Sunday 11 December 2011

कहानी 'अकार' में प्रकाशित


                           हड़प्पा की शिलालिपि              *विजय शर्मा                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

सावन –भादो में नदी ऐसी फूलती है कि अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि साल के 6-9 महीने इस पर साईकिल चल जाती है । कोई –कोई इसकी कृशकाया  की हंसी उड़ाता यह भी कहता है कि ‘बिल्ली कूदे नदी, गांव की सदगति । वैसे यह नदी, तिस्ता की एक धार भर  है। लेकिन लोकल महात्म्य मे इसे तिस्ता ही कहते हैं   - कंवारी नदी तिस्ता । जैसे किशोरियां अल्हड़, मस्त,बेखौफ मुग्धा होती हैं,यौवन –रुपगर्विता, उसी के स्वभाव से मिलती जुलती,सारे रास्ते रौनक बिखेरती,किसी –किसी की प्यास बुझाती ,कहीं –कहीं अचानक किसी के सामने पड़, फट मुंह फेरती और तेजी से चलती अपनी दुलकती पीठ,उचकते कांधो,हिलती चोटियों और ना जाने क्या-क्या मटकाती यह भटकोट पहुँचती है जहां इसका कंवारपन उतारने रंगीला  नद रंगीत भी पहुँचा होता है ।
[पाठक के लिये होमवर्क: नदी  प्रसंग को थोडा बढाया जाये । यहां भी अडल्टरी,प्रेम – वासना वाले प्रसंग जुडें । यहां भी कथा प्रेम –वासना –जीवन के जटिल व्यूह  में व्यक्त होती चलेगी,जहां किसी भी पक्ष मे निर्णय देना संभव न हो सकेगा ...संकेतों में कहानी  प्रोग्रेस करेगी,प्रारंभ से आखिर तक कोई बात स्पष्ट नहीं हो पायेगी .. .केवल घेर- घूमेर ..  मालूम नहीं पड़ना चाहिये कि बात नदी की हो रही है , आखरी सफे मे ये राज खुलेगा ...].         
इसी  के किनारे एक शहर बसा है जिसका नाम गँवई तर्ज पर अब भी सुभानपुर है । पहले यह एक निरा गाँव था जो बसते –बसते एक उलझे हुए गंदे शहर मे तब्दील हो चुका था । लकड़ियों के मकान चार-चार मंजिलों तक उपर उठ गये थे । संकरे रास्ते और उनसे भी तंग गलियों के साढे सत्ताईश कट्टम -कुट्टा से यह एक गंधाती बस्ती यानि ‘स्लम’ मे ढल चुका था । वैसे तो ‘राज’ यहाँ मेयर का चलता था, कायदे –कानून में तमाम प्रावधान उपस्थित थे -- भवन निर्माण के,सड़कों के आगे पीछे पर्याप्त जगह छोडने के। एक मकान से दूसरे मकान के बीच कम-स-कम तीन गज की खुली जमीन ,जिस पर कोई निर्माण कार्य गैर कानूनी था । लेकिन ये नियम –कायदे सख्ती से लागू नहीं हो पाते थे । कई मकान तो इन नियम –कानून से भी प्राचीन थे, अतः यह और भी पेचीदा हो चला था । 3 x 3 मील के इस शहर की आबादी दुनिया में इस आकार मे सर्वाधिक थी। सर्वाधिक यानि किसी दूसरे इसी आकार के शहर से डेढ, दो गुना नहीं,उन्नीस गुना ज्यादा । शहर को इस ‘यूनीक’ स्थिति का गर्व –गुमान भी था-भरपूर ।
ज्यादातर मकानों मे चार पाँच मंजिलों तक पहुँचने के लिये अलग– अलग सीढियां थी। गोया पहली सीढी पहले-दूसरे तल्ले पर खत्म। फिर दूसरी सीढी जो तीसरे तल्ले को जाती है उसके बीच पहले –दूसरे तल्ले नहीं आते। इसी प्रकार जो तीसरी सीढी चौथे  तल्ले को जाती है, वो पहली दूसरी का मुँह भी नही देखती । नीचे वाले तल्लों के सामने तो सडक खुली होना मजबूरी थी,क्योंकि उसका अतिक्रमण उग्र विवाद पैदा करता था । लेकिन दूसरे ,तीसरे ,चौथे ,पाँचवे तल्ले वाले अपनी बीमों के बाहर पहले छ्ज्जे ,फिर बरामदे,बालकनी ,फिर घेर कर पूरा घर बना लेते थे । इस तरह कई मकानों के उपरी तल आपस में मिल से जाते थे । जहाँ आसमान किसी नीली लकीर और सूरज किसी मोटी ट्यूबलाईट की तरह ही चमक सकता था या कभी कभार दिखता था। चूंकि ये आम बात थी, हर कोई यही करता था या कम –स –कम करना चाह्ता था, इसलिये इसे एक सामाजिक स्वीकृति  मिली हुई थी। मेयर कभी –कभी इस तरह के निर्माण को गैरकानूनी करार देते हुए उन्हें ढहाने का डर दिखाते थे । लेकिन यह इतनी बडी कारवाई थी के कभी पूरी न हो सकी । इससे तो सारा शहर ही ढह जायेगा। नागरिक समाज उठ खड़ा होता,कहता कि  ऐसा तो सदियों से चला आ रहा है,ये नया  मेयर ‘पागल’ है जो शहर को उजाड़ना चाहता है ,रियाया को बेघर करना चाहता है ,अपने ही वतन में अनिकेत । ज़ाहिर है ये कभी संभव न हो सका ।
कभी कभी मेयर अत्यधिक संवेदनशील होते बात पलटने  की कोशिश करते । जैसे किसी दुर्घटना  का खौफ दिखाते कहते कि ऐसे वक्त यह शहर बहुत जोखिम भरा हो जायेगा । चूंकि कोई दुरुस्त सुरक्षाविभाग है ही नही, अगर हो तो भी अग्निकांड मे फंसे इस एक दूसरे की पीठ पर लदे, सिरों को जोडे, टांग मे टांग फंसाये  शहर को बचाना दुश्वार हो जायेगा। शहर में चूंकि लोकतंत्र था, इस घनघोर दुर्दशा ,फटेहाली,बीमारी ,बेरोज़गारी के समानांतर ,इसलिये इस पर बहस हो सकती थी,कारवाई और काम की कोई गारंटी नही थी।
ज्यादातर लोग ,तकरीबन 89% लोग छोटे –छोटे, बंद ,दबड़े नुमा घरों मे रहते थे,पति-पत्नी, बाल-बच्चे,माँ-बाप,भाई-बहन,निराश्रित रिश्तेदार,उम्रदराज़, रुग्ण, वृद्ध ।
सीढियाँ और गलियाँ इतनी तंग थी कि अर्थी निकलने मे भी मुश्किल होती थी। कैसी-कैसी जिमनास्टिक करतबों से किसी बीमार को यहाँ से निकालना पड़ता था, इस पर कोई चाहे तो दांताकिलकिल मचा सकता है। सारे के सारे मकान खुली नालियों-मोहरियों के किनारे बसे थे,जहाँ मच्छर मक्खी भिनभिनाते रहते थे। शौच की बड़ी दिक्कतें थी,इसका प्रभाव नागरिक जीवन पर इस कदर तारी था कि इसकी दुर्गंध सपनों तक में प्रवेश कर चुकी थी  ।यहाँ का सम्पन्न ,शक्तिशाली,प्रशासक भी ऐसी ही स्थिति  मे रहता था, हाँ जगह उन्होनें थोड़ी ज्यादा हथियाई हुई थी,जैसे दो की जगह चार कमरे ।इसलिये इस पर कोई भृकुटि नही तन सकती थी, वैसे इसे समतामूलक समाज और लोकतंत्र का प्रत्यक्ष प्रमाण भी माना जाता था ।गरीब का बच्चा 52 साल तक जी जाता था ऐसी  नज़ीरें भी उपलब्ध थी,बडे आदमी कि बीवी 26 की वय में मच्छर काटने से मर सकती थी। इस पर एक सांझा विचार घर कर चुका था कि जीना मरना ईश्वर के हाथ है...जाको राखे सांईयाँ ....किस्म की घोर चुगद बातें...
यहाँ के ज्यादातर बाशिंदे घर मे रोटी नही बनाते थे क्योंकि छोटे -2 दबड़े नुमा मकान में चुल्हा-चौका की जगह निकालना रईसी और खर्चीला माना जाता था ।  इससे एक फायदा यह था कि स्त्रियाँ चूल्हे-चौके में कम पिसती थी,वैसे उन्हें पीसने के बाकी सारे औज़ार मौज़ूद थे। कईयों ने घर में ही दुकान खोल रखी थी,व्यवसाय के नाम पर वो रोटी –दाल –सब्जी बनाते बेचते थे। ढेर सारे लोग इनसे रोटी सब्जी खरीद कर ले जाते और खा कर सो रहते ।इनकी कीमत इतनी ‘वाज़िब’ होती कि किसी को भी अखरता नहीँ था । वैसे दुकानदारों की मजबूरी ये थी कि इससे अधिक  दाम उन्हें मिलना संभव नही था,शहर की क्रयक्षमता बडी सीमित थी। इससे दुनिया भर  मे  ‘सस्ता’ शहर होने का गर्व भी फोकट में मिल जाता था ।व्यापारियों के नाम पर यहाँ कुछ परदेसी-प्रवासी भी आते थे जो इनकी जरुरत की चीजें बनाकर या लाकर बेचते थे । ये अपेक्षाकृत अमीर लोग होते, जिन से स्थानीय लोग डाह रखते थे,लेकिन उनके आगे ये बेबस थे ।क्योंकि जरुरत की चीजें वही लाते । कीमत भी कोई ज्यादा नहीं, चूंकि क्रयक्षमता ही जूते के फीते की तर्ज पर सिमटी थी, दाम को वाज़िब होना ही पड़ता था, झक मार के...।  
ऐसी असंख्य  रोटी सब्जी की दुकाने थी,जहाँ रात-दिन चुल्हा भट्टी धधकती रहती थी, यहाँ से सारे दिन धुंआ उठता रहता, मुर्गा मच्छी की गंध और खून  वातावरण को दूषित किये रहता। लेकिन आम आदमी इस रसोई की खुशबू पर फिदा होता बेखौफ आता जाता रहता । तकलीफ तो दूर उसे कई बार इस सुगंधि से मज़ा आता ।एक दिन शाम के वक्त ऐसी ही एक मांगेराम की दुकान मे आग लग गयी। थोड़ी देर मे लकड़ी के फट्टे और फूस के छप्पर सुलगने लगे। चूंकि सारे मकान एक दूसरे से सिर जोडे थे इसलिये आग फैलती चली गयी।पूरा शहर धीरे –धीरे इसकी गिरफ्त में आने लगा। अग्निशमक विभाग लाचार था,पास की नदी से पानी ला कर आग बुझाने की कोशिश होती रही ,लेकिन नाकामयाब। उपर से इस हजारों घरों वाली बस्ती मे सैकड़ों मे बारूद रखा था। जिसका इस्तेमाल वो बाहरी आक्रमण के समय शत्रु सेना पर करते थे । लड़ाके वीर बहादुर शहर को इसका भी गुमान कम न था । वो भी एक –एक कर के फटने लगे,चारो और तबाही का मंज़र था । इस बारूद का इस्तेमाल मेयर ने ‘फायर लाईन’ बनाने के इरादे से करना चाहा ,वो यूं कि आग जिस ओर बढ रही थी, उसके रास्ते के एक मकान  को गोला दाग कर ढहा  दिया जाये, उम्मीद ये थी कि आग उसके आगे बढ नही पायेगी,क्योंकि वहाँ पहले से ही सब कुछ भस्मीभूत हो चुका होगा । लेकिन इससे कोई राहत नही मिली,उलटे तबाही और बढी ।सात दिन और आठ रात के बाद जब हवा ने रुख मोड़ा तब जाकर आग फैलनी बंद हुई। कुछेक पक्के मकानों के अलावा यहाँ के घर-बार,हाट-बजार,मंदिर –देवालय,मस्जिद –गिरजे,स्कूल,पुलिस चौकी,कचहरी,वेश्यालय,दारू के अड्डे ,चंडूखाने सब जल कर राख हो गये ।गिनती में केवल 66 लोगों की लाशें मिली,जिनमें 39 की शिनाख्त नही हो पायी । मेयर  ने सुझाया कि ये एक अच्छी बात हुई,जान का नुकसान कम रहा ।
लेकिन उसके पहले नागरिकों की कोई पुख्ता लिस्ट नही थी,कभी मर्दुमशुमारी भी नही हुई थी,   हज़ारों लोग लापता थे, उन्हें ढूंढने वाला भी कोई नही आ रहा था,इसलिये कईयों ने इस संख्या को लीपापोती माना,झूठी गिनती,यहाँ अजीब रिवाज़ था की सरकारी किसी भी आंकड़े को कोई सही नही मानता था । सरकार भी कभी विश्वास अर्जित करने के लिये बेचैन हो,ऐसा कभी नही दिखा ।कुछ ने ये भी कहा की घरों के साथ लाशें  भी जल गयी होंगी, फिर गिनती काहे की ? ये विवाद कई दिनों तक चलता रहा । सारी दुनिया के ज्ञात इतिहास मे ऐसा अग्निकांड कभी नही हुआ था । कम-स-कम 99 सालों में। इससे अधिक उम्र का कोई आदमी मौज़ूद नही था,
ना लिखित इतिहास ।विश्वविद्यालय में तब तक इतिहास पढाने लायक विषय नही माना गया था ।
कईयों ने इसे प्रलय भी माना ।शहर के लिये यह प्रलयंकारी था भी ।
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प्रलय के बाद फिर सृष्टि......फिर प्रलय...
पाँच सालों तक इसकी तहकीकात होती  रही। कई जगहों पर बाशिंदों ने प्रवासी-परदेसियों को मारा –पीटा,जिंदा जला  दिया –लींचींग । इस शक पर कि इस अग्निकांड मे इन्ही का हाथ है । हमारे आबाद शहर से जल कर इन्होने ऐसा किया । ऐसी घटनाओं से शहर की काफी बदनामी हुई। लेकिन जिंदा बचे लोगों मे एकता भी स्थापित हुई  - भुमिपुत्रों की एकता । मांगेराम को कोसने वालों की कमी न थी,कईयों ने उसे विदेशी  षडयंत्र मे शामिल करार दिया ।आज इस घटना को  हुये 99x2=198 साल गुज़र गये। दोबारा शहर बसना शुरू हुआ ।
इस बार बाकायदा नियम –कायदों,प्लानिंग आर्किटेक्ट,नज़ाकत ,खूबसूरती ,कला,सुरूचि,एसथेटिक्स वगैरह को शामिल किया गया।चौडी सड़कें ,चौकोर प्लाट,प्रशासनिक क्षेत्र शहर के मध्य में। गोल गुंबदाकार इमारतें,कई –कई दरवाजे,आदमकद खिड़कियां,सामने खुली हरियाली,बाग बगीचे,फाउंटेन.,मूर्तियाँ ।इसके चारों और आयताकार परिधि में दफ्तर ,कामकाजी,व्यवसायी रंगत वाला इलाका । सलीकेदार एक ही  रंग की झक्कास इमारतें । इनके बनावट में इनकी उपयोगिता निहित । जो काम जहाँ हो ,उससे मिलतारू स्वरुप । आप जूतों की फैक्ट्री से  स्कूल की इमारत अलग पायेंगे । बाजार और थाने ऐसे कि देखते ही पहचान मे आ जायें । किसी धोखे की कोई गुंजाइश ही नही। और इस वृत्त के बाहर रिहाईशी इलाका । एक–दो तल्ले के काटेज –बंगले नुमा मकान। चारो ओर खुले,धुप –बारिश,रौशनी-हवा के लिये तो बाँह खोले,पलक बिछाये इंतजार रत । गाडियों के हॉर्न बजाने पर भी पाबंदी । निहायत जरूरी हो तभी ये बजें ।सड़क के किनारे उन्नतग्रीव दरख्त जिन्हे फल की चिंता बिल्कुल नहीं,केवल पत्ते-छाया,चिड़िया-घोसला और वसंत की प्रतीक्षा  की फिक्र ।
अब शहर फैलाव ले चुका है,40 मील बाई 40 मील । उत्कृष्ट,दक्ष म्युनिसिपालिटी इसका रख रखाव करती है । सारी दुनिया के शानदार शहरों में इसका शुमार है ।यहाँ होना जन्नत में होने सरीखा है ।शहर के बीचोबीच मांगेराम की मूर्ति लगी है ,यहाँ मांगेराम एक रुमाली रोटी जिसका आकार एक बडी छतरी के समान है ,को हवा मे बादल सा उड़ा रहा है जो अब तवे पर गिरने ही वाली है ।जिसकी दुकान से शुरु हुये अग्निकांड ने शहर को ये भव्य रुप प्रदान किया ।कोई देखे तो बरबस मुहँ से निकल पड्ता है – सुभान अल्लाह । नाम अब भी इसका सुभानपुर ही है । शहर के इतिहास को समेटे जो म्युजियम बना है ,उसका नाम भी मांगेराम म्युजियम है । अपने पुरखों  के प्रति ऐसा है शहर का कृतज्ञता बोध ।
मांगेराम की पत्नी थी,अनिन्द्य सुंदरी,नाम उसका तृष्णा। सारे शहर मे मांगेराम की रूमाली रोटी और मा की दाल की धूम थी। चटोरी के चौराहे के पार उसकी दुकान पर सारे दिन जमघट लगा रहता था। जिस किसी ने देखा उसे भाड़ झोंकते ही देखा । इसमे दाल छौंकना भी शामिल। वह अपने काम मे तल्लीन रहता था। उसकी पत्नी तृष्णा आटा गूंदती,चक्की पीसती,आटे का खमीर उठाती,लोये तोड़ती ,वहीं उसके पीछे बैठी रहती। सुंदर स्त्री और स्वादिष्ट खाने का जोड़ द्रौपदी से ही चला आ रहा है ।और जैसे द्रौपदी को अन्नपूर्णा का वरदान था वैसे ही तृषणा की रसोई से कोई भूखा न जाता था, हाँ मांगेराम इसके पैसे वसूल लेता था बेशक ।चूल्हा लीपना,दुकान की सफाई करना,आँच लगाना,राख झाड़ना जैसे कामों में रत तृष्णा का शरीर तप –तप कर कच्ची हल्दी और पके सोने के बीच का रंग ले चुका था। दुकानदारी जमी हुई थी,कमाई के साथ सुनाम भी हासिल था । कई लोग नदी पार कर उसकी दुकान पर आते थे, ऐसी थी उसकी रसोई की खुश्बू और उसका रंग । नदी के दूसरी तरफ भी एक छोटी बसैत थी,जहाँ 20-30 घरों के अलावा एक उजाड़ मंदिर था । वहाँ यदा कदा कोई साधु महात्मा आया करते । जिसके दर्शन करने माथा टेकने पति-पत्नि जाया करते थे ।जिस दिन जाते ,तो साथ चार रोटियां और दाल –सब्जी भी ले जाते ,जिसे पाकर और खा कर महात्मा तृप्त हो जाते और आशीर्वाद देते ।
’तेरा नाम तृष्णा क्यों है ? जबकि तेरे खाने में सबकी ऎसी तृप्ति ।‘ साधु महाराज कहते 
सलज्ज नज़रों से दम्पति उनके पैर छूते और वापस आ जाते।
उस उजाड़ मंदिर में मूर्ति के नाम पर एक यक्ष –यक्षिणि की  भग्न आकृति भर थी, जो किसी चरम प्रणय समय मे पाषाण में तब्दील हो चुके थे और उसके बाद कभी उस अवस्था से बाहर ही नही निकले । मूर्तियों की योनियों पर फंगस लगा था ,जहाँ गौरय्या ने अपना घोंसला बना रखा था । उजाड़ मंदिर मे कई बार लोग    इन्हीं खांजो में धूपबत्ती लगा दिया करते थे ,क्योंकि और कोई माकूल जगह नही थी,  खोंसने की ।  इनकी सुगंधि से उजाड़ मंदिर घंटे दो घंटे भरा रहता । फिर धूपबत्ती और सुगंधि राख मे तब्दील हो कर जमीन पर पड़ जाती,और फिर हवा के झोंके से इधर उधर फैलती रहती ।
इसकी  खुशबू हर किसी को नही मिलती ,महात्मा बताते कि ये नसीब वालों को ही मिलता है जैसे तृष्णा के पकवानों का स्वाद ।
तृष्णा झेंप जाती ,साधु रोटी सब्जी को जब ‘पकवान’ बताते ।
अरे ! भूखे  दुर्वासा के लिये ये उससे भी बढ कर है ।
कभी –कभी निराले एकांत मे जब ये धूप सुलगनी शुरू होती,और सुगंधी हवा मे कुलांचे भरने लगती तो ये मूर्तियां थोड़ी निकट आ जाती । ऐसा कई बार साधु ने महसूस किया था । इसकी चर्चा वह किसी से न करता था क्योंकि इससे जादू-टोने का भ्रम और भूत-प्रेत की अफवाह पक्की होती । लेकिन एक दिन उसने ये किस्सा मांगे दम्पति से सांझा किया । मांगे को यह बडा तिलिस्मी जान पड़ा - अबूझ । लेकिन तृष्णा चुप रही जैसे वह इसकी ताईद कर रही हो। इस घटना को सुनते वक्त उसके कान लाल हो गये ,गालों पर पसीने की बूंदे दिख पडी,सांस धौंकनी की तरह जोर –जोर चलने लगी,उसने अपने निचले होठ उपर के दांतो से काटे ,जिसे यक्ष –यक्षिणि और गौरय्या  के  अलावा कोई न देख सका ,क्योंकि इसे पत्थर की आंख देख सकती थी,या फिर कलर ब्लाईंड गौरय्या । ये शरद के खत्म होने और जाड़ों के आगमन का मौसम था, उतरते कार्तिक ,मृगसिर के पहले कदम । रास्ते भर उसे झुरझुरी होती रही , हाँलाकि सर्दी ज्यादा नही थी। नदी के तट पर मांझी एक छिदाम मे नदी पार करवाता था । उसने दो छिदाम दिये और पति-पत्नि तेज तेज कदमों से चलते वापस घर आ गये ।   
उस रात दुकान बढाने के बाद पति-पत्नि सारी रात गुत्थम -गुत्था रहे ।आज मांगेराम उसे बता रहा था कि आटा गूंदा कैसे जाता है? चक्की पीसने में लय कैसे परवान चढती है,जिससे ताकत कम लगे,थकावट बिल्कुल न हो, और आटा महीन पीसा जाये,खमीर उठाने का सही वक्त कैसे भांपा और सूंघा जाता है। लोये तोड़ते वक्त क्या-क्या सावधानी बरतनी चाहिये,ताकि सारे लोये इकसार बनें ,न छोटे न बढे,बिल्कुल सम। तृष्णा को ताज्जुब होता रहा  कि रसोई –पाक कला की ऐसी बारीक जानकारी मांगेराम को कैसे आयी। वह तो आज तक खुद को ही बढी पारखी और बेनजीर कारीगर समझती आयी है। आज वो समझी कि द्रौपदी गांडीवधारी अर्जुन की रसिया क्यों थी,थोडे पाप और पक्षपात का बोझ उठाते हुए भी।
तुमने ये सब पहले कभी बताया नहीं?
कब बताता ,रात –दिन तो काम –काज मे ही धंसा रहता हूँ। फिर आज मौसम अच्छा है,देखो ये उत्तर वाली दरीची खुली रह गयी थी,। उन्होनें महसूस किया के नदी पार वाले मन्दिर की सुगन्धि सारी रात इस मोखले से दस्युदल की तरह घुसती रही है ।
मांगे ने कहा आज मैं नही जा सकूंगा,तुम्ही साधु का खाना ले जाना ।
कल की झुरझुरी को याद करते वो एक दुशाले मे खुद को लपेटे दोपहर बाद उस पार गयी ।
 1x2 छिदाम मांगे ने पहले ही खिड्की पर धर दिये थे ,एक में जाना एक में आना। शाम उतरते –उतरते वो वापस आ गयी  - थोड़ी उदास । वहाँ आज साधु नही मिला,ना ही वो सुगन्धी थी,मूर्तियाँ भी दूर-दूर खड़ी थी। वापस लौटते वक्त मांझी ने बताया कि इस ‘थान ‘ का यही तो रोना है।यहाँ कोई साधु ज्यादा दिनों तक नहीं रुक पाता,इसीलिये तो यहाँ बसैत अच्छी नही है।कोई टिकने वाले महात्मा आ जायें तो इधर भी सुभानपुर बन जाय।लेकिन साधु भी टिके कैसे ,.....................................................................................................
वैसे इसका फायदा भी है,इधर का इलाका गच-पच नहीं है,खुला खुला  है यहाँ सांस अच्छी आती  है। फिर  बोला लेकिन बसैत अच्छी हो जाये तो मेरा धन्धा भी ठीक हो जाये। आप बताओ दिन में चार फेरे भी न लगें,20-40 लोग भी आर-पार न हों तो नाव क्या सूखे मे चलेगी। मैं काम में कोई पेंच नही रखता ,भाड़ा मैने एक छिदाम रखा है,बिल्कुल वाजिब ,लेकिन पैसा पहले लेता हूँ ,नाव मे पैर बाद मे धरने देता हूँ ।भाव में भाई क्या करेगा ,उधार का काम मुझे नही सुहाता। कई लोग नाराज़ भी हो जाते हैं,लेकिन मेरा उसूल है।कोई भला माने तो भला ,बुरा माने तो उसकी बला ।तृष्णा ने जब बताया कि वो मांगे की पत्नि है,तो उसने कहा की उसे उसके बारे में सब पता है,उसकी रुमाली रोटी,दाल का छौंक ,काया का रंग,सुनाम,मंदिर में जाना इत्यादि-इत्यादि।तृष्णा को भी कोई हैरत नही हुई।बहरहाल...........
इसके बाद से उसे जब वक्त मिलता वो नदी पार मंदिर जाती। कभी कोई साधु होता ,कभी नही भी होता,सारे रास्ते जंगली झाड़ियों मे बैंगनी फूल हेरती वो मंदिर मे धूप जलाती,थोडी देर अनमनी सी बैठी रहती,फिर आते वक्त जंगली झाड़ियों से चुन-चुन कर मौसम रंग के फूल इकट्ठा  करती,मांझी को एक छिदाम देकर उससे मुफ्त की बातें करती वापस आ जाती। मांझी की बातों मे उसे कभी साधु की गमक दिखती ,कभी नितांत बेहया किस्म की हल्की बातें भी होती ।कह सकते है मांझी से भी उसकी दोस्ती सी हो गयी थी। कभी-कभार वो उसकी दुकान पर आता तो उसे एक रोटी ज्यादा दे देती ,दाल का भी एक चमचा अधिक । मांगे ने महसूस किया के तृष्णा अनमनी सी रहती है,कभी आटे को ओसणने मे कमी रह जाती,चक्की का शोर ज्यादा होता पिसाई कम ,खमीर कभी कच्चा उतर जाता, कभी थोडी खटास ले लेता और लोये छोटे-बढे, हल्के-भारी हो जाते ।
तृष्णा काम मे मन लगाने की कोशिश करती लेकिन ये यह संभव नही हो पाता। उसे आटा गूंदते वक्त कभी अपने घर की सीढियां,कभी भट्टी की धौंकनी,कभी गहरी नदी का पानी,कभी राख में बदलते जलावन की याद आ जाती। पति-पत्नि जब एकांत में होते तो उसे पति की छाती पर कंटीली झाड़ियां उगती दिखती,कभी उजाड़ मंदिर की भग्न प्राचीर,पाषाण में तब्दील हुये प्रणयरत यक्ष-यक्षिणि,कभी मांझी की बेहया बातें,कभी धूप की सुगन्धि,कभी साधु के लहराते वस्त्र ,कभी खटास लिये आटे के लौंदे की याद हो आती । वह कोशिश करती कि जिस वक्त जो काम सामने हो ,उसी को निबटाया जाये। लेकिन ऎसी मनःस्थिति होती कि तमाम चित्र एक दूसरे को धकेलते,उपर नीचे फेंटते,कटते-जुडते रहते, और वह एकाग्रता  कायम नहीं  कर पाती।
उसने ये बातें मांगे से सांझा करनी चाही तो मांगे का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया । उसने इसरार किया कि उसके साथ भी इन दिनों यही हो रहा है ।मैं रोटी बेलते वक्त कभी तुम्हारी हल्दी सी काया देखता हूँ,धौंकनी फूंकते वकत मुझे वो ‘रात’ याद आ जाती है।चूल्हे मे जलावन झोंकते हुये मैं अक्सर सहम जाता हूँ  कि गलती से मैनें सब्जी न झोंक दी हो । उपर चढते हुए  सीढियां नीचे की ओर जाती लगती हैं,पैसा लेते वक्त अक्सर भूल हो जाती है,मेरी दुकान नदी के पार दिखती है,घर में वो मंदिर दिखाई देता है ,कभी धूप के खोंसने का स्थल ।जलती मिर्च में सुगन्धि महसूस करता हूँ , सूखी नदी मे फंस जाने का वहम होता है,कभी-कभी तो लगता है सारे शहर मे आग लग गयी है और तुम्हारी लाश मैं नदी से खींच कर बाहर निकाल रहा हूँ।
उन्होनें उस पुराने परखे हुए खेल को भी आजमाने की कोशिश की ,जिसे वो हड़प्पा की शिलालिपि कहते थे । इसमे पति-पत्नि को बारी –बारी से एक दूसरे की नंगी पीठ पर उंगली से कुछ लिखना होता  और दूसरे को बताना होता के उसने लिखा क्या है?
मांगे ने लिखा ‘प्रेम
तृष्णा ने पढा ‘काम
और जो तृष्णा ने लिखा ‘मोक्ष
तो मांगे ने पढा ‘मृत्यु
फिर मांगे ने लिखा ‘आग
 जिसे तृष्णा ने फिर पढा ‘बादल’
तृष्णा ने अबके लिखा ‘आनंद’
जिसे मांगे ने पढा ‘वैराग्य’
चूंकि ये दोनों हिन्दी और उर्दू दोनो भाषायें जानते थे ,अत: इनसे बराबर चूक हो रही थी, आज ,ये ऐसी मनसिथति मे थे कि यह भी तय नही कर पाये कि लिपि को दाहिने से बांये जाना चाहिये कि बांये से दाहिने । इसे पूछने का निषेध था खेल शुरू होने के बाद ।इसलिये खेल जम ही नहीं पाया ।
अब इनके लिपट कर रोने की बारी थी।सारी रात बादल बरसते रहे,बिजली कड़कती  रही,शोर ने ऎसा घेरा बना दिया कि बाहर की कोई आवाज कानों तक पहुँच ही ना सके । लिपटे-रोते- बिलखते उनकी नींद जब खुली तो दिन बहुत चढ चुका था बारिश रुक चुकी थी, मोहरियों में गन्दा पानी  धाराओं में बह रहा था। इतनी देर तक वे पहले कभी नही सोये थे,शादी के बाद वाले दिन भी नहीं । ऐसी बेखबर नींद ,ऐसा रहस्यमय स्वप्नसमय पहली बार आया था।
आज तृष्णा मंदिर गई,साधु को खाना परोसा।धूप जला कर वापस आने को हुई तो पाया कि उसकी अंटी से एक छिदाम गायब है ।उसने सोचना चाहा कि घर से वो दो पैसे लेकर चली थी या एक पैसा ।मांझी को आते समय एक के बदले दो पैसे न दे दिये हों । लेकिन फिर याद आया कि नाव से उतरने के बाद भी एक पैसा सलामत था,यानि कि एक पैसा इस पार रास्ते में कहीं गुम हुआ ।
उसने ससंकोच साधु से एक पैसा माँगा ।
साधु ने कहा मैं माया को स्पर्श नही करता ।
उसने अपने लम्बे संपर्को की दुहाई दी पर साधु पर कोई असर नही हुआ ।
लेकिन मैनें कभी कोई कृपणता नही की आपके समक्ष,सिर्फ इशारे पर ही मैनें सब कुछ समर्पित किया , आप एक पैसे के लिये मुझे तिरस्कृत कर रहे हैं-तृष्णा ने कहा ।
मैं भी तो अनुराग में अमित रहा,कभी तुम्हे ठेस लगे ऐसा आचरण सोचा भी नही,पर माया का प्रवेश प्रेम को प्रदूषित करता है।यह जो तुम अनुराग की एवज में पैसा माँग रही हो ,मैं इसके सख्त खिलाफ हूँ। साधु ने वचन कहे ।
मैंने कभी आपसे खाने के पैसे नही मांगे,केवल आपकी तृप्ति ही मेरा संधान रही,फिर ऐसी तुच्छ बात पर आप मुझे संकट में डाल रहे हैं,मुझे पार उतरने के लिये एक पैसा नाव को देना ही पडेगा।अन्यथा मैं जा न सकूँगी।
मेरी तृप्ति में तुम्हारी भी तो  तृष्णा मिटी है! यह तो बराबर का सहकार का बंधन है ,इसे पैसे के पलड़े मे मत तोलो .....
हार कर तृष्णा निकल पड़ी ,देर भी हो रही थी,सूरज  गुम होता जा रहा था। झींसी लग गयी थी। रास्ता दिखना भी दुश्वार था । सारे रास्ते उसने कोई फूल नही चुने,उसकी इच्छा हुई ,उसने चाहा-मनाया कि सारी दुनिया मे आग लग जाये । गिरती –पड़ती जब वह नाव तक पहुँची तो पाया कि मांझी वहाँ बैठा है,लेकिन बगैर पैसे वह पाँव न धरने देता था ।
मांझी ने कहा मैं तो तेरे इंतजार मे ही बैठा हूँ,वरना ऐसी तूफानी रात कोई सवारी मिलने से रही ।बारिश मे तर-बतर मुझे तेरा ही ख्याल आ रहा था ।लेकिन मेरी मज़ूरी मुझे मिलनी चाहिये।मैं कोई अधिक कीमत नही ले रहा आज हाँलाकि मौसम कितना खराब है,जोखिम कितना ज्यादा है,तू समझती होगी ।
तृष्णा ने दुकान की फाजिल रोटियों की गुहार लगाई,एक चमचा मजीद काली दाल से भी मन ना पसीजा- उस  कमीने मोट्यार का...
[कमीने को पेन थ्रू करें]
उसकी हंसी ठिठोली बेहया बातों का भी वास्ता दिया,लेकिन फजूल
आखिर मेरे पास देने को पैसा तो है नहीं, तू चाहे तो और कुछ ‘ले ले’ उसकी बेहया बातों को याद करते उसने कहा ।
मैं मुफ्त का एहसान नही लेता,वो भी मुसीबत मे पड़ी औरत से। आज मेरे पास फूटी कौड़ी भी नही है,वरना एक कौड़ी मे तुम्हारा साथ खरीद  सकता था,लेकिन उधारी का काम मेरे उसूल मे नहीं है ।एक पल को तो पक्के सोने के रंग वाली भीगी काया से उसका ईमान डोल गया था।उसकी अचानक तेज़ हुई सांसो की धुक-पुक देख तृष्णा ने नाव में कदम रखना था कि...
मांझी ने खुद को संभाला,औरत की लप्पा चोटी की और बाहर धकेल दिया...
स्पर्श से उसकी देह जल के भभके सी सुनहरी हो गयी,लेकिन उसूल तो उसूल है ,उसे यूँ ही आंसू की नांई टपका के धूल मे नही गिराया जा सके है । हाँलाकि उसका शरीर टनटनाये हुए था ।
निराश तृष्णा ने  एक कम चौडी पाट वाली जगह तलाशी जहाँ पानी कम हो और पैदल ही नदी में उतर गयी।लेकिन जहाँ पाट कम चौडा हो वहाँ बहाव तेज़ होता है ।उस पार पहुँचने मे सारी रात लग गयी उसे,सशरीर,लेकिन ...
उसकी लाश निकालते वक्त मांगेराम को ‘वो’ सपना  याद आ गया जिसका जिक्र उसने तृष्णा से भी किया था,....तो क्या सपने सच होते हैं?समय चूंकि अनंत है और कोई घटना कभी न कभी तो होती ही है,कम-स-कम संभावना तो रहती ही है।वैसे बगैर कल्पनाधार के सपने भी नही बुने जा सकते ।और इस अर्थ मे सारे सपने कभी न कभी सच हो सकते हैं।हमारे जीवन काल में या फिर उसके पश्चात कभी।तो क्या शहर के जल कर खाक हो जाने वाली बात भी सही हो सकती है?
मांगे ने इसका जिक्र किसी को करना ठीक नही समझा।इसी उधेडबुन मे मांगे की किसी लापरवाही से कोई चूक हुई,जिससे आग लगी,जिस आग ने शहर को लील लिया।उसे सपना सच होने का इतमीनान भी था लेकिन ऐसे भयानक सच की खुशी किसी को क्या होगी ।
ये किस्सा भी कईयों  को पता है।शहर के वकील और अदीब जो ज्यादतर ‘पालिटिक्स ‘ में है,अक्सरहा इस पर बहस –जिरह करते हैं । इस बहस में शहर कई ‘वर्गो’ मे बंट जाता है।भूमिपुत्र ‘विचारधाराओं’ में कटने –काटने लगते हैं।
पूंजी.पैसा,प्रेम,समता,विकास के तमाम प्रतिनिघि पात्र जब –तब स्थानांतरित हो जाते हैं ।
 पहली विचारधारा वाले शहर की गन्दगी और दमघोंटू माहौल को इस अग्निकांड का कारण बताते हैं,जिसकी जड़ें तृष्णा की खुदकुशी में भी थी।
दूसरी विचारधारा उस साधु को बेरहम ,ढोंगी और कामुक करार देती है जिससे एक दमडी नहीं दी गयी एक ‘अबला’ की जान बचाने के लिये।सुंदर स्त्री के साथ ऐसा सलूक अक्षम्य है ।
तीसरी धारा उस हरामखोर मांझी को गाली देती है जिसके धन्धे के उसूल ने सुन्दरी की हत्या की।कुछ लोग उसे मेहनतकश का वाजिब हक मांगने वाला और चरित्रवान भी मानते हैं,गरीब था,लेकिन  लंगोट का पक्का,सिद्धांतनिष्ठ  ।
एक चौथी विचारधारा है जिसका मानना है कि पुरूष की अनदेखी से बेचारी औरत बरबस नदी की ‘धार’ मे फंस कर जान देने को अभिशप्त है ।आज नही  तो कल उसके साथ यही होता।इनमें से कुछ लोग विवाह –परिवार संस्था को ही क्रूर निर्दयी मानते हैं ।
एक पाँचवा दल है जो सबसे निराला है ,जो मानते हैं कि ‘कुलटा’ का यही हश्र होना होना चाहिये,उसे वहाँ जाने की जरूरत क्या थी,अपने घर में बैठ नही सकी ईज्जत से –निचलायी ..
एक छोटा दल मांगेराम को प्रताडक कम और विक्टिम ज्यादा मानता है ,सामाजिकता के अनिवार्य षडयंत्र के दुष्कर्म में फंसा बेचारा मर्द...
इसके बाद के एक पन्ने को मैं कालिमा से नही भरूँगा ,काली सियाही काग़ज की पवित्रता को कलुषित करेगी। इस पन्ने के बाकी हिस्से को ‘साईलेंस’ से भरा रहने दें ...
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