कृपया हॉर्न मत बजाईये * विजय शर्मा
मशहूर बांग्ला साहित्यकार नारायण गांगुली ने ‘सुनन्दो’ पत्रिका में लिखा कि “शायद मैं कुछ दिन और जी लेता लेकिन लाऊड स्पीकर,पटाखों और गाड़ियों के हॉर्न ने मेरा जीना मुहाल कर दिया है,सुना है इनकी रोकथाम के लिये कोई कानून भी है,पर यह अफवाह ही होगी।” हाईकोर्ट के जज माननीय भगवती प्रसाद बनर्जी ने यह पढा तो बड़े द्रवित हुये। आखिर लिखने वाला मूर्धन्य साहित्यकार नारायण गांगुली है। जब तक वे इसका संज्ञान लेते, नारायण दा कोलकाता और इस दुनिया को अलविदा कर चुके थे। जजसाब ने तत्काल इसकी रोकथाम के लिये एक ऐतिहासिक फैसला दिया और यह कानून की किताब में शामिल हो गया।
कोलकाता की तमाम अम्ल-मधुर विसंगतियों में यह भी शामिल है कि हमारा शहर सर्वाधिक शोर-शराबे वाला शहर है। गाड़ियों के हॉर्न यहाँ सबसे ज्यादा बजते हैं,और अनायास ही इसे ‘हांकिंग राजधानी’ का खिताब मिला हुआ है। सारी दुनिया में प्रमाणित है कि ज्यादा शोर शराबा बच्चों की श्रवण शक्ति और सीखने-पढने-समझने की क्षमता को प्रभावित करता है। यह उनके स्वभाव में चिड़चिड़ाहट और उत्तेजना पैदा करता है। जो प्रकारांत से उनके सामाजिक व्यवहार को नुकसान पहुँचाता है। इस सिलसिले की शुरुआत कम और ऊँचा सुनने से होती है,फिर जोर बोलना,फिर और ऊँचा सुनना,टीवी को पूरे वाल्युम पर रखना इससे और श्रवणशक्ति का ह्रास ,और चिल्लाना—और आखिरकार आदमी एक भयंकर कुचक्र में फँस जाता है। क्योंकि सामने वाला भी इसी राह से आया हुआ और इसी व्याधि से पीड़ित होता है।
क्या वजह है इस शोर की?
गाड़ियाँ तो सभी शहरों में हैं,युरप ,अमरीका में तो यहाँ से भी ज्यादा।लेकिन हॉर्न बजाने का रिवाज कहीं नहीं।
कुछ लोग इसे कोलकाता के ‘लाऊड कल्चर’ से जोड़ते हैं। चूंकि यहाँ समाज प्रतिवादी चेतना,रिफ्युजी संस्कृति,धरना-प्रदर्शन,घेराव,चक्का जाम,जुलूस-स्लोगन को अपनी सांस्कृतिक पहचान मानता है,इसलिये अनायास ही यहाँ का कल्चर लाऊड या उग्र हो गया। रास्ते में वाहन भी इस प्रतीकार्थ का अनुशरण करते हैं।
कोई ठहर कर पूछे कि रास्ता अगर खाली है तो आपको हॉर्न बजाने की जरुरत क्यों है? दूसरे अगर रास्ता जाम है तो फिर आपका हॉर्न क्या हासिल करेगा? यह सोचना भी अजीब है कि आपके सामने वाले चालक को जल्दी नहीं है,वह तो बेकार ही पेट्रोल फूँक कर जॉय राईड कर रहा है,और आप असली ‘काम’ पर निकले हैं,सो आपको जल्दी है। क्या कोई यकीन करेगा कि युरप में हॉर्न बजते ही नहीं। भीड़ वाली जगहों पर भी नहीं।
एक कार विक्रेता ने हँसते हुये बताया कि केवल हिंदोस्तान में ग्राहक गाड़ी खरीदने के पहले हॉर्न बजा कर चेक करता है। फिर ज्यादातर ग्राहक कम्पनी के हॉर्न के अलावा भी मल्टी टोन, श्रिल,रिवर्स गीयर या म्युजिकल हॉर्न लगवाते हैं। सारी दुनिया हम पर हँसती हो ,हमें कि फर्क पैंदा? यह कहते हुये वह हँस-हँस कर लोट-पोट हो गया।
एक समाजविज्ञानी के अनुसार यहाँ के नगरिक जीवन में असुरक्षा भाव,बेरोजगारी,आंतरिक बेचैनी,झुंझलाहट और मन की अशांति हॉर्न बजाने में जाहिर होती है। जैसे नाकामयाब आदमी में इतमीनान,ठहराव का अभाव हो जाता है,हड़बड़ी ,जल्दबाजी और जोर बोलना उसकी आदत में शुमार हो जाता है,ठीक वैसे ही।यह भी संभव है कि इस जल्दबाजी, हड़बड़ी की वजह से इतमीनान के अभाव में ही वो पिछड़ जाता हो। बात दोनों तरफ से सही हो सकती है। कार्य-कारण सिद्धांत का चकरघिन्नी पेंच। कोलकाता में 40% लोग आंशिक बहरेपन के शिकार हैं, या इस व्याधि को एक्सपोज्ड हैं।अपोलो अस्पताल के ऑडियोलॉजिस्ट डाक्टर सोमनाथ मुखर्जी से पूछिये तो चौंकाने वाले तथ्य बतायेंगे।
कोलकाता में हॉर्न बजाने के खिलाफ काम करने वाली संस्था ‘पब्लिक’ की श्रीमती बनानी कक्क्ड़ बताती हैं कि ट्राफिक अनुशासन के अभाव में ,चूंकि ‘लेन सेंस’ कम है,अत: हर ड्राईवर आतंकित रहता है कि कहीँ से कोई गाड़ी अचानक उसके रास्ते में आ जायेगी,इस आशंका से बचने के लिये वह लगातार बेवजह हॉर्न बजाता चलता है। और इस विशियस चक्र में हम सबका जीवन दुश्वार बनाते चलते हैं। एक 20 साल के नौजवान ने दिलचस्प वाकया बताया कि असली गुनहगार ड्राईविंग स्कूल हैं। जो पहले ही दिन यह समझाते हैं कि ड्राईविंग में पैर हमेशा ब्रेक पर होना चाहिये और हाथ हमेशा हॉर्न पर। उनके आगे कोई दलील नहीं चलती,अपनी समझदारी पर वे मुतमईन हैं। वे यकीन नहीं करते कि इसी कोलकाता में ऐसे चालक भी हैं जिन्होंने पिछले बीस बरसों में कभी हॉर्न नहीं बजाया ,इससे उन्हें कभी देर भी नहीं हुई ना ही कोई काम छूटा। इस बात की ताईद श्री प्रदीप कक्क्ड़ से टॉलीगंज क्लब में कभी भी कर लें। ‘पब्लिक’ संस्था ने एक कैम्पेन चलाया जिसमें पुलिस की मदद से स्कूली छात्र-छात्राओं ने स्कूल,अस्पताल के आगे प्रदर्शन किया,परचे बाँटे, ‘नो हॉर्न’ की तख्तियाँ दिखायी। पुलिस ने कई ड्राईवरों का तत्काल फाईन भी किया। लेकिन प्रदर्शनकारियों का मजाक भी कम नहीं उड़ा।
हाल ही में कोलकाता पुलिस ने इसे गम्भीरता से लिया है।पूर्व कमीश्नर श्री गौतम मोहन चक्रवर्ती के तो नये साल की प्रतिज्ञा में शामिल था-कोलकाता को ‘हांक मुक्त’ करना। पुलिस ने इस बाबद सैकड़ों बोर्ड भी लगाये हैं। एक अफसर ने बताया कि हमारी सारी उर्जा-ध्यान सड़क पर वाहनों का जाम निबटाने में चली जाती है,प्राथमिकताओं में दूसरी बातें आ ही नहीं पाती। पर सख्त कारवाई भी जरुरी है। केवल अवेयरनेस के भरोसे नहीं रहा जा सकता। वैसे तो कानूनन सौ रुपये के स्पाट दण्ड का प्रावधान है,लेकिन इसके आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखते इसे 10-20 रुपया भी किया जा सकता है,कुछ नहीं तो दोषी वाहनचालक को दस –बीस मिनट का डिटेंशन दिया जा सकता है। ताकि यह संदेश दूर तक फैले। ‘साईलेंस क्षेत्र’ स्कूल अस्पताल,रिहाईशी इलाकों में तो कड़ी कारवाई होनी ही चाहिये।
पिछली सरकार की एक खास उपलब्धि यह रही कि उन्होनें यह पक्का विश्वास दिल में बैठा दिया था कि कुछ नहीं हो सकता, चाहे वह बेहाला, टालीगंज का जाम हो,मच्छरों का उत्पात या कि अन्य कोई भी नागरिक सुविधा। पर नई सरकार के आते ही बेहाला की सड़क जादुई तरीके से खुल गयी। बेहाला के राहगीरों के लिये यह चमत्कार है। अगर पटाखों पर प्रतिबंध सम्भव है,रेल में धूम्रपान पर लगाम लग सकती है.माईक का बजना नियंत्रित हो सकता है,तो हॉर्न पर भी रोक संभव है। इसके कुप्रभावों की जानकारी,सभ्य समाज के तौर तरीके याद करें तो समझदारी से राजनैतिक इच्छाशक्ति भी आ जाती है। प्रशासन अगर इस पर गम्भीरता से सोचे तो बूढे,बच्चे,छात्र,बीमार और मानसिक असंतुलन वाले बच्चों की दुआ उन्हें मिलेगी। सभ्यता का पैमाना यह भी है कि आप अपने बूढे,बीमारों,बच्चों,कमजोरों का कितना ख्याल रखते है।
रोग के उपचार के दो तरीके हैं। एक में रोग की जड़ पर प्रहार किया जाता है,दूसरी पद्धति उसके लक्षणों को दबाने में कारगर होती है। दोनों विधियाँ सर्वमान्य हैं। एक समाज वैज्ञानिक का कहना है कि कोलकाता में हॉर्न बजना बंद हो जाये तो यहाँ की फितरत भी परिवर्तित हो जायेगी। इसकी जरुरत आन पड़ी है ।
***
No comments:
Post a Comment