अंधेरे में घर बैठे क्या करते? फिर हमने जरनल नॉलेज आधारित टहलने को दौड़ने में तब्दील कर लिया। दो तगड़े और मूरख दोस्तों की दौड़ करायी जाने लगी। इसकी तैयारी शाम से कभी तो पहले दिन से शुरु हो जाती। होता यूँ कि जब ये दोनो तगड़े (ये खुद को यही समझते),या मूरख(हम इन्हें यही मानते) जान झोंक कर दौड़ कर 500 मीटर का चक्कर लगा कर पहुंचते तो वहाँ इन्हे देखने, सराहने, इनकी जीत और पराक्रम दर्ज करने वाला कोई नहीं होता। हम सब छिप जाते। फिर जब दूसरा भी पहुंच जाता तो हम धीरे धीरे एक एक कर निकलते-पर्दे से और इनका मजाक बनता। खीझ में ये प्रतिद्वंदी हमे गाली देते और कसम खाते कि अब कभी दोबारा ये सब नहीं करेंगे। लेकिन दूसरे दिन सबेरे से इन्हे झाड़ पे चढाया जाता और राजी कर लिया जाता-बेवकूफी के मैराथान के लिये।
60-70 के द्शक मे चीन, पाकिस्तान से युद्ध भी हुये। हवाई हमलों से बचाव के लिये भी शहर की बत्तियां बुझा दी जाती,इसे ब्लैक आउट कहते। फिर जब यह अप्रोप्रीएट न रहा तो लोडशेडिंग कहने लगे। ‘लोडशेडिंग’ शीर्षक से एक निबंध भी सर ने लिखवाया था जो निबंध भारती और प्रबंध विचिंता (बंगला,जिसमें मान्यता थी कि हर विषय पर रेडीमेड निबंध तैय्यार मिलता है) में भी उप्लब्ध नही था। आर टी शर्मा मुझसे विशेष स्नेह करते थे,ऐसा मेरे अलावे कई साथी मानते थे। करीब 20 साल बाद मंडल कमीशन आया तब पहचान हुई कि वे सजातीय नहीं थे,और बिहार, यू पी में कई लोग कास्ट न्युट्रल सरनेम लिखते हैं। वो अव्वल दर्जे के अध्यापक थे,अंग्रेजी और गणित उन्होने मुझे ऐसी पढाई के मेरा डर निकाल दिया,और मुझे मजा आने लगा। वरना उसके पहले हम यही मानते थे कि अंग्रेजी और गणित विषय जिसने ईजाद किये, वो मिले तो उसका मर्डर करना भी जायज है।
फिर जब हम कॉलेज पहुंचे तो नये बनते मकानों की बेलमुण्डी छतों पर 6 रुपये की बीयर पीना सीख रहे थे। बाँस ब्राउन पेपर में लिपटी ठंढी बीयर बोतल लुकती-छिपती कभी शर्ट के नीचे अभी पैंट में ठुंसी हुई ।कॉर्क खोलने की इंजिनयरिंग जिसमें किसी-किसी को महारत हासिल थी(उन्हें खर्च सांझा न करने पर भी शामिल किया जाता,कलाकारी की कद्र और जरुरत) और साथ में एगरोल या हैम-ब्रेड का नमकीन बाईट। उस जलबले,कड़वे, लगभग चिरायते से पानी का घूंट जीभ कैसे भूले भला,न तो वो सुस्वादु होता न ही नशा देनेवाला,केवल एक अजीब सा गुलाबी इम्पावरमेन्ट का अहसास। लेकिन फिर भी जैसे बोतल कागज से चिपकी होती वैसे ही गाढी हमारे मन से भी। वीकेंड सेलेब्रेशन सबेरे के अड्डे में तय होता कि शाम को इवनिंग शो फिल्म देखी जाय। ज्यादातर न्यू एम्पायर या ग्लोब में अंग्रेजी फिल्में होती। इन दोनो सिनेमाघरों में बीयर बिकती थी,और सिगरेट भी चलता था,टिकट केवल 75 पैसे का,वह भी सुपरबाल्कॉनी,यानि बाल्कनी के उपर एक और बाल्कनी होती जिसका टिकट 75 पैसा होता,केवल हुड़दंगी ,स्टूडेंट और नौजवानों के लिये रिजर्व। इसकी एडवांस बुकिंग नही होती,केवल शो के पंद्रह मिनट पहले खिड़की खुलती,जहाँ शौर्य,पराक्रम ,चीखना चिल्लाना से टिकट प्राप्ति होती। तब सिनेमा समीक्षा का कालम भी ‘फ्रंट स्टाल’नाम से निकलता था, यही भीड़ किसी फिल्म की हवा बनातती या निकालती। कई हॉल में लेडीज सीटों का अलग कोना होता। वेयर इगल्स डेयर,इंटर द ड्रैगन,पैरिस आइ लव यू जिसे ‘पीलू’ कहा जाता हमने दर्जनों बार देखी। तीसरी मंजिल,उपकार,दिलीप कुमार का सारा वांगमय-ओमनिबस यहीं देखा। ऐसे देखा कि हमे उसके सीन और डायलाग उसके डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राईटर से ज्यादा याद थे। अच्छी हिंदी और उर्दू का तलफ्फूज यही सीखा, 3 प्रकार के स,चार तरह के ज और 5 प्रकार के ग। मानने में कोई हिचक नहीं के हिंदी उर्दू शायरी,उच्चारण ,देशप्रेम,दोस्ती, हिम्मत न्याय सब कुछ यही सीखा जो हमारे जीवन का स्थायी रंग और अंग बना। दिलीप कुमार को आजाद भारत की सांझा संस्कृति का आइकन माना जाता था,हिंदू विजडम,मुसलमानी ईमान और क्रिस्तानी एलेगेंश का प्रतीक। साहित्य और कविता,आंदोलन और वामपंथ तो बहुत बाद में एक्सीडेंट की तरह आया,जिसने सुलझाया कम ,उलझाया अधिक। धरमतल्ल में सिनेमा देख कर निकलना और चौड़ी फुटपाथ पर चलना ऐसा अहसास देता के थ्री मस्केटीयर्स ,या गुड बैड अगली ,मैगनिफीसेंट सेवेन के हीरो चल रहे हों। 77 दरवाजों वाला निजाम रेस्त्राँ ,40-50 पैसा का रोल शहर में यहीं मिलता था। न्यू मार्केट में पारसीयों और यहूदियों की बेकरी पर चीज स्ट्रा और पफ ,जिन्हें किसी लंदन के अखबार में लपेटा जाता, खाते-खाते विश्वभ्रमण हो जाता। मेट्रोपॉलिटन कलकत्ता कॉसमोपोलिटन कलकत्ता,इम्पीरियल ,सेकंड कैपिटल आफ इम्पायर इत्यादि-इत्यादि। शहर से स्टेटस्मैन अखबार निकलता,उसके साथ एक ‘जे एस’ यानि जूनियर स्टेट्स्मैन । हमे गर्व होता कलकत्ता पर,इसका आभिजात्य,खूबसूरती नफासत और साहसिकता किसी को भी संभ्रम में डालती। बाद में चल कर जो साहस एक्सप्रेस अखबारों या निखिल चक्रवर्ती, प्रभाष जोशी में दिखा था उसकी नींव शायद स्टेटस्मैन से पड़ी हो। सेंट्रल एवेन्यू काफी हाउस के दो हिस्से होते ,हाउस ऑफ कामंस और हाउस ऑफ लार्ड्स।एक में एरुडाईट सीनियर लोग बैठते एक में जोशीले नौजवान । टी पॉट ,ब्लैक कॉफी,इंफ्युसन ,टिकोजी,टोस्ट ,इंग्लीस ऑम्लेट यहीं मिलती । उस वक्त हमे लगता के हम महान हैं,क्योंकि तब सारा हिंदोस्तान दही-पराठे,अचार का नाश्ता करता था,हिंदी इलाके तो पूड़ी-सब्जी में ही अटके फंसे पड़े थे।फ्रेंच कट दाढी वाले रुसी बुलगानिन की सभा,कद में सबसे उँचे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का भाषण,मुजीबुर्र्हमान और इंदिरागांधी का साझा मंच,इसे याद करना सपने में जाना जैसा है,टाईम मशीन में बैठ कार इतिहास भ्रमण। ऐसा रौनकदार शहर,ऐसा यारबाश,प्रेम-दोस्ती से पटा.अड्डेबाजियों को ललचाता। कोई ऐसा लड़का नहीं जिसकी दो लड़किया मित्र न हों,कोई ऐसी लड़की नहीं जिसका नाम किसी के प्रेम रजिस्टर में दर्ज न हो। हम उम्र लड़कियाँ तू-तड़ाकसे बात करती बांग्ला में ‘तूई’,लेकिन ज्योंहि मामला सीरियस होता वे‘तूमि’ कहने लगती और आसमान में फूल-तितलियाँ के रंग और छापे कढे गुब्बारे छा हाते। हमें लगता हम एक कल्चर कैपिटल में हैं,जिसका दिल्ली ,बम्बई ,मद्रास से कोई जोड़ ही नही। ऑस्टीयर,इलेगैंट,जेंटल, ग्रेसफुल सब ईकठ्ठा ,एकसाथ।
फिर आया बांगलादेश का मुक्तिसंग्राम,जिसे वो लिबरेशन कहते, पाकिस्तानी ‘हानादार’ अग्रेसर का वापस लौटना,मुजीबुर्रहमान का राजतिलक,खाद्य आंदोलन के बाद धीमी पड़ी वाम राजनीति का चमका सितारा। स्विंगिंग सिक्स्टीस की जगह अनार्कियल सेवेंटीस,इमरजेंसी,जनता पार्टी का उदय,जयप्रकाश नारायण की शानदार दूसरी इनिंग्स।गैर कांग्रेसी सरकारें सारे देश में कायम। इसी उथल-पुथल में लोकसभा चुनाव के बाद जो विधानसभा चुनाव हुये उसमें किसी मामूली से गणित पर माकपा और जनता पार्टी का समझौता न हो सका। और दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़े।तब तक किसी को उम्मीद क्या अंदेशा भी नहीं था के माकपा जीत जायेगी।शायद हुआ ये हो कि गैर माकपा वोट कांग्रेस और जनता पार्टी में बंट गये हो और माकपा को इसका फायदा मिल गया हो।ज्योति बसु मुख्यमंत्री बन गये। यह कवियों लेखकों,बुद्धिजीवियों की सरकार थी जो मेहनतकश अवाम ,मजदूर, किसान के हक-हकूक को दिलवाना अपना फर्ज समझती थी।युवकों अध्यापकों,सरकारी कर्मचारियों ट्रेड युनियन करने वाले सैलेरेतारियत का स्वर्ग बन गया कलकत्ता अचानक। सेक्योर्ड नौकरी का बाबूस्तान।छात्र राजनीति से आये ट्रेड युनियन से निकले लोगों के हाथों मे कमान आ गई।अचानक गरीब का ,मध्यमवर्ग का, सरकारी कर्मचारियों का रुतबा बढ गया,अमीर एक अपराध बोध ढोये घूमता था। साथी सरकार की अगुवाई में माहौल खूब उत्साहवर्धक था,एक मॉडल स्टेट बनाने की बातें फिंजा में थी।
लेकिन 5-10 साल जाते ही स्पष्ट हो गया यह सरकार कोई करिश्मा नहीं कर सकती।दरसल इन्हें प्रबंधन का ,उद्योग धंधों का,रोजगार निर्माण का,गरीबी दूरीकरण ,शिक्षा ,स्वास्थ्य, आवास समस्या का कोई प्रशिक्षण नही था। टैक्सेशन और वैल्यू एडीसन,सरकारी कमाई का कोई जरिया ये नहीं जानते थे। संशाधनों की किल्लत थी,केवल कविता के आदर्शों ,उग्र प्रादेशिकता-बंगाली जातीयता,केंद्र सरकार का सौतेला व्यवहार की राजनीति जोर पकड़ती गयी। केंद्र से सम्पर्क अम्लमधुर रहे, भाजपा के उठान के बाद कांग्रेस से हाथ मिलाने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।परफारमेंश लेवल बहुत दरिद्र था। गरीबों का भला करने का दावा करने वाली सराकारें जब सारी दुनिया में लाल झंडा उखड़ रहा था,बेआबरु,शर्मशार और पराजित होकर,षडयंत्री ,बंधु विद्वेशी,मित्रहंता,अमानवीय ,क्रूर और नृशंस होकर आटोक्रेटिक करार होकर,यहाँ लगता था उसकी नींव मजबूत हो रही है।सोशल सायंस ,राजनीति विज्ञान और अर्थनीति की समझ रखने वालों के लिये यह एक विस्मय था। कि कैसे कोई सरकार बगैर परफार्म किये इतनी सफल और लोकप्रिय हो सकती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की मांगे जोर पकड़ती जा रही थी चारों ओर,और यहाँ इससे दूर लोग इतने भर पर संतुष्ट थे कि वामपंथी राज है जो केंद्र के विरोध में है। क्षेत्रीय अस्मिता कभी-कभी कैसे प्रवंचक खेल खेलती है ,कोई यहाँ देखे।
पार्टी में कोआर्डिनेसन कमेटी,सरकारी बाबूओं की युनियन, अध्यापकों के संगठन ,विषेषकर गाँव में पढाने वाले पार्टी पोषित मास्टर –कामरेडों का राज कायम हो गया,जब इन्हें लगा कि ये अनचैलेंज्ड और इंविंसिबल हैं,तो फिर यहाँ केंद्र की, कांग्रेस की, अन्य पार्टियों की खिल्ली उड़ने लगी। कांग्रेस की कम और भाजपा की खिल्ली आज भी उड़ती है,उसे कोई पार्टी ही नहीं मानता है।उत्तर भारतियों को कुढ मगज निर्बुद्धि,जातिवादी,फाउल माउथ्ड,पोंगापंथी समझा जाता है,यह ईमेज अटलबिहारी वाजपेयी,मुरली मनोहर जोशी,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली से भी नहीं टूटी। फिर जब उत्तर भारत में पिछड़ा राज कायम हो गया तो नार्थ इंडियन की ईमेज को एक धक्का ओर लगा और उसे परमानेंटली जातिवादी, दलिद्दर,शठ माना जाने लगा। उनकी शठता की कहानियाँ यहाँ के बुद्धिजीवि भी दोहराते हैं। लेकिन सेक्युलर पोलिटिक्स के कम्पल्शन के तले ये लोग लालू, मुलायम, मायावती, रामविलास पासवान को कभी-कभार साथ बिठा लेते हैं,मन में उनकी कोई साख ईज्जत नही है,कैसे हो?बदले में ये उत्तरभारतीय जातिवादी पार्टी कम्युनिष्टों के एक-सवा डेढ विधायक को जितवा लाती है,ग्रैंड अलायंस ओफ सेक्युलर फोर्सेज्। राजधानी में विधायक निवास मिल जाता है,रहने ठहरने खाने का फ्री मेस्। इतने पर ये भी प्रसन्न्।बड़े शत्रु से निबटने के लिये छोटे शत्रु से हाथ मिलाने वाली टैक्टिकल लाईन।यह अजीब रैशनल यहाँ चलता है,जिसका इसरार कभी चाण्क्य, विदुर, मैकियावेली और मार्क्स करते दिखाये जाते हैं।लॉजिक और रेड हेरिंग एक हो गये। कार्यविमुखता,आभिजात्य विरोध,धर्म विरोध,सलीका-करीना विरोध,परश्रीकातरता जो शुरु हुई, कोलकाता लगातार नीचे गिरता चला गया। द्वेष और ईर्ष्या एक मूल्य मान लिया गया और इसके पक्ष में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, विचारधारा को कोट किया जाने लगा।एक इनरसिआ की स्थिति, जहाँ कुछ किये बगैर,किसी चिंतन और पराक्रम के बगैर एक ‘स्टैटस को’ चलता रहा। विखण्डित विपक्ष उजड़ी कांग्रेस के प्रति नफरत की वजह से यहाँ लाल झंडा फहराता रहा।क्षेत्रीय पार्टियों के गठजोड़ के काल में माकपा क्षेत्रीय पार्टी की तरह इन गठजोड़ों मे शामिल होने लगी। चूंकि अन्य कई प्रांतों-पार्टी से यह ज्यादा स्थायी सरकार थी इस लिये सभी जातिवादी,प्रादेशिकतवादी,समतावादी पार्टी-दल इन्हें तरजीह देते थे।इनके रास्ते कहीं कटते भी नहीं थे।न तो माकपा कभी तामिलनाडु में द्रमुक की प्रतिद्वंदी बनी,न कभी उत्तर प्रदेश में मायावती-लालू की। सो एक‘गोल्डन अलायंस’ चल निकला,क्षत्रपों का आपसी भाईचारा,बिना टिकट यात्रियों का बहनापा,रक्षा बंधन के नेह धागे की सम पवित्रता। वैसे तो 34 साल बताते है,लेकिन क्वालिटेटिवली ये साल शताब्दियों की तरह गुजरे,जैसे इस्लामी शताब्दियाँ या फिरंगी शतक। 300 साल पहले शताब्दी 100 साल की होती थी ,क्या आज भी वही पैमाना लागु होना चाहिये।गति- विज्ञान,टेक्नॉलॉजी, संचार के युग में क्या नई शताब्दियाँ क्या दशक और 25 साल की जुबली की तरह के मानकीकरण नहीं माँग सकती ।यहाँ शिक्षा,स्वास्थ्य,कर्मसंस्कृति (वर्ककल्चर), इंटरप्रेन्योरशिप,इंफ्रास्टक्चर सब गये जमाने से दिखते है। पूणे, गुड़गाँव,बम्बई,हैदराबाद, बंगलोर,अहमदाबाद के आगे यह मुफलिस मफस्सिल टाऊन सा दिखता है।ऐसी गंदगी,परिश्रमविमुखता,दलिद्दरपना,ऐसा घटिया ह्युमन रिसोर्स आपको अन्यत्र किसी महानगर में न दिखे। सिलायदह स्टेशन से किसी भी तरफ की रेलवे लाईन पर आपको अति प्राचीन झुग्गियाँ मीलों मिलेगीं,जहाँ बूढे शौच करते,जवान महिलायें सस्ते गमछों में लिपटी खुले में दाँत माँजते,नहाते,ईंट के चूल्हे पर खाना पकाते,रेलवे लाईन पर कपड़े (गूदड़) सुखाते,नंग धड़ंग बच्चे दौड़ते भागते मिलेंगे।यह इतना मॉरबिड सीन होता है के मनुष्य की गरिमा पर ही आपको शक हो जायेगा और लानत देनी होगी। कैसी विचारधारा,कैसी संस्कृति,कौन सी गरबीली गरीबी, कौन सी हक-हकूक की लड़ाई इसे जायज ठहरा सकती है?
कॉलेज जहाँ सरकारी अस्पतालों से बास मारते हैं,वहाँ के बाथ रुम में पेशाब और गैमेक्सीन पाउडर की गंध आपके नथुनों को भेद कर आपको बेहोश कर सकती है,अस्पताल शवगृह से दिखते है,मॉर्ग।और् शवगृह बूचड़खाने से रक्त सने, गंधाते। ताज्जुब कि इससे यहाँ किसी को कोई परेशानी नहीं इन्हें यह सब सामान्य और नार्मल दिखता है,जिस पीढी को प्रतिवाद करना चाहिये उसने इससे अच्छी दुनिया देखी ही नहीं है,इन सबके लिये लिबरलिस्म,मार्केट,पूंजीवाद, अमरीका,साम्राज्यवाद आदि को सीधे दोषी करार दिया जाता है।यही बंगाली जब पूणे,बंगलोर हैदराबाद, गुड़गाँव मे होता है तो साफ-सुथरा, विवेकवान और इफीसियेंट हो जाता है, फिर न जाने क्यों यहाँ यह सब स्वाभाविक हो गया।खुली मोहरियाँ,ट्राफिक जाम, मच्छरों का उत्पात यहाँ इतना स्वाभाविक है किसी फर्स्ट क्लास भौतिकी के विद्यार्थी स्नातक का मानना है कि यह तो सभी जगह ऐसा ही होता है। कभी-कभार पड़ोसी बिहार ,पूर्वी उत्तरप्रदेश के लुटे कस्बों से तुलना कर छाती ठंढी करते है। इनका वर्ल्ड व्यु इसके पार नहीं जा पाता।
जो इसे महसूस करता है वो डर और संकोच के मारे पॉलिटिकल करेक्टनेस के दिखावे में मुँह नहीं खोलता और शीघ्रातिशीघ्र यहां से निकल जाने को सचेष्ट होता है,बंगाल में ब्रेन ड्रेन पीएच डी, एम बी ए और बड़ी पूंजी का केवल नहीं होता यहाँ 10वीं के बाद असंख्य छात्र दूर चले जाते हैं,केवल बांग्ला माध्यम के औसत छात्र, आर्ट्स के स्टूडेंट, गरीब ,कुछ बिहार के हिंदी भाषी कोलकाता युनिवर्सिटी यादवपुर और प्रेसिडेंसी को आबाद करते हैं। बंगाल की स्कूल शिक्षा बेहद निराशाजनक है ,बेचारा और पड़ोसी गरीब गुरबे, नवसाक्षर के अलावा यहाँ कोई नहीं है। यह बात कह देने पर आपको बिरादरी बाहर माना जायेगा-गद्दार। जिसकी सजा कैपिटल पनिसमेंट भी हो सकती है। पक्की पगार और उँचे ओहदे वाले कर्मचारी, जज ,शिक्षक ,सरकार पोषित कारोबारी के अलावा यहाँ कोई खुश नहीं है,कुछ लोग उम्मीद पर भी जी लेते हैं। हिंदीभाषी छात्र का आलम यह कि एक अध्यापक मित्र अशोक ने क्लास में पूछा कि कितने बच्चों के अभिभावक ग्रेजुएट हैं,तो एक भी हाथ नहीं उठा,अनामिका जी लिख चुकी हैं हिंदी पढने गरीब,पिछड़े ईलाकों ,किसी अन्य विषय में न जा पाने की मजबूरी वाले छात्र ही आते है। फिर जैसे नवधनाढ्य के इनरिचमेंट से उसमे एक प्रकार की फूहड़ किस्म की शोशेबाजी,दिखावा और अहंकार टपकता है, वैसे ही इन नव साक्षरों में एक कर्कश किस्म की सामाजिकता,द्वेश-डाह पनपती है,जिसे वे ‘मूल्य’ समझते है,और विसियस सर्किल अटोमेटेड हो जाता है।
“कहाँ तो तय था चराग़ाँ हरेक घर के लिये.मयस्सर नहीं एक दीया सारे शहर के लिये..”
कॉलेज- विश्वविद्यालायों को ऐसे बच्चों की ग्रंथियाँ तोड़ने का कारखाना बनना था,संकीर्णता मिटाने का औजार होना था,रुढि और विचारों को पूरा आकाश दिखाना था,और यह इन ग्रंथियों के पक्काकरण,संकीर्णता को अमरत्व और रूढि को धार देते चले गये। एक बच्चा जिन जिदों पूर्वाग्रहों और अवचेतन की दुर्घटनाओं पीड़ाओं, वंचनाओं को लेकर आता है.विश्वविद्यालय उसपर मरहम लगाना,चोट के नीले निशानों को हल्का करना, दूर ,उन्हे जीवन के अक्षय मूल्यों में तब्दील कर देते हैं।
कलकत्ता के 4 प्रधान बातें है,जिससे इसे अलग से पहचाना जा सकता है।कलकत्ता लाऊड है,जोर से बात करना, हॉर्न बजाना यहाँ फितरत है,पहले इसे कुछ लोग रिफ्यूजी कल्चर से जोड़ते थे,फिर यह बहुसंख्यक होकर सर्वग्रासी और मेनस्ट्रीम कल्चर हो गया।लेकिन रिफ्यूजी आये तो 65 साल हो गये,1971 को कट ऑफ माने तो भी 40 साल.क्या यह समय खुरदरे किनारों को साफ करने को पर्याप्त नही है, कलकत्ता को हांकिंग कैपिटल के खिताब से कभी भी नवाजा जा सकता है,विश्व स्तर पर।यहाँ मोटर दुर्घटना के बाद गाड़ी को जला देने का और ड्राईवर पैसेंजर को पीट –पीट कर मार डालने का रिवाज है,तत्क्षण न्याय का अनोखा उदाहरण। जो विदेशी यहाँ घूमने-पढने आते है, उन्हें हिदायत होती है के गाड़ी न चलायें वरना दुर्घटना के बाद जीवित रहने की सम्भावना कम है-इसे लींचींग कहते हैं-जनवादी भाषा में गणधुलाई,जनधुलाई।
यह इतना सामान्य स्वाभाविक है कि कोई पार्टी, संगठन, न्यायालय इस पर कोई कारवाई नहीं कर सकता इसे जनता का न्याय और स्वाभाविक आक्रोश माना जाता है,सोलह आना वैधानिक और जमीनी। सामान्य अपराध पर आपको जनता पीट –पीट कर खत्म कर सकती है- इन ब्राड डे लाईट, इन पब्लिक व्यू, थाने के सामने पुलिस की मौजूदगी में। यहा किसी असफल प्रेम, पारिवारिक विवाद, किसी के गुम हो जाने पर इस संदेह पर कि यह आपकी कारस्तानी है,आपको अपने मोहल्ले में जिंदा जलाया जा सकता है,यहाँ पाड़ा में क्लबों और पाड़ा के लड़कों का राज चलता है,इनसे मिलना-जुलना सरोकार रखना अनिवार्य है, हिला-मिला कर रखना जरुरी है,वरना आप मतलबी, स्वार्थी, उच्चभ्रू माने जायेगें और किसी भी दिन आप तोप के निशाने पर होंगे।प्राईवेट स्पेस निजी जिंदगी का यहाँ कोई खरीदार नहीं। एक दमघोंटु मेनस्ट्रीम कल्चर है,उसका पार्ट आपको होना ही होगा।दरसल पूरा मामला ही लाऊड है,बातचीत की लाऊडनेस, हॉर्नबजाना शायद यहाँ के जीवन की अशांति,उद्रेक,आंतरिक बेचैनी , हड़बड़ी को दर्शाते हों,जिसका मेनेफेस्टैसन कभी खतरनाक रुपों में सामने आता है,इसमे शिरकत करने वाले ज्यादातर लोग आपराधिक पृष्ठभूमि के नही होते,वे सामान्य नागरिक होते है,लेकिन उग्र स्वभाव,हड़बड़ी, हिंसा और अतिवाद को एक नागरिक स्वीकृति मिली हुई है,ये इसे जागृत,सचेतन,संवेदनशील समाज की शर्त समझते हैं।कलकत्ता की अर्थनीति की समझ पर एक उदाहरण देख लें। स्टेट ट्रांस्पोर्ट की 3000 बसे है, 25 हजार कर्मचारी। बमुश्किल 1000 बसें सड़क पर चलती हैं,बाकी के कभी ड्राईवर नही होते कभी टायर दुरुस्त नहीं। यानि एक बस पर 25 कर्मचारी। इन्हें सालाना 500 करोड़ की इमदाद सरकार देती है। माकपा की सरकार त्रस्त थी इनसे ,कई बार समझाने-बुझाने ,गरम-नरम वार्निंग से कुछ नहीं हुआ। कट्टर ट्रेड युनियन जो सरकार की समर्थक भी हैं, ने कभी इस पर गौर न किया। सरकार भी कभी ठोस कदम उठाने का साहस जोखिम नहीं कर सकी। वाम शासन को किसी और ने कम खाया हो ,इनकी आंतरिक लूट ,इमदाद और सहयोग से अर्थनीति गफलत में गयी,यहाँ सोवियतसंघ दोहराया गया,रशिया दूसरे देशों के समाजवादी पार्टियों को हथियार, साहित्य और अन्य मदद के चक्कर में डूबा ,ऐसा आरोप भी है। अब एक नयी सरकार आयी है,उम्मीद करें कि हालात बदलेंगें,जल्द नहीं तो देर सही। इस उम्मीदपर आस टिकाये,शक भी कम नहीं
मुझे शहर अजनबी लगता है,शरीफ आदमी,भीरु इंसान यहाँ बच कर चलता है,और भी भीरु,और भी कमजोर किसी गिरोह में शामिल हो जाता है,जिन गिरोहों से हमारी आत्मा आतंकित होती है,वैसा ही एक गिरोह हमें निरापद बनाता है,यह है विशियस सर्किल। जिन शहरों- समाजो से सीखना चाहिये उंससे नफरत करना सिखाया जाता है,लोकतांत्रिक व्यव्स्था में आप गलत हों,अक्लीयत हों तो भी क्षेत्र विशेष में आप जम्हूरियत बन सकते हैं। नियंता बन सकते है,जैसे तालीबान ने बामियान की मूर्ति को तोड़ते वक्त सारी दुनिया की इल्तिजा नहीं सुनी,उसे अंतरराष्ट्रीय इमेज से कोई सरोकार ही नहीं। खुदमुख्तारी का अजब-गजब वाकया। इस विचित्र विधान में ‘लोकल’ फँसा’ है। कराह रहा है,सारी दुनिया और उन्नत, सलीकेदार समाजों से उसे क्या मतलब?अपनी कंस्टीचुएंसी में वह हीरो है,मेजारिटी है,टंच है,फन्ने खाँ है।
**विजय शर्मा