शैवाल मित्र की याद में:तारुण्य का प्रतीक * विजय शर्मा
कोई शहर अपनी भौगोलिक स्थिति से जाना जाता है। फिर उसकी राजनीति ,इतिहास,रोजगार,कारोबार-व्यापार और दूसरे सामाजिक सूचकांक भी उसे जाहिर करते हैं।इतिहास के करवट लेने के वक्त उसका अचानक चमक उठना भी उसे शोहरत दिलाता है। कुल मिला कर जो योगफल बनता है शहर दरअसल उससे ज्यादा कुछ होता है।नया विज्ञान बता रहा है कि किसी वस्तु के तमाम अणु-परमाणु को जोड़ने पर भी कुछ कम रह जाता है,यह दरसल वह स्पेस होता है,जिसमें ‘शायद कुछ’ होता हो। पर वह नंगी आँखों से ‘खाली’ सा दिखता है। यानि शून्य स्थान वैसा खाली नहीं होता जैसा कि हम समझते हैं। वहाँ भी ‘कुछ’ होता है और जिसके बगैर वस्तुएँ –ब्रह्मांड वैसे नहीं होते जैसे कि हैं। संस्कृति भी शायद ऐसी ही कोई चीज है। कोलकाता के सांस्कृतिक स्पेस की कहानियाँ सारे देश की फिंजा में है,खासकर बौद्धिक,विचारवान,प्रश्नाकुल,प्रतिवादी नागरिक समाज में।
हमलोग तब कॉलेज में पढते थे। किसी दिन छात्र यूनियन के समर्थक क्लास बॉयकाट कर रहे थे।भीड़-भड़क्के और शोरोगुल के बीच एक जवान प्रोफेसर उनसे बहस कर रहे थे,उन्हें वापस क्लास में जाने को कह रहे थे।बाकी सारे प्रोफेसर पहले ही कन्नी काट चुके थे-स्टूडेंट्स से कौन उलझे! नयी-नयी यूनियन थी,वामपंथी,इनकी सरकार तब आयी ही थी। लेकिन ये प्रोफेसर डटे हुये थे। छात्र आखिरकार उग्र हो रहे थे,’हमलोग यूनियन करते हैं,वाम छात्र संघ....’ तभी किसी ने कहा कि ये प्रोफेसर कुछ साल पहले अखिल भारतीय छात्र यूनियन के अध्यक्ष रह चुके हैं,बल्कि उसके संस्थापकों में एक प्रमुख नाम।
.......छात्रों के जोश पर ठंढा पानी पड़ गया।
ये शैवाल मित्र से हमारी पहली मुलाकात थी। अगली बार वो दिखे, एमरजेंसी के बाद बंदीमुक्ति आंदोलन की अगुवाई करते एतिहासिक जुलूस में सबसे आगे। सारे अखाबारों में उनकी तस्वीर। यह कैसा प्रोफेसर है! छात्रों से ज्यादा उर्जावान,छात्र राजनीति की समझ भी छात्रों से ज्यादा!
कॉलेज में माकपा में सक्रिय अहंकारी अध्यापक भी शैवाल दा को हैरत और संभ्रम से देखते थे। उनके तमाम शीर्ष नेता इनके सहपाठी और दोस्त थे। खुद वे ये कभी नहीं बताते,लेकिन सबको पता होता।
इस शहर को जिन बातों का गुमान-गर्व है,उस मेधा,संस्कृति,राजनीति बोध,बंधुवत्सलता,उदारमन को जिन्होंने जिया है,शैवाल दा उनमें अन्यतम थे। 50 बरसों का सक्रिय जीवन, उर्जावान विद्वतापूर्ण और तेजस्वी। सारी जिंदगी बांग्ला पढाते हुये वे रिटायर हुये। 27 नवम्बर को उनकी देह आर जी कर अस्पताल के छात्रों के हवाले कर दी गई,उनकी ईच्छानुसार।
पुराने कोलकाता की तर्ज पर उनके घर पर रविवार को बड़ा अड्डा लगा करता था। जहाँ सारे शहर के सरोकार रखनेवाले कवि,लेखक,छात्र राजनीतिज्ञ और समाजसेवी ईकट्ठा होते। उनकी शोक सभा सॉल्टलेक के रवींद्र -ओकाकुरा भवन में आयोजित हुई।
उनके कॉलेज के अध्यापक श्री अलक राय ने कहा कि ऑनर्स के वे अकेले विद्यार्थी थे-स्कॉटिस कालेज में। मैं उसे कुछ बताता तो वो पलट कर प्रश्न करते,मैं एक व्याख्या करता तो वह कोई नया मसला खड़ा करता। थोड़े दिनों में यह तय करना मुश्किल हो गया कि मेरे और शैवाल के बीच अध्यापक कौन है,छात्र कौन? उनके चिकित्सक मित्र साधन राय ने कहा कि मैं आज जो कुछ हूँ -उनकी बदौलत। मेरा कल्याणी में एक सफल नर्सिंग होम है,कभी किसी अड़चन के आते ही वो बायें हाथ से सुलझा देते थे। लेकिन हमारी राजनीति पर कभी बात नहीं होती थी। विमान बोस से लेकर श्यामल चक्रवर्ती ने जिस मैत्रीभाव से उन्हें याद किया,वह अचम्भित करने वाला है। विमान बोस अस्पताल गये तो हाथ पकड़ कर कहा सबसे गम्भीर और टेढी जगह हम आपको प्रतिनिधि बनाते थे, आपही हमारे वक्ता होते थे,हमें आपकी जरुरत है,आप ठीक हो जाओ। साहित्यकार समरेश मजुमदार की मुलाकात कालेज के प्रथम दिन उनसे हुई,और शैवाल दा उसे अपने घर लिवा गये,माँ से कहा कि यह मेरा दोस्त हमारे साथ रहेगा,बाहर से आया है,जब तक इसका कोई इंतजाम न हो जाये। श्रमिक नेता प्रफुल्ल चक्रवर्ती ने बताया कि सबसे कड़ी घड़ी में वे साथ देते थे,कई बार रात का खाना उनसे ही नसीब होता था। रमोला चक्रवर्ती ,पत्नि सुभाष चक्रवर्ती ने कहा कि उन्होने मुझे पहले-पहल भाषण का मौका दिया,वो मेरे सीनियर थे,हमारे नेता थे,कालेज में। एक बार काफी हाऊस इतने घाटे में आ गया था कि इसे बंद करने और किसी प्रमोटर को देने का निर्णय लिया जाना था,शैवाल दा कि अगुवाई में यह रुक पाया,तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य्या ने उनके कहने पर सम्मानजनक हल निकाल दिया वरना कोलकाता से काफी हाऊस रुखसत हो चला था। यह विरल मौका होगा जब माकपा ने पार्टी के बाहर किसी को इतने सम्मान और रुंधे गले से स्मरण किया हो। आला अफसर आलापन बंद्योपाध्याय से लेकर बचपन के साथी रमेन दा तक उनके फैन रहे,हाँलाकि हमउम्र थे। श्रममंत्री पूर्णेंदु बसु ने राज खोला कि हालिया ‘परिवर्तन’ का नारा शैवाल दा का दिया हुआ है। असीम चटर्जी से सुधांशु दे तक से ऐसे मैत्रीभाव, बगैर किसी तिक्तता के आजीवन रहना एक मिसाल है। अजीजुल हक फफक कर रो पड़े ,अपने यार को याद करते।राजनीति और वह भी वाम की, उसमें भी उग्र किस्म की राजनीति करने वालों में उनके जैसा रसूख वाला,यारबाश,कड़वाहटहीन व्यक्तित्व हमारे समय में कम दिखता है।राजनीति और पेशेवर प्रतियोगिता के इस अंधे दौर में वो हमारे आदर्श पुरुष थे,गार्डियन। ऐसा मानने वालों की संख्या कोलकता-बंगाल में हजारों में होगी। कोलकाता उन्हें मिस करेगा। कभी कोलकाता की दीवारों पर एक स्लोगन लिखा होता था-‘तारुण्य का प्रतीक’। यकीन करें इसे पढ कर शैवाल दा की तस्वीर ही आँखों आगे खिंचती थी। उत्तर बंगाल की नक्सलबाड़ी से लेकर दल्ली-राजहरा के शंकर गुहा नियोगी तक के लिये जो दिल धड़कता था,जयप्रकाश नारायण से चारु मजुमदार जिसके मुरीद रहे,ऐसे थे हमारे शैवाल मित्र। अध्यापक,छात्र,सहपाठी,मित्र-परिचित जिसे उन्होंने छुआ,उसे गहरे प्रभावित किया।
सम्पादक अशोक दास्गुप्ता ने कहा है कि पहली बार युनवर्सिटी में एक हल्के हरे रंग के कुर्ते में उन्हें टूल पर खड़ा भाषण देते देखा था। यह हरा कोमल भाव सर्वदा उनके साथ रहा।
कई साल पहले ब्रिटेन की कम्युनिष्ट पार्टी की सक्रिय सदस्य मेरी टेलर ने जिक्र किया था कि किसी युवा कामरेड को देखकर उनकी भारत में रुचि पैदा हुई थी,और उनके आकर्षण में वो उनकी लड़ाई में शरीक हुई। ये वही मेरी टेलर हैं जिन्हें जादूगोड़ा में सश्स्त्र दस्ते के साथ गिरफ्तार किया गया था।
कोई हिचक नहीं कहने में कि बंगला भाषी के प्रति जो सम्मान -सम्भ्रम हमारे मन में है,और जिसे हजारों बार चुनौती मिल चुकी है,,लेकिन फिर भी जो कायम है,उसे अक्ष्क्षुण रखने में शैवाल मित्र का नाम अव्वल दर्जे पर है।
बीते दिनों के महापुरुष हमने देखे नहीं पर शरीफ आदमी का रोल माडल कैसा हो , इसकी मिसाल शैवाल दा छोड़ गये हैं। उन्हें उसी कच्चे रंग वाला कोमल सलाम
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