Tuesday 17 January 2012

श्यामानंद जालान के जन्मदिन पर प्रभात वार्ता में प्रकाशित,13 जनवरी2012


                          मोहे श्याम रंग दे दे    *विजय शर्मा
24 मई 2010 की  शाम  श्यामानंद जालान के  देहमंच का पर्दा  गिर गया। 1934 में लोहड़ी के दिन जन्मे यानी 13 जनवरी  से  हिसाब लगायें तो वय ठहरती  है 76 साल। पीछे भरा-पूरा  परिवार  है‌‌--समृद्ध,सम्पन्न,संस्कारित । कहा  जा  सकता  है  उन्होंने शानदार  और  परिपूर्ण  जीवन जिया -- बेशक ।
पिता ईश्वर दास जालान कोलकाता के मशहूर नॉन बंगाली – मारवाड़ी  परिवारों में से  एक के मुखिया  थे। आम विश्वास और जनरल नॉलेज के  विपरीत कोई  उद्योगपति  नहीं  बल्कि विधि-वेत्ता थे। सीताराम सेकसरिया,प्रभुदयाल हिम्मतसिंहका, भागीरथ कानोड़िया,घनश्यामदास बिड़ला की  तरह का  एक  भव्य परिवार। ईश्वर दास जी  बंगाल की  पहली विधानसभा 1947 से 1967 तक की सभी  सरकारों में सम्माननीय और एरूडाइट पदों पर रहे । कभी  कानून मंत्री कभी स्पीकर । ताज्जुब करें कि साधारणतया  मारवाड़ी को उद्योग मंत्रालय ,कोषाध्यक्ष,खजांची, या  वित्त जैसे विभागों से हम जोड़ते हैं,लेकिन शिक्षा,कानून या  संस्कृति विभाग से नहीं  जोड़ पाते। घर में गांधी,नेहरू,सुभाष,मौलाना  आजाद,विधान चंद्र  राय,प्रफुल्ल सेन जैसे कद्दावर नेताओं की  आमदरफ्त थी।
बिहार से गहरे  जुड़े खासकर मुजफ्फरपुर  से सघन जुड़ाव वाला  यह परिवार—और 30-40 का दशक, कोई  सहज अनुमान कर सकता है कि श्यामानंद का  बचपन कैसे-कैसे लोगों की  छांह-परछांह में गुजरा होगा। हम तो एक एमएलसी  से दादा की निकटता को दिल्ली दरबार की तरह याद करते डबलरोटी की तरह  फूले रहते हैं-बहरहाल...
आगे चल कर श्यामानंद भी वकील बने ,सॉलिसिटर। ये 70 के दशक या उसके बाद के कोलकाता का एल एल बी नहीं ,40 के दशक का बैरिस्टर – मजिस्ट्रेट जैसा  कुछ जानिये । आने  वाले  50 सालों में यहां कोई कद्दावर नेता नहीं था,कोई कलाकार-सिलेब्रिटी नहीं था,जो इनका साथी-संगी न रहा हो। सोमनाथ चटर्जी से लेकर अशोक सेन तक । चूंकि राजनीति में वकीलों का दबदबा था (जो कमोबेश अब भी है),कोई किसी पार्टी का भी हो,ऐसा न था जिससे इनके बराबरी और तू-तड़ाक के सम्पर्क न थे।
कईयों का मानना है कि वकालत और नाटक में इनकी जिंदगी चिर सी गयी थी। 5 बजे तक स्टाप वाच रख कर फीस वसूलने वाले वकीलों में इनका शुमार था ,और 5 बजे के बाद पहले अनामिका फिर पदातिक की महफिलों में आबाद । जहां कमाई धेले की नहीं ,सिर धुनाई सोलह आने। असलियत ये है कि इन दोनों कामों में उनकी जिंदगी विभाजित नहीं थी बल्कि पेशे के सामाजिक संपर्क से उन्हें जो जानकारियां मिलती थी,उससे उनका सोच,समकाल और नाटक समृद्ध होता था –परस्पर । कानून की बारीक जानकारी से लेकर ,ज्यूरिस्प्रुडेंस के पेंच तक, कला की महीन बुनावट से जीवन के जटिल संवेगों तक उनका कैनवास था । जो जीवन में है,वह कला में क्यों नहीं हो सकता? किसने कहा कि कला दैनंदिन रगड़ों के बाहर की चीज है? किसी कठिन परिस्थिति में  पड़ कर उससे निकल आने की सूझबूझ,धीरज और आत्मविश्वास उनके पास अकूत था,जो केवल कलाकारके लिये दुर्लभ है ।
यह जो शंभु मित्र,बादल सरकार,रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता,सत्यजित राय,मृणाल सेन,मोहन राकेश, प्रतिभा अग्रवाल,तृप्ति मित्रा,सत्यदेव दूबे ,गिरीश कर्नाड को इकट्ठे साध लेने की कूवत है,वह अकल्पनीय है। जबकि इनमें से कईयों के आपसी संपर्क दुश्मनी की सीमा तक खिंचे थे-निजी,राजनैतिक ,आइडियोलॉजिकल। ये सभी दिग्गज हठी, जिद्दी,ईगोइस्ट,धुन के पक्के अनकम्प्रोमाइसिंग किस्म के बड़े कलाकार हैं‌‌ -- आज सोचें तो अजूबा लगता है कि श्यामानंद इनसे काम करवा लेते थे –अलग-अलग और इकट्ठे भी।पूरे हिंदोस्तान में कौन होगा,कितने होंग़े-जिसे बेहिचक सार्वजनिक सलाम करने वालों में नसीरूद्दीन शाह,सत्यदेव दूबे,रामगोपाल बजाज से लेकर ओम पुरी ,अमरीश पुरी,कुलभूषण,अमोल पालेकर,दिनेश ठाकुर तक शरीक हों।
दूसरी ओर कभी रिहर्सल में उन्हें खांसी आ जाती तो वहां उपस्थित सभी एक्टर,नायिकायें उन्हें पानी पिलाने में,पीठ सहलाने में,छाती पर हाथ फेरने में फख्र महसूस करती थी-यह दुर्लभ स्नेह उन्हें हासिल था-पीढी दर पीढी ।करीबी लोगों  को पता  होता‌‌ -  ये छोटी खांसी है या बड़ी खांसी,यथास्थिति वे  उपचार में जुट जाते। अभिनेता –निर्देशक प्रदीप राय से चाहें तो इसकी ताईद कर  लें। हालांकि उन्हें नाम याद नहीं रहते थे ,खुद कहते कि नामों के बारे में मेरी मेमोरी अच्छी नहीं है।
अपने पिता के चुनाव प्रचार में वो शामिल होते थे,लेकिन राजनैतिक उत्तराधिकार की मंशा कभी नहीं दिखाई। नाटकों में आने की भूमिका के बारे में  कहते कि तरूण राय के साथ उन्होंने यहां कदम रखा । तरूण राय ब्रिटिश ड्रामा में प्रशिक्षित प्रखर नाटककार थे।पहले तरूण जैन संघ ,फिर जैन हटा कर तरूण संघ से उन्होनें नाटकों की शुरूआत की। पुराने कोलकाता-बड़ाबजार   की यह सामाजिक संस्था  थी ,जहां नाटकों का  लिमिटेड स्पेस था । इनके घर पर एक ललित कुमार सिंह नटवर रहा करते थे । उस समय बड़े परिवारों में ऐसे कई लोगों का रहना-ठहरना आम बात थी,आज यह स्मृति शेष है। ललित कुमार सिंह मुजफ्फरपुर के थे और न्यू थियेटर्स में कोई लिखा –पढी,डायलॉग कोच आदि का काम करते थे । स्काउट मास्टर थे,जहीन और प्रतिभाशाली थे। भाई के एक मित्र साहित्यिक अभिरुचि के कमलाकांत वर्मा भी आस-पास थे । कैसा जबरदस्त प्रभाव रहा होगा ,एक बिहारी स्काउट मास्टर का, जो न्यू थियेटर्स में स्क्रिप्ट ,डायलॉग पर काम करते थे, और कमालाकांत वर्मा का जो एक अनाम कवि थे ,साहित्यकार थे,कि छ्ह फुटे रईस कानून मंत्री के पढे-लिखे  सुदर्शन बेटे को परदे के पीछे ढकेल दिया । कहां गये वो लोग ,कहां खो गई वो दुनिया, जहां ललित कुमार नटवर भी मिट गये,कमलाकांत भी खो गये और जो उनकी लौ शयामानंद मे दिखती थी –वो भी बुझी बाती सी पड़ी है,सिर्फ धुंए की एक काली लकीर छोड़ते हुये।
रुचिर जोशी ने श्रद्धांजलि में लिखा है देश का सर्वाधिक इन्नोवेटिव निर्देशकीय दिमाग’1955 में अनामिका बना,1960 में तहलका मचाने वाला आषाढ का वो/एक दिन
हिंदी नाटकों में आषाढ मासस्य प्रथम दिवसे........
1970 में आधे अधूरे। आज भी मोहन राकेश को जो ख्याति प्राप्त है ,उसमें इन मंचनों का योगदान अप्रतिम है। इसके पहले मिखाइल सेबास्टियन का स्टाप प्रेस और 1968 में बादल सरकार का एवम इंद्रजीत। बादल दा को सर्वभारतीय फलक पर लाने का काम श्यामानंद ने ही हिंदी में किया।
इन नाटकों का  क्या  प्रभाव है नाटकों के इतिहास में,एनएसडी  के पठन-पाठन में,इसे कैसे लिखा  जाये,कैसे बताया जाये? रोमानियन मिखाइल सेबास्टियन का ऐरेना थियेटर जहां नाटक नीचे मैदान में और दर्शक ऊपर गैलरी में,इसके आशय –अभिप्राय,तकनीक,चमत्कारिता,नयेपन और क्रांतिकारी पहलूओं को बयान करना  दुश्वार है। बेनेगल के साथ उन्होनें आरोहण की,सथ्यू के साथ कहां कहां से गुजर गया रोनाल्ड जॉफ के साथ सिटी ऑफ जॉय। संगीत नाटक अकादमी ,कथक कला केंद्र, नैशनल अकादमी ऑफ परफारमिंग आर्ट्स आदि-आदि के कभी अध्यक्ष रहे ,कभी सचिव, ये सब मामूली  बातें हैं। उनके पहले और बाद में भी  इन पदों पर लोग आते-जाते रहे हैं।ध्यान देने की बात ये है कि कोई नाटककार ,वो भी  अहिंदी भाषी  क्षेत्र में इतना प्रभावशाली हो सकता है कि बेनेगल,सथ्यू,सत्यजित राय ,रोनाल्ड जॉफ सारे उसके अभिन्न दोस्त हों।
अपने पिता के सानिध्य में रह कर उन्होनें राजनीति से अरुचि कमाई थी,शायद । वे कहते थे मैं आइडिया को पसंद करता हूँ ,आइडियोलॉजी को नहीं. आइडिया इज मोर इम्पोरटैंट दैन आइडियोलॉजी। दूसरी ओर यह भी कहते कि अल्काजी के पास कोई समाजिक दृष्टि नहीं है...योरोप के थियेटर से परिचित थे ,इस बात का मलाल करते कि योरोप हमारे थियेटर को एथनिक थियेटर  मानता है । रतन थियम और कावलम के बारे में ऊंची राय रखते थे। सगे परिवार में विमल जालान जो आरबीआई के गवर्नर रहे,कमल जालान प्रसिद्ध डॉक्टर रहे और श्यामानंद हिंदी नाटक करते रहे-कोलकाता में। ऐसी निष्ठा की तुलना युद्ध समय में चरखा कातने से की जा सकती है,यह तो जन्माष्टमी के दिन उपवास रखने जैसा  है, वैष्णव जन की पीर पराई....अपराजेय आत्मविश्वास ।
कोई पूछता कि प्योर थियेटर क्या  है तो कहते कि इसे उलटी तरफ से बताना पड़ेगा ऐसी कोई विधा जो न नृत्य है, न संगीत, न डिजाईन –सेट –कॉस्ट्यूम,ना ही प्रोडक्शन वैल्यू,फिर भी जो थियेटर है। टोटल थियेटर जहां ये सब कुछ हो सकता है उसके बरक्स ,उसे पीछे छोड कर जो एक अलग मात्रा  एक विलक्षण एसेंस को प्राप्त करता है – वो है प्योर थियेटर। ये एसेंस शायद एसेंशियल की तर्ज पर और सुगंधी की बहर पर । अपने मेजर प्रोडक्शन का जिक्र करते कहते कि ये उन पडावों-हॉल्टिंग स्टेशन को याद करने जैसा है जहां से हम गुजरे,कभी ठहरे,कभी दम लिया,फिर चले...। एक अहिंदी क्षेत्र में नाटकों के दर्शकों –इकनामिक्स-गुणवत्ता,लोकप्रियता पर कहते(वैसे हिंदी क्षेत्र भी होता तो क्या होता),एक वाकया सुनाते-
“घूम रही है सृष्टि निरंतर ,आवर्त्तन में बंधी चल रही.....”
ये शायद पगला घोड़ा का संवाद है,एक दिन रिहर्सल में सभी एक्टरों से इसका अर्थ बताने को कहा  गया,अर्थ को कौन कहे ज्यादातर इसे उच्चारित भी नहीं कर पा रहे थे , तो  फिर दर्शकों से क्या शिकवा? शब्दों के मायने नहीं,शब्दों के पीछे के अर्थ,इनके पीछे की सिचुएशन,उस सिचुएशन के संदर्भ-इन्हें व्यक्त करना असली चुनौती है। इसी रौ में कभी-कभार बहुत सारे थियेटर को थियेटर ऑफ इलिट्रेंस भी कहते,फिर बात बना देते कि मैं मजाक कर रहा था। ऐसे थे हमारे महबूब – श्यामानंद। आप उनकी महोब्बत के पेचो-खम से बच नहीं सकते थे।
इंग्लैंड-पेरिस के सारे महान एक्टर एक्टिंग स्कूलों से आते हैं,और सारे महान डायरेक्टर-नाटककर ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज से। वहीं से आने चाहिये यानी लिटरेचर की परंपरा से-एक अवसाद की मुद्रा  में कहते। हमारे यहां गंभीर साहित्यिक रुचियों के लोग नाटकों में नहीं आते-इसका गम करते। कोलकाता की अति पिछडी सांस्कृतिक जनता (पढें देशवारी और मारवाड़ी) के बूते अति समृद्ध बंगालियों के बराबर खड़ा होना,उन्हें उनके ही गेम में चुनौती देना,कोई साधारण काम नहीं है,ये समझने के लिये कोलकाता में रहना जरुरी है। फिल्म मेरा गांव मेरा देश में जैसे धर्मेंद्र (अजित) कहीं से सहायता ना पाकर अकेले ही डाकुओं की टोली को ललकारता है...यह  है संकल्प की शक्ति,विश्वास का  दम-खम,जो सारे तर्कों का  अतिक्रमण कर सारी  बाधाओं को ठोकर की धूल सा उड़ाता-अपना स्थान सुरक्षित कर पाता है-अनश्वरता में । राणा प्रताप के 20000 ट्रेंड –अनट्रेंड भील सिपाहियों  की मानसिंह-अकबर की एकलाखी सुसज्जित फौज से टक्कर । जीत किसी की हो शहादत तो  प्रताप की ही महान है और ये युद्ध आरंभ होते ही पत्थर में खुद गया,युद्ध समाप्ति और जीत-हार का निर्णय आने के बहुत पहले। ऐसे ठसके से वो ये काम करते रहे जिसका कोई सानी नहीं है।वरना हिंदी भाषी कलाकार बंगालियों में\को पुजने-पूजने पर  ही तर जाते हैं। लेकिन जैसी  बराबरी का दर्जा श्यामानंद का था वो हतप्रभ करने वाला है। 1980 में भी किसी हिंदी भाषी नौजवान से पूछा जाता कि शहर में आपका रोल मॉडल कौन है, तो एक ही माकूल जवाब होता- श्यामानंद । ऐसा तिलिस्म था उनके व्यक्तित्व में।किसी सेमिनार में बडे-बडे विद्वानों से दो-दो हाथ कर सकते थे,बगैर उत्तेजित हुये ,ऐसा था हौसला। स्टेट्स्मैन रुरल रिपोर्टिंग वाले वे अदभुत समारोह इसके गवाह हैं।
 शोकसभा के कार्ड में एक रुग्ण सी तस्वीर छपी है,जिस पर मौत की छाया भी दिखती है,लेकिन वो सदाबहार हंसी यहां भी विराजती है-एक शरारती मुस्कान-जो सारे भेदों के पार जाती थी,सफलता-सम्मान,प्रयोजन –रुतबा,सभी को निर्द्व्न्द भेदती,रौशनी ज्यों जाती है,साफ-शफ्फाक शीशे के पार।
वो एक किंग साइज मैन थे,जो भव्य आयोजन करना चाहते थे। भव्य माने केवल भीड़ और हल्ला नहीं, बल्कि बडे सार्थक आयोजन। राजा रवि वर्मा जैसे भारतीय चरित्रों को पूरे वैभव और एश्वर्य में पेंट करते थे। कवि नवल का राम कथा राम कहानी का स्प्लेंडर और स्पेक्टेकल हिंदी रंगमंच की अप्रतिम शोभा है।
लगभग 50 सालों का संग रहा जिन प्रतिभा अग्रवाल का,जो नाट्य शोध संस्थान की सर्वेसर्वा हैं ,ने अंतरंग बात-चीत में पूछा  कि आप किसी काम को अच्छी तरह पूरा नहीं कर पाते,क्यों?’ तो जवाब आया कि हम काम शुरु कर देते हैं और पूरा कर देते हैं,और बीच में मेस हो जाता है,और प्रतिभा जी मेस होने के डर से काम शुरु ही नहीं कर पाती... और फिर ठहाका...प्रतिभा जी उदास सी कहती हैं ,सीलिंग की तरफ देखते, आंखों के कोर में आंसुओं को ढकते जब आदमी जिंदा रहता है ,उसकी पड़ताल कम होती है,हमारे यहां  मरने पर खोज शुरु होती है”। सनद रहे कि श्यामानंद के बाद प्रतिभा जी एक लीविंग लीजेंड हैं,बादल सरकार भी मरे नहीं है-कोई लेगा खबर।
केवल गंभीर विषयों पर सीरियसनेस ओढे रहते थे श्यामानंद हमेशा,ऐसा भी नहीं है। अपने से 40 साल छोटे बच्चों से चुलबुली-शोख बातें करते   एक बार कहा था ” सपने वो नहीं जिन्हें हम सो कर देखते हैं,असली सपने वो हैं जो हमे सोने ही नहीं देते”
शंभु  मित्र कुछ साल पहले आत्मनिर्वासन में ही गुजर गये तो कोलकाता से इस कदर नाराज थे कि कह गये कि मेरी मौत की खबर किसी को  मत देना। (यहां ऐसे लोगों का शव देह नंदन सांस्कृतिक केंद्र में रखने का रिवाज है,ताकि चाहने वाले  दर्शन पा सकें और श्रद्धांजलि अर्पित कर सके)। निकट के लोगों ने उनका दाह कर दिया ,मीडिया को भी कोई खबर तब मिली जब सब कुछ समाप्त हो चुका था।
ये नाराजगी श्यामानंद जी  की हंसी  भी छुपा नहीं पाती। क्या था श्याम भैय्या का सपना जो उन्हें सोने नहीं देता था। भाषा की अस्मिता की राजनीति करने वाले दौर में इस  अनाम कुंभलगढ के राणा का नाम कोलकाता की किसी राह के पत्थर  पर भी नहीं दिखेगा। जब कि महापुरुषों की बाढ  आयी हुई है,पालाबदल की संध्या में। कोलकाता में समाधि बनवाने का रिवाज उठ गया है-जनवादी दौर में। वैसे लोग ही कितने बचे जिन पर यह मुफीद/मुनासिब हो। जान जोखिम में डाल कर पगला घोड़ा की सवारी करने वाला आबादी के इस हिस्से में अब कोई नहीं है। यहां से  शुरु होता  है‌‌--
                              नो मैंस लैंड
  आखिरी चौकी पर तैनात इस अनूठे सिपाही को  रंग सलाम ।
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