मिलो न तुम तो हम घबरायें, मिलो तो आंख चुरायें... * विजय शर्मा
यह एक अजीब स्थिति है। वामपार्टियों से बुद्धिजीवियों की नाराजगी चल रही है। वामपार्टियों की ज्यादतियों,लोकतंत्रहरण,पार्टी से समाज को अपदस्थ करना,अपने चहेतों (अयोग्य होने पर भी) की ताजपोशी इत्यादि ऐसे आरोप हैं,जिनसे वामपंथी सरकारें बच न सकीं और अंतत: उन्हें सत्ताच्युत होना पड़ा। इस परिवर्तन को त्वरित करने में विशेषकर वाम मन वाले बुद्धिजीवियों की सर्वाधिक सक्रिय भुमिका रही। यह पश्चिम बंगाल ,केरल से लेकर सारी दुनिया में हुआ। युरप,रुस में भी तानाशाही कम्युनिष्टों की खिलाफत सबसे पहले और सबसे ज्यादा वो करते रहे,जिन्हें वाम ही माना जाता है। ऐतिहासिक कारणों से वोट की राजनीति में वाम थोड़ा कमजोर है। और इस ऑफीशियल वाम से नाराज विचारकों,नागरिक संगठनों,मानव अधिकार कार्यकर्ताओं और पर्यावरण प्रिय लोगों की तो अपने यहाँ चुनाव लड़ने-जीतने की हैसियत ही नहीं बनी। यह तबका वाम को सैद्धांतिक चुनौती दे सकता है, इन पर नैतिक सवाल खड़े कर उसकी विचारधारा या कार्यक्रम को सकते में डाल सकता है। पार्टी की मॉरल अथारिटी इस प्रेशर ग्रुप के सामने बेबस हो जाती है। और आखिरकार कोई दूसरा ग्रुप-पार्टी चुनावी फायदा ले उड़ता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि किसी के अपदस्थ होने पर जो दूसरा ग्रुप या दल सबसे अॅरग्नाईज्ड होगा फायदा उसे ही मिलेगा। इसपर ज्यादा जी छोटा कर कोई लाभ नहीं। इसके साक्ष्य फ्रेंच क्रांति से रुश से लेकर अपने यहाँ तक देखे जा सकते हैं।यहाँ तक तो ठीक है,अजीब स्थिति इसके बाद शुरू होती है।
ज्यादातर वो वाम मन वाले, जिन्होनें पिछली वामपार्टियों का गढ तोड़ने में साहसिक और अहम भूमिका निभायी, दरअसल वामपंथ को थोड़ा सुधार-बुहार कर वापस लाना चाहते हैं। नई सरकार से उनकी मित्रता ज्यादा दिन निभ नही पाती। ऐसे में सवाल यह है कि ये लोग वामपंथ को इतना कनसेशन\रियायत क्यूँ देना चाहते हैं। कि यह थोड़ी रद्दोबदल सुधार-बुहार के साथ वापिस सत्ता पर काबिज हो जायें। यह मश्विरा कि वाम अगर अपनी ज्यादितियों,लोकतंत्र विरोध,पार्टी को ही समाज मानने की प्रवृत्ति,अयोग्य चहेतों को चढाना-बढाना, से अगर बाज आ जाये तो इसे वापिस लाया जा सकता है। क्या कोई कहेगा कि पूंजीवाद अपने लालच-मुनाफे को थोड़ा कम कर दे,थोड़ा शील और संयम अपना ले तो इसमें भी कोई बुराई नहीं। याकि हिंदूत्ववादी पार्टीयाँ, क्षेत्रीय दल थोड़ी उदारता दिखाते थोड़ी सेक्युलर रंग-पुताई कर लें तो वाजपेयी ,आडवाणी भी किसी से कम योग्य और काम्य नहीं। यह छूट अन्य किसी दल को नहीं दी जा सकती तो फिर कॉपी जाँचने में इतनी ढिलाई-छूट नरमदिली और ग्रेस नम्बर का प्रावधान का फायदा वाम को क्यों मिलना चाहिये? यह तो सरासर तौल में दंडी मारने जैसे हैं।
सारी दुनिया में अरब मुल्कों से लेकर वालस्ट्रीट तक की खबरें साफ नहीं हैं। जिन सरकारों को 6 महीने पहले तक अवैध घोषित किया गया वहाँ नये आये नेतृत्व की साख भी धूल चाट रही है। सारे मुल्क उसी घमासान से गुजर रहे हैं-अब भी। शायद थोड़े ज्यादा ही बदहवास और दिशाहीन। ‘वाल स्ट्रीट को दखल करो’ का नारा भी अब तक समझ के बाहिर है,और अपने-अपने रुझान से कयास लागाये जा रहे हैं। ग्रीस, स्पेन, आयरलैंड, पुर्तगाल और ईटली दिवालिया होने के आखरी कगार पर खस्ताहाल हैं। जनता सड़कों पर आ गयी है-यह सब पूंजीवाद के विरोध में है या सरकारी नौकरियों के संकोचन के खिलाफ या स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे सामाजिक महत्व के क्षेत्रों में आर्थिक कटौती के खिलाफ,आस्टरिटी मेजर(कमखर्ची) के खिलाफ या कि केवल बेकार मनचलों, हिप्पी किस्म के ठाले बैठे लोगों की भीड़ है,इस पर अलग-अलग मत हैं। सबसे रोचक तथ्य यह भी कि यहाँ कई सारी जगहों पर ‘समाजवादी’ रुझान की सरकारें हैं और जनता के गुस्से के निशाने पर समाजवादी नेतृत्व भी है। स्पेन में तो सीधे समाजवादी सरकार थी। डूबती अर्थव्यव्स्था को सम्हालने हेतु सरकार खर्चों मे कटौती करने को मजबूर है। जाहिर है सरकारी खर्चों में कटौती- मतलब वेतन,पेंशन,भत्ता,इंक्रीमेंट और सामाजिक क्षेत्रों स्वास्थ्य शिक्षा के खर्चे में कटौती। इससे कमजोर तबका परेशान और प्रभावित है। नये टैक्स लगाने की कारवाई पर मध्यम वर्ग (जो टैक्स देता है) भी नाराज है। इस तरह सरकार दोनों तरफ फँसी हुई है। पहले कहते थे,अच्छी इक्नामिक्स ही अच्छी पॉलिटिक्स है,अब कहते हैं,बुरी (अलोकप्रिय) इक्नामिक्स, अच्छी पॉलिटिक्स(लोकप्रिय) है। यह भी समाजवादियों और पूंजीवादियों(वे खुद को उदारवादी और लोकतांत्रिक कहते है) में टकराव का एक पुराना मुद्दा है।
अपने यहाँ से समझना चाहें तो गुजरात, पंजाब, हरियाणा जैसे (अ)समाजवादी प्रदेशों की तुलना पश्चिम बंगाल, बिहार या पूर्वांचल जैसे जनवादी- समाजवादी प्रदेशों से कर सकते हैं। जनवादी प्रदेशों की सरकार गरीबों की हमदर्द है,मजदूर किसानों की खैरख्वाह हैं लेकिन इनकी अंटी में इतना पैसा नही है या फिर इसके अभाव में कोई ऐसी योजना भी नहीं है कि बगैर पैसों या कम पैसों में कमजोर तबके को कैसे खुशहाल बनाया जाये। दूसरी तरफ गुजरात, हरियाणा, पंजाब की सरकारें उद्योग-उद्यम को बढावा देती है,इंटरप्रेन्योरशिप को केंद्र में रखती हैं। जिससे तात्कालिक रुप से मजदूर- किसान-गरीब की थोड़ी अनदेखी भी होती हो। पर चूंकि समाज की सम्पन्नता बढती जाती है,तो यह गरीब तबका भी लाभान्वित होता है। इस लाभ के पैसों का उपयोग सामाजिक क्षेत्रों में होता है,मसलन सड़क,पानी , बिजली , स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजलीघर। जिससे वह गरीब भी लाभ पाता है,और वैसा गरीब नहीं रह जाता। एक सर्किल अॅटोमेटेड होता है जहाँ ‘फ्लाईव्हील’ यानि विकास का बड़ा पहिया स्पीड पकड़ लेता है जिसकी हवा सभी को मिलती है। इसे यूँ समझें कि कोलकाता में डायमंड हार्बर रोड अगर दुरुस्त हो, तो सागर-आमतल्ला का गरीब 60 कि.मी. का सफर कर रोज शहर आ सकता है-- दिहाड़ी करने, चने बेचने। लेकिन अगर सड़क सफर में ही 4 और 4 घंटे लग जायें तो वह इससे वंचित रहेगा। क्योंकि रोज की आवाजाही का कष्ट उसे इस लायक न रखेगा कि वह इसकी सोच भी सके। ये दो विचारधारा हैं जिनकी प्रतियोगिता 100 सालों से चल रही है। दोनों के अपने तर्क हैं। लेकिन प्रमाण के लिये समाजवादियों के पास उदाहरण इक्का-दुक्का ही हों ,वहीं लोकतांत्रिक, उदारवादी, बाजारवादी(जिन्हें दवाब बनाने और चिढाने के लिये पूंजीवादी कहा जाता है) धारा के पास ऐसे समाजों की लम्बी फेहरिश्त है।
फिर कहूँ कि:
1.अगर ‘लालच’ पूंजीवाद में अंतर्निहित है , तो समाजवाद के सर पर भी ‘डाह’ सवार है...
2.अरस्तु ने सही कहा कि ‘सम’ अवस्था उन दोनों अतिरेकों के मध्य विराजती है ,जो दोनों ही दोषपूर्ण हैं...
vsharma61@rediffmail.com
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