Friday 9 December 2011

majoritarianism

प्रभात वार्ता में प्रकाशित 19.11.12
Majoritarianism:
बहुमतवाद एक राजनैतिक मत है,जिसका मानना  है कि बहुमत(यह धर्म,भाषा,सामाजिक  वर्ग  या  अन्य  किसी  भी आईडेंटिटी फैक्टर के आधार पर हो सकता है) को विशेषाधिकार  प्राप्त होते हैं, जिसके आधार पर यह हक बनता है कि वे सामाजिक मसलों पर निर्णय ले सकें।
इस विचार की तीव्र  आलोचना  भी  बहुत है जिसका मानना  है कि बहुमतवादी मत(संसद) नागरिक के फंडामेंटल अधिकारों  का  हनन  नहीं  कर  सकती। ये  अधिकार  बहुमत-अल्पमत  के  परे  हैं।
यह  बहुमतवाद ‘बहुमत निर्वाचन’ प्रणाली  से  भिन्न है,बहुमत प्रणाली  से  चुने  गये  दल को संसद   नेता  या  मंत्रिमंडल बनाने  का  हक देती है। इसे  बहुमत  की  संसद  कहते हैं।
लोकतंत्र  में  कोई  भी  बहुमत  अल्पमत  को  बाहर  नहीं  कर  सकता।यह बुनियादी बात है।
बहुमतवाद के  विरोधी  इसे श्लेष  में भीड़तंत्र  कहते  है जो युनिकैमैरिज्म और युनिटैरिज्म से बहुत नजदीक है  या  बहुमत  की  निरंकुश  सत्ता (tyranny of majority) । इसका इस्तेमाल बहुमत अक्सर अल्पमत को दबाने –कुचलने के लिये करता है। कभी-कभी यह बहुमत भी नहीं होता केवल प्रभावी या ‘लाउड’ अल्पमत होता है जो साईलेंट और इनएक्टिव  बड़े दल को सताता है। यह बात लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है। डेमॉक्रेसी(केवल बहुमत) को मॉबोक्रेसी से भिन्न होने के लिये पहले क्वालीफाईड(इंक्लुसिव) डेमॉक्रेसी होना होगा फिर इंटेग्रेटिव डेमॉक्रेसी की तरफ कदम बढना चाहिये।
बहुमतवाद  के  समर्थकों का  कहना  है  कि  यह  सीधे  लोकतंत्र  से  जुड़ा  मामला है और  इसे पलटने-नियंत्रित  करने  की  कोई  भी  कोशिश सीधे  अलोकतांत्रिक  है।
विद्वानों का मत है -जहाँ  कहीं  संविधान इसमे अड़चन –बाधा(टकराव)  पैदा  करे तो  पुरानी  बहुमत को नये  बहुमत  पर  ज्यादा  तरजीह देनी  चाहिये।  ऐसी  विकट स्थिति   में आज  की  मौजूदा  बहुमत  भविष्य  के  बहुमत  को  स्थगित  नहीं  कर  सकता।(संभव है  भविष्य  में  यह  बहुमत  न  रहे,आज  की  माईनॉरिटी  इतने  लोगों  को  प्रभावित  कर  ले  कि आज की  मैजॉरिटी  कल  कायम न रहे ।या फिर किसी हैपेनिंग से हालात ही बदल जायें)
इस  तरह  तो  एक  समय  की  मैजॉरिटी  दूसरे  समय  की  मैजॉरिटी  से  स्थानच्युत  होती रहेगी।जो काम्य नहीं है।
इतिहास  में  मैजॉरिटी  शासन  के  उदाहरण  कम  है। कुछेक  उदाहरण स्वरुप अथेनियन और  प्राचीन  ग्रीक  शहर-राज्यों के  नाम  लिये  जा  सकते  है। कईयों  का  मानना  है  कि  ये भी  बहुमत  शासन की  मिसाल  नहीं  क्योंकि  तब  स्त्रियां,भूमिहीन  और  गुलामों  को  इसमें  शामिल  नहीं  किया  जाता  था।
                                                                   
ज्यादातर  दिग्गज  दार्शनिकों ने मैजॉरिटी शासन  को संदेह  से  देखा  है, उनके  अनुसार  अशिक्षित या/और असूचित(अनइंफॉर्म्ड ),सिर्फअपने इमिडियेट हित समझने वाली जनता  के  निर्णय बुद्धिमतापूर्ण और  न्यायपूर्ण नहीं  भी  हो  सकते(न्याय  एक तकनीकी और  पेचीदा  मामला है-स्पेशिलाईजेशन का।) इसे  सीधे गिनती  से  नहीं  जोड़ा जा  सकता। इस  संदर्भ  में  प्लेटो का नाम  सर्वोपरि  है जिनकी  किताब  ‘रिपब्लिक’ में शासकीय  माडल का  तीन  बहुस्तरीय विभाजन  किया  गया  और  श्रेयस्कर  भी  बताया  गया। (ये बहुस्तर अपने संसद और न्यायपालिका,कार्यकारिणी से मिलती-जुलती सी है।)
अंथ्रोपॉलॉजिस्ट डेविड ग्रेबर तर्क देते  है  कि  मैजॉरिटैरेनिज्म  कभी  कायम और  लागू  नहीं  होता क्योंकि  इसके  लिये  दो  बाते  जरुरी  हैं- 1.यह  मानना  कि  ग्रुप  निर्णय  में  सभी  की भागीदारी  बराबर है 2.यह  निर्णय  जबरदस्ती  भी  हासिल  किया  जा सकता  है। 
अतः इन  दोनो  की  एकट्ठे  होने  की  संभावना नहीं  बनती।
धर्म  के  मामले  में  यह  समस्या  कई  बार सामने  आयी  है। पश्चिमी  देशों  में क्रिसमस  का  दिन  कानूनी  छुट्टी होती  है,इस  त्यौहार  को  सरकारी  इमदाद  भी  मिलती  है। 1960  के  दशक में  यह ‘मैजॉरिटैरिनिज्म’ तीखे  आक्रमण  से  घिर  गया। लिबरल  द्वारा किये  गये  एक  मुकदमें  में  सुप्रीम कोर्ट  ने  माना  कि स्कूलों  में  गाई  जाने  वाली  प्रार्थना(प्रेयर) गैरकानूनी  है,पब्लिक प्रापर्टी और प्लेस  पर इसका  कोई  भी  प्रदर्शन असंवैधानिक  है।  यही  निर्णय  अंग्रेजी बोलने  वालों  के  साथ  हुआ। और  लगभग  सारी  सुविधायें  अन्य  भाषाओं (स्पानी  सहित)  को  दी  गई।  हालाँकि इनके बरतने वालों की  संख्या  बहुत  ही  कम  थी।
इससे  प्लुरलिज्म का  जन्म  हुआ जिसे  मल्टिकल्चरिज्म भी  कहा  गया। विलमॉट  रॉबर्टसन की  किताब ‘डिस्पॉजेज्ड मैजॉरिटी’    इसकी
गहरे  पड़ताल  करती  है। इसके  लिये\खिलाफ बहुमतवादियों  ने  इसे बल्कानाईजेशन कह कर  इसकी  खिल्ली  उड़ायी  दूसरी  तरफ मल्टिकलचरिस्ट इन्हें रेसिस्ट और  जेनोफोबिक  बताते  है।

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