Sunday 19 February 2012

आखिरी मुलाकात की हड़बड़ी : अनय जी की स्मृति में


                       
                 आखिरी  मुलाकात  की  हड़बड़ी              
अनय  जी  को  याद  करते हुये  यह लिखने  का कोई अर्थ  नहीं  बनता कि वे  कितने  अच्छे  इंसान थे,,मुझे  कितना  चाहते  थे,हमलोगों  के  कितने  घनिष्ठ थे। किन-किन  से  उनके  दोस्ताने थे,किनसे  वे  नाराज  रहते थे।क्योंकि ज्यादातर  सम्पर्क –सम्बंध इसी ढर्रे के  होते  हैं,फिर  पढने-  लिखने में  रुचि  रखने  वाले विचारशील,सामाजिक सरोकार  रखने  वाले  गृहस्थों और  देश  दुनिया के हालात  पर  दुखी  रहने  वाले  चित्तधर क्योंकर अलग  हों  भला।
हर  आदमी यूनिक होता  है,यह  जैसे  सही  है,वैसे  ही  यह  भी  उतना  ही सही  है  कि  हमसब  एक  से लोग,एक  सा  जीवन  जीते  हैं।एक  सी चिंताओं  और सरोकारों  में  फंसे  होते  हैं। एक  ही  सी  लालच,पद-प्रतिष्ठा,अच्छा  जीवन, सम्मान,  मैत्री और  प्रेम  की  तलाश  में  भटकते हैं-आजीवन।  चूंकि  हर कोई बढिया  मैत्री,प्रेम  और  सम्मान  की  तलाश  में  मुब्तिला होता  है,अत: यह  भीड़  अधिकाधिक  इसके  अभ्यर्थियों की  भीड़  बनती  जाती  है,जहाँ हर  कोई  इसे  पाना  चाहता  है,और  इसे  देने  वाले  (गुण)ग्राहक  कम  बचते  हैं।
हर  मौत  यूँ  तो  कुछ  सिखा जाती  है,आँखों में  उँगली डाल  कर। लेकिन  आस-पास की  मौत  ज्यादा  प्रभावित  करती है।अगर  आप  खुद  को  थोड़ा  भी  सामाजिक  सम्बंधों  से  सम्बद्ध और  संपृक्त मानते  हैं,तो  यकीन  करना  ही  पड़ता  है  कि  जिस  लाईन  में  आप  खड़े हैं,उसी  पंक्ति में  कोई साथी-सिपाही  खेत  रहा। फौजी  जानकारी  वाले बताते हैं  कि  लड़ाई  के  वारजोन  में  देशप्रेम,विदेशनीति और राजनैतिक-सामाजिक मुद्दों  से  अधिक  विचलन इस  बात  से  होता  है कि  अपनी टुकड़ी  का  कोई  साथी  खेत  रहा। और  इसी प्रेरणा, गुस्से,बदले  की  भावना से  उनमें जोश  भर  जाता है। इसे  ही  कामरेडरी कहते  हैं। जिसके  साथ  आपने सबेरे  चाय  पी  हो,जिससे  आपने  कल  अपने  सिरहाने  का  तकिया सांझा किया  हो,जिसने आपकी बेल्ट  कसी  हो,और  आपके  हैट-हेलमेट को  ठीक  पोजीशन  किया  हो,उसका  चले  जाना  सचमुच  चोट  करता  है। शायद  यही  वजह  हो  कि फौज,  संघर्ष  के  मैदानों  और  जेल  में  साथ  रहे  लोगों  की  दोस्ती कुछ  लग  किस्म  की  पक्की  सी  होती  है।
अनय  जी  हिंदी  के  अध्यापक  रहे,अध्यापकों  के  संगठन  से  भी  जुड़े  रहे। ठीक-ठाक स्वास्थ्य  में  रिटायर  हुये।  पारिवारिक दायित्व भी लगभग  सम्पन्न हो  चुके  थे। सुनते  हैं  कानपुर में  एक  घर  भी  बनाया। आम दृष्टि में  वे  सफल  जीवन  जी चुके  थे। रोग-भोग  भी  बहुत ज्यादा  न   झेला  था।
मैं  कभी  उनके  घनिष्ठ  रहा  या  नहीं  ,पता  नहीं। लेकिन  मिलने  पर  वे  हाथ  मिलाते  थे,अपनी  या  दूसरे  की  किसी  तल्ख  चुटकी  पर  जोर  से  गुड़ुप मार  कर  हँसते थे। हर  सभा  के  बाद  कुल  जमा 15-20  लोगों  में(हिंदी  सभाओं  की  यह  रिकार्ड  उपस्थिति है,कोरम  तो 5-6 में  ही  माना  जाता  है),जो  5-6  की  दो  तीन  टोलियाँ  बनती  थी,जो सभा  से  निकल  कर बाहर खड़े-खड़े कहीं  चाय  पीते,सिगरेट  सुलगाते,एक  छोटी  सभा  और फुटपाथ  पर  कर  लेते,हमलोग  हमेशा  इसमें  अनय  जी  के  साथ ही होते।इस  जरिये  हमलोग  उनकी  भविष्य की  योजनाओं,रुपरेखाओं  के  सक्रिय  सहभागी  भी  होते  ।
उपर  से  वे  बेहद  शांत दिखते लेकिन भीतर एक  बेचैनी उन्हें  कचोटती  रहती।यह  कोई  निजी  बेचैनी  नहीं  थी।हिंदी  भाषियों  की  बात  उठाने  वाले  अनय  जी  शहर  में  पहले  आदमी  थे।जाहिर  है  इसके  लिये  उन्हें  वाम,प्रगतिशील-सेक्यूलर  पार्टीलाईन  मैनीफेस्टो से  बाहर  आना  होता होगा। इसके अपने  खतरे  भी  होंगे। माना  के  ये  खतरे  जान-जोखिम  और  गेस्टापो काल  से  नहीं  होंगे,लेकिन  शहर  कोलकाता  में  ये  कम  भी  न  थे। खासकर जहाँ  आदमी का  पूरा  बैकअप ही किसी छोटी  कमेटी,किसी  लघु  यूनियन,किसी  सीमित, एकांगी, विलुप्तप्राय विचार के इर्द-गिर्द घूमती  हो। जिनकी  कुल  सदस्य संख्या 20-30 पार  नहीं कर  पाती,ऐसे  में  अपने  इस  छोटे  ग्रुप को  नाराज  करने का  जोखिम  उठाना साहसिकता ही  मानी जायेगी।ये  सवाल रुबरु होते  ही  न  जाने  क्यूँ  जेहन  में  रामविलास  शर्मा की  तस्वीर  आ  जाती  है।
जानते  हैं,अनय  जी  अतृप्त गये।  यह  अतृप्ति  क्या  थी? वे  पत्रिका  निकालना चाहते  थे।  64  पेजी  साल  में  तीन। जिसका कुल  खर्च 20हजार बनता  है,प्रति  अंक सात  हजार  से  कम। वे  बैठने  की  एक  जगह  चाहते  थे,कोई  झन्नाटेदार दफ्तर  नहीं,बल्कि  हिंदी  पत्रिका  निकालने  और   मित्रों  और विद्वानों  से  मिलने-जुलने  लायक एक  अदद  कमरा-कोठरी।  जहाँ  पानी और  पेशाब  की  व्यवस्था  हो  ,जहाँ चाय बनायी  या  मँगवायी जा  सके।
वे  टीचर  फ्रंट  के सक्रिय नेता  थे। सरकार के  ओहदेदारों तक  यह  अर्जी-गुहार  पहुँचा  सकते  थे। शायद अर्जी  दी  भी  हो। भारतीय  कम्युनिष्ट  पार्टी ,माकपा की  बड़ी  घटक  है,जिसने 34  साल  यहाँ  राज  किया। आज  भी  सारे  प्रतिष्ठान,विश्वविद्यालय,पत्रिका,विचारमंच  उनके  दखल में  हैं।वे  प्रगतिशील लेखक  संघ  को  सक्रिय  देखना  चाहते  थे। कभी-कभी  इस  प्रण-प्रतिज्ञा को  दोहरा  भी  देते  थे  कि  मैं प्रलेस  को  दखल करने  वाला  हूँ।यह  उनका  स्वाभाविक हक  था जिससे वे  लगभग  बेदखल  और  खारिज किये  गये।उनकी  पत्रिका  तीन  सालों  से  तैय्यार थी। विमल  वर्मा  का  भी  इसमें  आधा सहयोग  रहा। लेकिन  पत्रिका  निकल  नहीं  पायी। कई  रचनाकारों ने  नयी  रचनायें भी  दीं,जिनका  समय  रहते  उपयोग  न  हो  सका,इससे  वे  क्षेंप भी  महसूस  करते थे। निष्ठावान परंतु पराजित व्यक्ति का गुस्सा ,खीझ  उनमें  इन दिनों दिखती  थी।
यह  कैसा  निष्ठुर  समाज है,खासकर  पढने-लिखने  वाले  विचारशीलों का ,जो  अपने  गैरतमंद  साथी की  सत-ईच्छा की  कद्र  न  कर  सके,इतना  सहयोग  समर्थन  भी  न  दे  सके  कि  70  पार  का एक ईमानदार विद्वान एक  64  पन्ने  की  पत्रिका  न  निकाल सके। ऐसी  पार्टी,ऐसा  शहर,ऐसा  लेखक  वर्ग –इसे  क्या  लानत  दी  जाये !
सर्वाधिक  नाराज  जिनसे  थे  ,वे  सारे  उनके  अपने लोग  थे।  उनकी राह  में  रोड़ा  अटकाने  वालों  में  कोई  भी  दूसरा न  था। कैसी  विडम्बना  है  कि  अपना शहर, अपनी  भाषा बंधुहंता बन  गई  है।  समकालीन  मित्र-रचनाकार एक  दूसरे के  बारे  में  मुँह  नहीं  खोलते और  खोलते  हैं  तो कच्चे  चिट्ठे  का  काला  रजिस्टर उड़ेल  देते  हैं। फिर  कभी  इसी  क्रम  में  घायल  और  चोटिल होने का  रास्ता भी  बना  जाते  हैं।
जंगल  की  बीहड़  ट्रेकिंग  जिन्होंने  की  है,वे  पहला  सबक  यही  सीखते  हैं  कि ग्रुप  के  साथी  की  जान  तुम्हारी  जान  से  ज्यादा  जरुरी  है। इसी  आधार  पर  अपने  साथी  को  सुरक्षित  और  सम्मानित  करते  आप  भी  सुरक्षित  होते  हैं। और सिर्फ खुद को  बचाने  के  चक्कर  में सभी  अकेले  पड़ते  हैं,और  सब  का  शिकार  होता  है।
अब  जो  बुजुर्ग  हमारे  साथ  हैं,उन्हें  बुलाईये,उन्हें  सुनिये,उनसे  बात  करिये,60  पार  या  70  पार  के  लोग्,वरना  एक  इतिहास  स्मृति  में  संरक्षित  न हो  पायेगा।  लेकिन  यह  कैसे  सम्भव  हो जबकि  सारी  विचारधाराएँ,राजनीति मित्र  बनाने  से  दस  गुणा  ज्यादा फोकस शत्रु  चिन्हित करने में  लगाती  हैं।
किसी  ने  बताया  कि  हमारे  संताप  का  आधा  हम  यूँ  हासिल  करते  हैं  कि गलत लोगों  से  अपेक्षा  रखते  हैं,और  आधा  यूँ  कि  अच्छे  लोगों  में  मीनमेख  निकालने  में  लगा  देते  हैं।
अगर  मालूम  होता  कि  अनय  जी  ऐसे  चले  जायेंगे  तो  आखिरी मुलाकात में हम  हड़बड़ी न  दिखाते।  
                                  ***   

Tuesday 7 February 2012

अपनी खबर


                               अपनी  खबर                  *विजय  शर्मा
यह  जो  सिस्टम  के खिलाफ  आक्रोश  है,लोकतंत्र  के  अनिवार्य  अंतर्निहित संशय  हैं,क्या  इसकी कोई  छड़ी हमारी पीठ  पर  भी  पड़ती  है,इसका कोई  जूता  हमारे  सर  भी  चलता  है? या  यह  कोई  वायवीय वैश्विक किंवा सर्वभारतीय  सत्तावादी,अमरीकन  -युरोप ,साम्राज्यवादी षडयंत्र और  पूंजीवादी-मुनाफाखोर डिजाईन  भर  है? इन  प्रवर्त्तियों  का  हमारे  भी  मानस  पर  कोई  प्रभाव  है,हममें  भी  यह  व्याप्त  है,या  हम  इससे  सर्वथा  मुक्त  हैं- इसकी  भी  पड़ताल करनी  चाहिये। क्या  हम अपनी  गलतियाँ  न  देखें,हमारी  बेईमानियाँ,हरमजदगियाँ,धोखे, स्वार्थों पर  चुप  रहें?
हम  कैसे  ईर्ष्यालु,बंधुहंता,दम्भी,परिश्रमविमुख, चाटुकार,सेटिंगबाज,अंधविश्वासी ,जनविरोधी  और  राजनैतिक अंधेपन  के  शिकार शठ  हैं,इसका भी  खतियान  होना चाहिये।
हमारे  परिवार,स्कूल-कॉलेज,कारखाने,पत्रिकायें,संस्थान,मित्र मंडलियाँ-ग्रुप-गैंग,कितने  सरोकारी ,लोकतंत्रप्रिय,बंधुवत्सल,परोपकारी,कर्मठ और  प्रज्ञावान  हैं,इसकी भी  परीक्षा  होनी  चाहिये
हमने  पिछले  एक  साल  या  चार  साल में क्या  लिखा,क्या नया पढा,क्या  पाया,क्या   दाँव  पर  लगाया,वैचारिक  रुप  से  ही  हो-इसका  भी  खतियान जरुरी  है। इस  पढने-लिखने  का  ताल्लुकात कितना नितांत  निजी  है  और  कितना  सामाजिक?
1980 में  हमारा  जो  स्टैंड  था,वह  1990  में  क्या  रहा,फिर  2000-2010  में उसमें  कितनी  और  कैसी  तब्दिलियाँ  हुई,अपडेटिंग  हुई,इस पर  भी  गौर  करें।  युरोप की  चमक-दमक,सोवियत  का  टूटना, बर्लिन  की  दीवार  का  ढहना, तमाम  हिंदोस्तानी  राज्यों  में  सत्ता  दखल-परिवर्तन ,पिछड़ा,दलित ,वाम  ,भाजपा का  उत्थान-पतन  हमें  कुछ  सिखा  गया ,हमारी  बौद्धिकता  को  सर  के  बल  खड़ा  कर  गया  या हमें मजबूत  कर  गया,इसकी  खबर  लेनी होगी। हमारी प्रगति-दुर्गति  क्या है,कैसे  है,इसका  रोजनामचा टटोलना  चाहिये-कमसकम खुद  तो  देखें-भालें।
एक  प्रकार के बुजुर्ग विद्वान  हैं,कोलकाता  में,   जो  20-30  सालों  से रुढि  के  खिलाफ  ,धर्मनिरपेक्षता के  पक्ष  में,साम्प्रदायिकता के  विरोध  में सुलगते  सवालों  पर  अड़े  है। यह  वैचारिक  निष्ठा  है  या जिद्दी  मूर्खता? एक  दूसरे प्रकार के  विद्वान  हैं,जो जिस  शिद्दत  से  30  बरस  पहले  पार्टी करते  थे,आज  तक  उससे  टस  से  मस  न  हुए। यह  क्या  प्रदर्शित करता  है-ठहराव  या  कमिटमेंट। संकीर्णता या  विस्तार,दिमागी आजादख्याली  या  गुलामी  का  हठी गुमान?
मारवाड़ी  के  प्रति  बिहारियों  की,बिहारियों  के  लिये मारवाड़ियों  और  यूपी  वालों  की,व्यवसायी  के  लिये  सरकारी  कर्मचारियों  की, मास्टर  की  तंख्वाह  के  प्रति  अन्यों  के  विचारों में घृणा,द्वेष,संभ्रम,श्रद्धा,प्रेम,विस्मय,समझदारी का  ग्राफ  थोड़ा  भी  बदला  है  कहीं?
यह  सिस्टम  क्या  है? कौन  है? सिर्फ  गाली  देकर  छुट्टी  न  पायें। जिनके  घर  शीशे  के  हों  वो  दूसरों  पर  पत्थर नहीं  फेंका करते- यह  कहावत  पुरानी  होकर  मर  चुकी  है। अब  तो  शीशमहल  वाले  ही  ज्यादा  पत्थर  बरसाते  हैं,ताकि उनके  महल  सुरक्षित  रहें,कोई  पास  फटक  भी  न  पाये,उधर  ध्यान  ही  न  जाने  पाये। बंग्ला  में  कहते  हैं-चोरेर  मायेर  बड़ो  गला...(चोर  की  माँ  जोर  से  चीखती  है)। हम  कौन  हैं-साहूकार,चोर  या  चोर  की  माँ?
विधायिका ,अफसरशाही,न्यायपालिका का  क्रियान्वयन  किनसे  होता  है?  सचिवालय-दफ्तरों  के   बाबू-क्लर्क,अस्पताल के  मुंशी-डाक्टर,बैंक  के  कैशियर-मैनेजर,स्कूल-कॉलेज  के  मास्टर-टीचर...ये  सब  इस  सिस्टम  की  अभद्रता  के  शिकार-पीड़ित  हैं  या इसके  उत्प्रेरक?
पहले  सिस्टम को  रिग करके  नौकरी  हासिल  करिये,फिर  नौकरी  से  कभी  न  हटें  ,इसके लिये  आंदोलन  करिये।  इस  जबरई को  जो  विचारधारा  नि:शर्त समर्थन दे,उसके  प्यादे  बनिये। बड़ी  -बड़ी  पार्टियों  के  वाद यही  तो  कर  रहे  हैं। बोनस  ,भत्ते,राहखर्च  की  जुगाड़  में  डूबा सरकारी कर्मचारी  क्या  आदर्श  स्थापित  कर  रहा है?
शायद  पहली  बार  अन्ना  हजारे  दिखे,जहाँ वेतन  -बोनस बढाने का,काम  के  घंटे  घटाने  का,बिजली  और  टैक्स माफी  का,कम  नम्बर में  दाखिले का,हास्टल  और  कैंटिन को  सस्ता      करने या  रेल-बस  को  मुफ्त  करने  का  मुद्दा  पुरजोर  नहीं  है।
वरना  तो  राजनीति  और  साहित्य  दिते  होबे,दिते होबे...  का  पर्याय  हो  गयी  है।लंठई,लफुवागिरी,जबरई,संख्यातंत्र  के  नीचे  दबी  पड़ी  है-चेतना,न्याय,विवेक। फिर  इस  कुचक्र  में  वह  खुद  भी  दबता  जाता  है,कराहता  है,साथ  ही  इसी  सिस्टम  को स्वचालित  और  तेज  भी  करता  चलता  है।
किसी  विचारधारा (आइडियोलाजी)  की  कमसकम  दो  कसौटियाँ तो होनी ही चाहिये।पहली  यह  कि  इसमें  इधर-उधर की  आवाजाही  -आवागमन की  निर्दिष्ट शर्त हों। यानि  कि जिसे  हम  अन्य मानते  हैं,आर्थिक,सामाजिक  ,वृत्तिमूलक  कारणों  से,उस  दुश्मन  को  यह  पता  होना  चाहिये  कि किस –किस  परीक्षा  में  उत्तीर्ण  होने  पर  उसे मित्र माना  जायेगा । और  अगर इस  आवागमन  का  रास्ता  अवरुद्ध  है,तो  यह  वर्गविभाजन,विचारधारा एक  रुढि  से  अधिक  कुछ  नहीं।केवल  उकसावे  की वोट राजनीति  का हथियार,पिछड़ेपन  के  पक्काकरण  का  पैरोकार जो  अंतत: घृणा  और  एक्सक्लुजन के  हाईवे  पर  खत्म  होता  है।
दूसरी बात:  हर  संशोधन ,फटकार का  कुछ  प्रभाव हम  पर  भी  पड़ना  चाहिये। चाहे  वह  कमाई में  कटौती  हो,रुतबे  में  कमतरी  हो,अतिरिक्त संयम  की  माँग हो,या  फिर  हमारे  पद,प्रतिष्ठा,रुतबे,दक्षता,इफीसियेंसी ,कार्यशैली को ही  नियंत्रित,अनुशासित करती  हो-तब  तो  ठीक  है,  यह  क्या  संशोधन हुआ  कि मुझे  तो  इससे  फायदा  ही  फायदा मिले,मेरी  जिम्मेदारी  और  संयम की  परीक्षा ही न  हो,और  बाकी  सब  पर  कोड़े चल  जायें। इस  कसौटी के  अभाव  में फिर  यह  किसी अन्य पर  छोड़ा  गया कारतूस ही होगा ,जिसकी  क्रेडिबिलिटी कुछ  खास  नहीं  और  परिणाम संशयग्रस्त होंगें।
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Friday 27 January 2012

आबादी का झूठ-फरेब,published in prabhat varta 24jan,2012


                          
                       आबादी का  झूठ-फरेब    *विजय  शर्मा
भारत  की  आबादी 110 करोड़ से ज्यादा  है,और क्षेत्रफल करीब 33 लाख  वर्ग कि.मी। आबादी घनत्व निकालें तो 324 प्रति वर्ग कि.मी.। इतनी  बड़ी  आबादी का  भरण-पोषण  कैसे हो? यह  असम्भव  है,यह  मत  हर  भारतीय विद्वान बचपन  से जपता-गुनता  है। युनाइटेड किंगडम का क्षेत्रफल 2.5 लाख कि.मी. और  आबादी 6  करोड़। इसका जनसंख्या घनत्व भी भारत के  आस-पास  का  है-245. है  न  ताज्जुब  की  बात! उपर  से  वहाँ  के  कई  इलाके रहवास  के  लायक  भी  नहीं  हैं,प्राकृतिक  कारणों  से। जर्मनी  का क्षेत्रफल 3.5 लाख  वर्ग कि.मी  और  आबादी 8.24  करोड़। इसकी स्थिति इस  आधार  पर  हमारे  राजस्थान  से  खराब  है। जहाँ  की  आबादी 5.5  करोड़  और  जमीन  जर्मनी के लगभग  बराबर। जनसंख्या घनत्व 230 प्रति  वर्ग  कि.मी। फ्रांस  का  क्षेत्रफल 5.43  लाख  वर्ग कि.मी और  आबादी 6.65  करोड़। जापान  की  कुल  भूमि 3.77  लाख  वर्ग कि.मी वह  भी  समुद्र  से  चौतरफा घिरा  हुआ और  आबादी 13  करोड़।प्राकृतिक कठिनाईयों  की  कोई  बराबरी  नहीं,न  तो  जमीन  बढ  सकती  है,उपर  से  भूकम्प  के  झटके इसे  लहू-लुहान किये  रहते  हैं।  जनसंख्या  घनत्व  भारत  से  ज्यादा । है  न  अजीब  बात-–स्ट्रेंज  रिविलेशन । कम्युनिष्ट उत्तर कोरिया 1.20  लाख  वर्ग किमी पर  आबादी 2.3  करोड़,  जबकि दक्षिण  कोरिया कम  जमीन  1.00 लाख वर्ग कि.मी और  आबादी 4.8  करोड़,अपने  प्रतिद्वंदी से  लगभग  दुगना । यही  हाल  कल  तक  जर्मनी के दो  हिस्सों  का  था। एक  ही  जनता  को  विचारधारा  ने  दो  टुकड़ों में  बाँटा। समाजवादी  जर्मनी से  लाखों  लोग हर साल जहन्नुम से  निकलने  के  चक्कर  में  जन्नत  की  चाह  में प्राण  गँवाते थे। कभी  कोई  नहीं  मिला जो  इसके  उलट  भाग  कर  बर्लिन  जाना  चाहता  हो। लगभग  वही  कोरियाई  स्थिति,वही  समीकरण। भारत  में सबसे  जागृत  चार  प्रदेश बिहार ,बंगाल,उत्तर  प्रदेश  और  केरल  का  संयुक्त क्षेत्रफल 4.60 लाख वर्ग  कि.मी और  आबादी 36 करोड़। ज्यादातर  बुद्धिजीवि,राजनीति  के  चमत्कारिक पुरुष  यहीं  हुए।  गरीब  का  दर्द समझने  वाले,आम  आदमी,मजदूर की मान-मरजाद पर  मरने  वाले खैरख्वाह  यहाँ ज्यादा  हुये। यहाँ  की  राजनीति अब  भी  संघर्ष से  चालित  है। जाहिर  है  यही  सबसे  पिछड़े  इलाके  हैं। यह  संयोग भी  हो  सकता  है।  केरल थोड़ा  बेहतर  है तो  क्या इसलिये  कि  वहाँ  हर  पाँच  साल  में  सरकार  बदलती  रही,  इसलिये  वाम-पिछड़ा  या  हक  -मर्जाद  की  लड़ाई इतनी  तीव्र  कभी  न  हो  पायी। उपर  से  खाड़ी  देशों  से  आने  वाला  पैसा  जो  यहाँ  के  हिंदू,मुसलमान,ईसाई लाते हैं,यह  भी  वजह  हो।  वैसे गौर करें,  केरल कोई  औद्योगिक रुप  से  विकसित  राज्य  नहीं  है,इसकी  स्थिति  पश्चिमी उत्तरप्रदेश  से  मिलती  जुलती  है,जबकि विंध्याचल पार के दक्षिण  के  राज्यों  के  समकक्ष इसे  होना  चाहिये  था।
अब  कम  आबादी  वाले  राष्ट्रों  पर  भी  गौर  करें। ब्राजील 85  लाख  वर्ग कि.मी  भारत का ढाई गुणा,आबादी केवल 18  करोड़। चिली की  आबादी सिर्फ 1.60  करोड़,कोलम्बिया सिर्फ  4.3  करोड़।इनका  क्षेत्रफल  पश्चिमी  योरोप  के  देशों यू.के,जर्मनी,फ्रांस,स्पेन से  बहुत ज्यादा ,आबादी  बहुत  कम। जनसंख्या  घनत्व  तो  बहुत  पॉजिटिव।पर  यहाँ की  जनता  की  बदहाली एशियाई मुल्कों  जैसी  है।
अब  अफ्रीका  को  भी  याद  कर  लें। कांगों  का  क्षेत्रफल  भारत  से  20%  कम ,25 लाख वर्ग  कि.मी ,आबादी  केवल 6  करोड़,अपने  एक  मध्यम प्रांत  के  बराबर।इजिप्ट  भारत  का  एक  तिहाई ,आबादी  केवल  8  करोड़। लेकिन  इससे  इनकी  किस्मत  नहीं  बदली।
ईरान को  भारत  की  आधी  जमीन और  आबादी  केवल 7  करोड़। ईराक  उसका  भी  चौथा  हिस्सा  ,आबादी  केवल 2.6  करोड़ ।यहाँ  भी  ऐतिहासिक  करिश्मे और  संयोग से  तेल  निकला ,करीब  50  साल   पहले,और  उसी की  मलाई  खा  रहे  हैं।वो  भी  पहले  विश्व के  दुश्मनों को बेचकर। यहाँ कोई  कुशलता ,कारीगरी,उद्योग,जनतंत्र,नागरिक समाज नहीं  बन  पाया,जो  समृद्धि दिखती  है,वह  तेल  के  संयोग और  करिश्में पर  आधारित  है।जब  तक  चले...।
लीबिया का क्षेत्रफल भारत का  60% ,आबादी  केवल  58  लाख। मेक्सिको 10 करोड़,अर्जेंटीना  का  जनसंख्या सिर्फ 4  करोड़,  घनत्व  सभी  यूरोपीय देशों  से  बहुत-बहुत  अच्छा  है। लेकिन  इससे  क्या  हुआ? चीन  की  जनता ताईवान को  आँखें  फाड़-फाड़  कर  देखती  थी,50  सालों  तक। फिर  चीन  ने  भी  वह  राह  पकड़  ली। कोई  बताये  माओ त्से तुंग  बड़े  नेता  हैं  या  चियांग काई  सेक? दरसल  जनसंख्या कोई  समस्या नहीं  है। यह  तो  सर्वाधिक महत्वपूर्ण रिसोर्स  है-सारी  दुनिया में  यह  मान्य  है।
क्या  बात  है,कौन  सा  विलक्षण  तत्व  है  जो  किसी मुल्क  को  अगड़ा या  पिछड़ा  बनाता  है। मार-काट,दाँताकिलकिल में  फँसाता  है,या सुखी,सम्पन्न, समृद्ध करता चलता  है। यह  सम्पन्नता केवल  पैसे की  नहीं ,बल्कि  ज्ञान, सुनिश्चित  भविष्य,खुशहाली के  हर  पैमाने  पर -–यह  गौर  करने  वाली  बात  है। अगर  सुख-शांति,समृद्धि,गैरत पाना  हमारा  ध्येय है तो  इसे  खोजें,वरना फिर  अंधविश्वास के  पक्ष  में  दर्जनों तर्क है,सैकड़ों दलील-सूचनायें,हजारों विचारधारायें,बेहिसाब गवाह।
कोई  कह  रहा  था  कि गरीबपंथी,समतावादी, वामपंथी विद्वान मैथेमेटिक्स में  जीरो  पाते  हैं,पर  स्टैटिसटिक्स में  फर्स्ट क्लास।
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Wednesday 25 January 2012

75 पैसे की सुपर बालकनी से अनूठा नजारा: यह अहा! जिंदगी के विशेषांक में2000शब्दों मे छपा है।




कलकत्ता का नक्शा,शहर  की  झांकी-- श्री-श्री108  सह्र्दय कुलचूड़ कालीप्रसन्न सिंह की फटी  बिवाई  में रचनाकुसुम  का  चढावा:
1811 सन ,कलकत्ता में चारो दिशाओं  में  ढोल-ढमाका हो  रहा  है। चड़की की पीठ सर्र-सर्र  कर  रही  है,लोहार  का बान,बिल्ली,कांटा ,हंसुआ हाजिर  है-सर्वांग में गहना,पैरों  में  नुपूर,सर  पर  जरीदार  टोपी,कमर मे  बंधा  चंदरहार, ढाका  की फिनफिनी मलमल धोती  पहने,छापा  वाला  तारकेश्वरी   गमछा हाथ,विल्वपत्र बंधे सूत गले  मे  डाले  जितने छूंतर,ग्वाले,गंधी बनिये  और  ठठेरे बिसातियों  की  आनंद  की  सीमा  नही  है-आज  हमारे  मलकार  के  घर  गाजन  है।
कम्पनी  के  बंगाल दखल  के  कुछ पहले और नन्दकुमार की  फाँसी के  तनिक  पूर्व हमारे  बाबू  के  प्रपितामह नमक  के  दीवान थे। तब  नमक  की  दीवानी  में  मासिक 10  रुपये  पर  दाग  नहीं  लगता  था। अत: मरने  तक  हमारे  बाबू  के  दादाजी  लाख  रुपय्या जोड़- छोड़  गये-इसी  दरम्यान  बाबू  परिवार  की  गिनती  खानदानी रईस  में  होने  लगी। रईस खानदानी  होने  को  कलकत्ता  में  जो-जो  चाहिये  ,इनके  पास  सभी  का  इंतजाम  है। जैसे  एक  निजी  टोली,कुछ  बाभनों-पण्डितों  के  नालायक  छोकड़े,कुलीन  वंशज,छत्री,कायस्थ,वैद्य,तेली,गंधी बनिये,ठठेरे और  ढाका  के  लोहारों की  अनुगत सेना। घर  में  कोई तिथि-बार, क्रिया -कर्म  नागा  नहीं  होता। फी  बरसी    विलक्षण  बाभनों  को  कुछ  मिलता  है,वैसे  ये  साल  भर  भद्रासन  पर  विराजमान विग्रह ,शालिग्राम  शिला और  अकबरी  मोहरों  से  लदी-फदी  लछमी की  नित्य  अर्चना  करते  हैं। दूसरी  तरफ चूहड़े,चमार -  भंगी और  सभी  बज्जात पैरों  में  नुपूर,सूत  गले  में  डाले अपने  अपने  महत्व  और शौर्य  को  दर्शाते वाण  और बिल्ली  कांधे  पर  डाले नाचते फिरते  हैं,हर  घर  ,वेश्यालय  और  दारु  की  दुकान  के  आगे।
1965,कलकत्ता अड्डेबाजों  का  शहर  था,हर  पाड़े  में इसकी  नियोजित व्यवस्था  होती  थी।छोटी-छोटी  चाय  दुकानों; जहाँ  खस्ता-टोस्ट  बिस्कुट मिलता  था।  इन  दुकानों  का  कोई  नाम  या साईनबोर्ड  नहीं  होता था। मंटू  की  दुकान,गोबिंदो  के  दुकान। यहाँ  लकड़ी  की  बेंच  और  इक्के-दुक्के  टेबल होते  जिनकी  वय  मुअनजोदड़ो से  ज्यादा  होती,सबेरे-सबेरे  इन्हें  गरम  पानी  से  नहलाया  जाता,साफ  सफाई  पोंछा  भी  लग  जाता  और  छिपे हुये  कीड़ों  का  जनाजा  भी निकल  जाता। इसके  अलावा  कोई  दर्जी  की  दुकान  होती,  जिसका  नाम राजनैतिक  शब्दावली  से  मिलता -जुलता डेमॉस या  मैग्ना  कार्टा  सरीखा  होता। जो  अनायास  किसी  पार्टी के मुखपत्र का  नाम  भी  हो  सकता  था। मसलन  रिपब्लिक,नैशनल या ईस्ट बंगाल। यह  नाम  कोई  जाने  न  जाने,  सर्किल  के  लोग  जरुर  जानते।इनके  मालिक  अक्सर  मालिक न  हो  कर  असफल  राजनैतिक लोग होते,जो  राजनीति  कर  चुके  थे,पत्रिका  निकाल चुके  थे,जेल  जा  चुके  थे,या  फिर  असंख्य  देशी-विदेशी कविताओं  का  सस्वर  पाठ  कर  सकते थे।इन्हें  दुकानदारी की  चिंता  कम होती  और  ज्यादा  फिक्र  इसकी  होती  की  मेरे  अड्डे  की  इमेज  इलाके  में  कैसी  है?कहीं  प्रबुद्ध,प्रश्नाकुल  सीरीयस  जवान  होते,कहीं  उग्र  हिंसक  लड़के,कहीं खेल-कूद ,नाटक में  रमे स्टुडेंट। हर  मकान  के  आगे  एक  पक्का  चबूतरा  होता  जहाँ  शाम होते  ही अड्डेबाजियां  परवान  चढती। यहाँ बूढे,  वयस्क  और  नौजवानों के  अलग -अलग चबूतरे  होते  जिसे  लोकल  भाषा मे  रॉक  कहा  जाता।जो  ग्रुप  यू  ही  बेमतलब  बैठा  रहता ,जहाँ  कोई  महीन  बातचीत और  उग्र  विवाद  न हो,  उसे  तंज  में  रॉकबाज  का  उलाहना  सुनना  पड़ता । इन अड्डो  पर शाम ढले इक्का-दुक्का  शख्स ऐसे  आते  जो  कवि,  साहित्यकार, प्रोफेसर,  अध्यापक या  राजनीति से  जुड़े  लोग होते। इनके  हाथ  मे  कोई पत्रिका,किताब,  कविता-अनुवाद  जरुर  होती  जिसे  ये  उन  लड़कों  से  साझा करते।इन  अड्डों  के  ये  गुरु, पितृपुरुष और  गार्डियन  होते। इनके  घरों  में,गृहस्थी  में  इन लड़कों  का  अबाध  आना  जाना  होता। किसी  भी  दिन,  किसी  भी  समय। हमलोग  उसे  अपना  गुरु  मानते। इलाके  में  ग्रुप  की  पहचान उस  गुरु  से  लड़कों के रुप में  होती। दोनों  पक्षों  का  साझा गर्व,मान। ये  साधारण जीवन  जीते,घर  में  काली  चाय  पिलाते  कभी  एक  बिस्कुट्। लेकिन इतने  उदारमना,प्रभावशाली  और  सम्पर्क सम्पन्न  होते कि सारे  शहर  में,  हर  महकमें,मोहल्ले में इनका  कोई  साथी संगी  कद्रदान  और  शिष्य होता। टेलीफोन  ठीक  करवाने  से  लेकर,किसी  को  किसी  अपरिचित इलाके  में  ढूंढना  हो,किसी  स्कूल,  थाने,  अस्पताल  में  कोई  काम  हो,तो  इनके  नाम  से  आपको  वहाँ रेकोगनाईज  किया  जाता। इसी  तरह  के  रिफरेंश  से  आये  किसी आगंतुक  के  लिये  हम  भी  उसके  काम  में  जुट  जाते  और  किये  बगैर  न  लौटते। हालाँकि  ये  काम  अति  सामान्य  किस्म के होते,किसी  डाक्टर  से  मरीज  को  मिलवा  देना,किसी  स्कूल कॉलेज  में दाखिले  का  फॉर्म जुगाड़ देना।  किसी की  साईकिल  थाने  में  पकड़ी गयी  तो  उसे  छुड़ा लाना,और  किसी की  जेब  कट  गयी  या  साईकिल  चुरा  ली  गई  तो  उस  इलाके  में  तफ्तीश -कारवाई कर  उसे  हासिल करवा देना। थाने  में  भी  और  स्थानीय  लोगों  द्वारा भी। इन्हीं  लोगों  की  जान-पहचान  बंधुत्व के  विन्याश  पर  यह  शहर  खड़ा  था।कोई  पाड़ा  अपरिचित  नहीं,कोई  आदमी  पहुंच  के  बाहर  नहीं,पूरा शहर  अपना,हर ईलाके  में  यार-दोस्त।
ये  हर  बंगाली  पाड़ा की  बात  थी,जहाँ  सिगरेट पीने  किसी  रेलवे  स्टेशन  के  पास  जाना  होता।पहला  कश  न जाने  कितनों का ,किसी उजाड़  स्टेशन के पुल  के  अंधियारे में लगा  होगा। उन  सुनसान  बैंगनी  शामों  में सीटी  बजाती  रेल  और दिल  धड़काती  माल  गाड़ी के  शोर  में कलेजे  में  फंसे पहले  कश  का  धुंआ और  खांसी  अब  भी  नही  भूलती- निंजा  में  फानी  की  तरह्। लंग  फैग  और  माऊथ  फैग का  फर्क  समझने  के  शुरुआती  दिन।
एक  बोहेमियन  गुरु  थे,जो  बताते  कि आदमी को  एक  जेब  में बचपन  और  दूसरी में बोतल  रखनी  चाहिये। बारी  बारी  से  जिससे घूंट लिया  जा  सके,अमृत  छका  जा  सके। हमें  बोतल  तब  नहीं मिली  लेकिन मुड़ी-तुड़ी  कुम्हलाई  सी  निढाल   सिगरेट से  काम  चलाते। 
उन दिंनों  बिजली  का  जाना  लोडशेडिंग आम  बात  थी।गर्मी  में  तो  तकलीफ  हद  पार  कर  जाती। लेकिन  ताज्जुब  कि  बिजली  गुल  होते  ही  एक उल्लास  चारो  दिशाओं  में गूंज  जाता।ज्योंहि  बिजली  गयी  और  अंधेरा  उतरा,सारी जगहों  से  एक  हर्षध्वनि  या  हंसध्वनि फूट  पड़ती,जैसे  फुटबाल  में  गोल  होने  पर  पूरा  स्टेडियम  एक  सामूहिक अद्भुत (रिदम) आवाज  करता  है।  ये  बिजली  वापस  आने  पर  कभी  नहीं  होता।  किसी  ने  बताया  कि  रात  को खाना  खाने  के  बाद  टहलना  अच्छा  होता  है,तो  हमें  शगल  मिल  गया। वैसे  भी अंधेरे  में  घर  बैठे  क्या  करते? फिर  हमने  जरनल  नॉलेज आधारित  टहलने  को  दौड़ने  में  तब्दील  कर  लिया। दो  तगड़े  और  मूरख  दोस्तों  की  दौड़  करायी  जाने  लगी। इसकी  तैयारी  शाम  से  कभी  तो  पहले  दिन से  शुरु  हो जाती।  होता यूँ  कि जब  ये  दोनो  तगड़े   (ये खुद  को  यही  समझते),या  मूरख(हम  इन्हें  यही  मानते) जान  झोंक  कर  दौड़  कर  500  मीटर  का  चक्कर  लगा कर  पहुंचते  तो  वहाँ इन्हे  देखने,  सराहने,  इनकी  जीत  और  पराक्रम  दर्ज  करने  वाला  कोई  नहीं  होता।  हम  सब छिप  जाते। फिर  जब  दूसरा  भी  पहुंच  जाता  तो  हम  धीरे  धीरे एक एक कर निकलते-पर्दे से और इनका  मजाक  बनता। खीझ  में  ये  प्रतिद्वंदी  हमे  गाली  देते  और  कसम  खाते कि  अब  कभी  दोबारा  ये  सब  नहीं  करेंगे। लेकिन  दूसरे दिन सबेरे  से  इन्हे  झाड़  पे  चढाया  जाता  और  राजी  कर  लिया  जाता-बेवकूफी  के  मैराथान  के  लिये।
60-70  के  द्शक  मे  चीन, पाकिस्तान से  युद्ध  भी हुये। हवाई  हमलों  से  बचाव  के  लिये  भी  शहर  की  बत्तियां बुझा  दी  जाती,इसे  ब्लैक  आउट  कहते। फिर  जब  यह  अप्रोप्रीएट  न  रहा  तो  लोडशेडिंग  कहने  लगे। लोडशेडिंग शीर्षक से एक  निबंध भी  सर  ने  लिखवाया  था  जो  निबंध  भारती  और  प्रबंध विचिंता (बंगला,जिसमें मान्यता थी कि हर विषय पर रेडीमेड निबंध तैय्यार मिलता है)  में  भी  उप्लब्ध नही  था। आर  टी  शर्मा  मुझसे विशेष स्नेह  करते  थे,ऐसा  मेरे  अलावे  कई  साथी  मानते  थे। करीब  20  साल  बाद  मंडल  कमीशन आया  तब  पहचान  हुई   कि वे  सजातीय  नहीं  थे,और बिहार,  यू पी  में कई  लोग कास्ट न्युट्रल सरनेम लिखते  हैं। वो अव्वल दर्जे  के अध्यापक  थे,अंग्रेजी  और  गणित उन्होने  मुझे  ऐसी पढाई के  मेरा डर  निकाल दिया,और  मुझे  मजा  आने  लगा। वरना  उसके  पहले  हम  यही  मानते  थे  कि  अंग्रेजी  और  गणित  विषय जिसने  ईजाद किये, वो  मिले तो  उसका मर्डर  करना  भी  जायज है।
फिर  जब  हम  कॉलेज  पहुंचे तो नये  बनते  मकानों  की  बेलमुण्डी छतों  पर 6  रुपये  की  बीयर  पीना  सीख  रहे  थे। बाँस  ब्राउन पेपर में लिपटी  ठंढी बीयर बोतल लुकती-छिपती कभी शर्ट के नीचे अभी पैंट में ठुंसी हुई ।कॉर्क  खोलने की इंजिनयरिंग जिसमें किसी-किसी को महारत हासिल थी(उन्हें खर्च सांझा  न  करने पर भी शामिल किया जाता,कलाकारी की  कद्र और जरुरत) और साथ में एगरोल या हैम-ब्रेड  का  नमकीन बाईट। उस जलबले,कड़वे, लगभग चिरायते से पानी का  घूंट जीभ कैसे भूले भला,न तो वो सुस्वादु होता न ही नशा देनेवाला,केवल एक अजीब सा गुलाबी इम्पावरमेन्ट का  अहसास। लेकिन फिर भी जैसे बोतल कागज से चिपकी होती वैसे ही गाढी हमारे मन से भी। वीकेंड सेलेब्रेशन सबेरे के अड्डे में तय होता कि शाम को इवनिंग शो फिल्म देखी जाय। ज्यादातर न्यू एम्पायर या ग्लोब में अंग्रेजी फिल्में होती। इन दोनो सिनेमाघरों में बीयर बिकती थी,और सिगरेट भी चलता  था,टिकट केवल 75 पैसे का,वह भी सुपरबाल्कॉनी,यानि बाल्कनी के उपर एक और बाल्कनी होती जिसका टिकट 75 पैसा  होता,केवल हुड़दंगी ,स्टूडेंट और नौजवानों के लिये रिजर्व। इसकी  एडवांस बुकिंग नही होती,केवल शो के पंद्रह मिनट पहले खिड़की खुलती,जहाँ शौर्य,पराक्रम ,चीखना  चिल्लाना से टिकट प्राप्ति होती।  तब सिनेमा  समीक्षा  का  कालम भी फ्रंट स्टालनाम से निकलता था, यही भीड़ किसी फिल्म की हवा बनातती या निकालती। कई हॉल में लेडीज सीटों का  अलग कोना होता।  वेयर इगल्स डेयर,इंटर द ड्रैगन,पैरिस आइ लव यू जिसे पीलू कहा  जाता हमने दर्जनों बार देखी। तीसरी मंजिल,उपकार,दिलीप कुमार का सारा  वांगमय-ओमनिबस यहीं देखा। ऐसे देखा कि हमे उसके सीन और डायलाग उसके डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राईटर से ज्यादा  याद थे। अच्छी हिंदी और उर्दू का तलफ्फूज यही सीखा, 3 प्रकार के स,चार तरह के ज और 5 प्रकार के ग। मानने में कोई हिचक नहीं के हिंदी उर्दू शायरी,उच्चारण ,देशप्रेम,दोस्ती, हिम्मत न्याय सब कुछ यही सीखा  जो हमारे जीवन का स्थायी रंग और अंग बना। दिलीप कुमार को आजाद भारत की  सांझा संस्कृति का आइकन माना जाता था,हिंदू विजडम,मुसलमानी ईमान और क्रिस्तानी एलेगेंश का प्रतीक। साहित्य और कविता,आंदोलन और वामपंथ तो बहुत बाद में एक्सीडेंट की तरह आया,जिसने सुलझाया  कम ,उलझाया अधिक।  धरमतल्ल में सिनेमा  देख कर निकलना और चौड़ी फुटपाथ पर चलना ऐसा अहसास देता के थ्री मस्केटीयर्स ,या गुड बैड अगली ,मैगनिफीसेंट सेवेन के हीरो चल रहे हों। 77 दरवाजों वाला निजाम रेस्त्राँ ,40-50 पैसा का रोल शहर में यहीं मिलता था। न्यू मार्केट में पारसीयों और यहूदियों की बेकरी पर चीज स्ट्रा और पफ ,जिन्हें  किसी लंदन के अखबार में लपेटा जाता, खाते-खाते विश्वभ्रमण हो जाता। मेट्रोपॉलिटन कलकत्ता कॉसमोपोलिटन कलकत्ता,इम्पीरियल ,सेकंड कैपिटल आफ इम्पायर इत्यादि-इत्यादि। शहर से स्टेटस्मैन अखबार निकलता,उसके साथ एक जे एस यानि जूनियर स्टेट्स्मैन । हमे गर्व होता कलकत्ता पर,इसका आभिजात्य,खूबसूरती नफासत और साहसिकता किसी को भी संभ्रम में डालती। बाद में चल कर जो साहस एक्सप्रेस अखबारों या निखिल चक्रवर्ती, प्रभाष जोशी में दिखा था उसकी नींव शायद स्टेटस्मैन से पड़ी हो। सेंट्रल एवेन्यू काफी हाउस के दो हिस्से होते ,हाउस ऑफ कामंस और हाउस ऑफ लार्ड्स।एक में एरुडाईट सीनियर लोग बैठते एक में जोशीले नौजवान । टी पॉट ,ब्लैक कॉफी,इंफ्युसन ,टिकोजी,टोस्ट ,इंग्लीस ऑम्लेट यहीं मिलती । उस वक्त हमे लगता के हम महान हैं,क्योंकि तब सारा हिंदोस्तान दही-पराठे,अचार का  नाश्ता  करता  था,हिंदी इलाके तो पूड़ी-सब्जी में ही अटके फंसे पड़े थे।फ्रेंच कट दाढी वाले रुसी बुलगानिन की सभा,कद में सबसे उँचे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का भाषण,मुजीबुर्र्हमान और इंदिरागांधी का साझा मंच,इसे याद करना सपने में जाना जैसा है,टाईम मशीन में बैठ कार इतिहास भ्रमण। ऐसा रौनकदार शहर,ऐसा यारबाश,प्रेम-दोस्ती से पटा.अड्डेबाजियों को ललचाता। कोई ऐसा  लड़का  नहीं जिसकी दो लड़किया  मित्र न हों,कोई ऐसी लड़की नहीं जिसका नाम किसी के प्रेम रजिस्टर में दर्ज न हो। हम उम्र लड़कियाँ  तू-तड़ाकसे बात करती बांग्ला  में तूई’,लेकिन ज्योंहि मामला सीरियस होता वेतूमि कहने लगती और आसमान में फूल-तितलियाँ के रंग और छापे कढे गुब्बारे छा हाते। हमें लगता  हम एक कल्चर कैपिटल में हैं,जिसका दिल्ली ,बम्बई ,मद्रास से कोई जोड़ ही नही। ऑस्टीयर,इलेगैंट,जेंटल, ग्रेसफुल सब ईकठ्ठा ,एकसाथ। 
फिर आया  बांगलादेश का मुक्तिसंग्राम,जिसे वो लिबरेशन कहते, पाकिस्तानी हानादार अग्रेसर का वापस लौटना,मुजीबुर्रहमान का राजतिलक,खाद्य आंदोलन के बाद धीमी पड़ी  वाम राजनीति का चमका सितारा। स्विंगिंग सिक्स्टीस की जगह अनार्कियल सेवेंटीस,इमरजेंसी,जनता पार्टी का  उदय,जयप्रकाश नारायण  की शानदार दूसरी इनिंग्स।गैर कांग्रेसी सरकारें सारे देश में कायम। इसी उथल-पुथल में लोकसभा चुनाव के बाद जो विधानसभा चुनाव हुये उसमें किसी मामूली से गणित पर माकपा और जनता  पार्टी का समझौता न हो सका। और दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़े।तब तक किसी को उम्मीद क्या अंदेशा भी नहीं था के माकपा जीत जायेगी।शायद हुआ ये हो कि  गैर माकपा वोट कांग्रेस और जनता पार्टी में बंट गये हो और माकपा को इसका फायदा मिल गया हो।ज्योति बसु मुख्यमंत्री बन गये। यह कवियों लेखकों,बुद्धिजीवियों की सरकार थी जो मेहनतकश अवाम ,मजदूर, किसान के हक-हकूक को दिलवाना अपना फर्ज समझती थी।युवकों अध्यापकों,सरकारी कर्मचारियों ट्रेड युनियन करने वाले सैलेरेतारियत का स्वर्ग बन गया कलकत्ता अचानक। सेक्योर्ड नौकरी का बाबूस्तान।छात्र राजनीति से आये ट्रेड युनियन से निकले लोगों के हाथों मे कमान आ गई।अचानक गरीब का ,मध्यमवर्ग का, सरकारी कर्मचारियों का रुतबा बढ गया,अमीर एक अपराध बोध ढोये घूमता था। साथी सरकार की अगुवाई में माहौल खूब उत्साहवर्धक था,एक मॉडल स्टेट बनाने की बातें फिंजा में थी।
लेकिन 5-10 साल जाते ही स्पष्ट हो गया यह सरकार कोई करिश्मा नहीं कर सकती।दरसल इन्हें प्रबंधन का ,उद्योग धंधों का,रोजगार निर्माण का,गरीबी दूरीकरण ,शिक्षा ,स्वास्थ्य, आवास समस्या का कोई प्रशिक्षण नही था। टैक्सेशन और वैल्यू एडीसन,सरकारी कमाई  का कोई जरिया ये नहीं जानते थे। संशाधनों की किल्लत थी,केवल कविता के आदर्शों ,उग्र प्रादेशिकता-बंगाली जातीयता,केंद्र सरकार का सौतेला व्यवहार की राजनीति जोर पकड़ती गयी। केंद्र से सम्पर्क अम्लमधुर रहे, भाजपा के उठान के बाद कांग्रेस से हाथ मिलाने के अलावा कोई चारा भी नहीं था।परफारमेंश लेवल बहुत दरिद्र था। गरीबों का भला करने का दावा करने वाली सराकारें जब सारी दुनिया में लाल झंडा उखड़ रहा था,बेआबरु,शर्मशार और पराजित होकर,षडयंत्री ,बंधु विद्वेशी,मित्रहंता,अमानवीय ,क्रूर और नृशंस होकर आटोक्रेटिक करार होकर,यहाँ लगता था  उसकी नींव मजबूत हो रही है।सोशल सायंस ,राजनीति विज्ञान और अर्थनीति की समझ रखने वालों के लिये यह एक विस्मय था। कि कैसे कोई सरकार बगैर परफार्म किये इतनी सफल और लोकप्रिय हो सकती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की मांगे जोर पकड़ती जा रही थी चारों ओर,और यहाँ इससे दूर लोग इतने भर पर संतुष्ट थे कि वामपंथी राज है जो केंद्र के विरोध में है। क्षेत्रीय अस्मिता कभी-कभी कैसे प्रवंचक खेल खेलती है ,कोई यहाँ देखे।
पार्टी में  कोआर्डिनेसन कमेटी,सरकारी बाबूओं की युनियन, अध्यापकों के  संगठन ,विषेषकर गाँव में पढाने वाले पार्टी पोषित मास्टर –कामरेडों का राज कायम हो गया,जब इन्हें लगा कि ये अनचैलेंज्ड और इंविंसिबल हैं,तो फिर यहाँ केंद्र की, कांग्रेस की, अन्य पार्टियों की खिल्ली उड़ने लगी। कांग्रेस की कम और भाजपा की खिल्ली आज भी उड़ती है,उसे कोई पार्टी ही  नहीं मानता है।उत्तर भारतियों को कुढ मगज निर्बुद्धि,जातिवादी,फाउल माउथ्ड,पोंगापंथी समझा जाता  है,यह ईमेज अटलबिहारी वाजपेयी,मुरली मनोहर जोशी,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली से  भी नहीं टूटी। फिर जब उत्तर भारत में पिछड़ा  राज कायम हो गया तो नार्थ इंडियन की ईमेज को एक धक्का ओर लगा और उसे परमानेंटली जातिवादी, दलिद्दर,शठ माना जाने लगा। उनकी शठता की कहानियाँ यहाँ के बुद्धिजीवि भी दोहराते हैं। लेकिन सेक्युलर पोलिटिक्स के कम्पल्शन के तले ये लोग लालू, मुलायम, मायावती, रामविलास पासवान को कभी-कभार साथ बिठा लेते हैं,मन में उनकी कोई साख ईज्जत नही है,कैसे हो?बदले में  ये उत्तरभारतीय जातिवादी  पार्टी  कम्युनिष्टों के एक-सवा  डेढ विधायक को  जितवा लाती  है,ग्रैंड अलायंस ओफ सेक्युलर फोर्सेज्। राजधानी में  विधायक निवास मिल  जाता  है,रहने  ठहरने खाने  का  फ्री  मेस्। इतने  पर  ये  भी  प्रसन्न्।बड़े शत्रु से निबटने के लिये छोटे शत्रु से हाथ मिलाने वाली टैक्टिकल लाईन।यह अजीब रैशनल यहाँ चलता है,जिसका इसरार कभी चाण्क्य, विदुर, मैकियावेली और मार्क्स करते दिखाये जाते हैं।लॉजिक और रेड हेरिंग एक हो गये। कार्यविमुखता,आभिजात्य विरोध,धर्म विरोध,सलीका-करीना विरोध,परश्रीकातरता जो शुरु हुई, कोलकाता लगातार नीचे गिरता चला गया। द्वेष और ईर्ष्या एक मूल्य मान लिया गया और इसके पक्ष में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति, विचारधारा को कोट किया जाने लगा।एक इनरसिआ की स्थिति, जहाँ कुछ किये बगैर,किसी चिंतन और पराक्रम के बगैर एक स्टैटस को चलता रहा। विखण्डित विपक्ष उजड़ी कांग्रेस के प्रति नफरत की वजह से यहाँ लाल झंडा फहराता रहा।क्षेत्रीय पार्टियों के गठजोड़ के काल में माकपा क्षेत्रीय पार्टी की तरह इन गठजोड़ों मे शामिल होने लगी। चूंकि अन्य कई प्रांतों-पार्टी  से यह ज्यादा स्थायी सरकार थी इस लिये सभी जातिवादी,प्रादेशिकतवादी,समतावादी पार्टी-दल इन्हें तरजीह देते थे।इनके रास्ते कहीं कटते भी नहीं थे।न तो माकपा कभी तामिलनाडु में द्रमुक की प्रतिद्वंदी बनी,न कभी उत्तर प्रदेश में मायावती-लालू की। सो एकगोल्डन अलायंस चल निकला,क्षत्रपों का आपसी भाईचारा,बिना टिकट यात्रियों का बहनापा,रक्षा बंधन के नेह  धागे की सम पवित्रता। वैसे तो 34 साल बताते है,लेकिन क्वालिटेटिवली ये साल शताब्दियों की तरह गुजरे,जैसे इस्लामी शताब्दियाँ या फिरंगी शतक। 300 साल पहले शताब्दी 100 साल की होती थी ,क्या आज भी वही पैमाना  लागु होना चाहिये।गति- विज्ञान,टेक्नॉलॉजी, संचार के युग में क्या नई शताब्दियाँ क्या दशक और 25 साल की जुबली की तरह के  मानकीकरण नहीं माँग  सकती ।यहाँ शिक्षा,स्वास्थ्य,कर्मसंस्कृति (वर्ककल्चर), इंटरप्रेन्योरशिप,इंफ्रास्टक्चर सब गये जमाने से दिखते है। पूणे, गुड़गाँव,बम्बई,हैदराबाद, बंगलोर,अहमदाबाद के आगे यह मुफलिस  मफस्सिल टाऊन सा दिखता है।ऐसी गंदगी,परिश्रमविमुखता,दलिद्दरपना,ऐसा घटिया ह्युमन रिसोर्स आपको अन्यत्र किसी महानगर में न दिखे। सिलायदह स्टेशन से किसी भी तरफ की रेलवे लाईन पर आपको अति प्राचीन झुग्गियाँ मीलों मिलेगीं,जहाँ बूढे शौच करते,जवान महिलायें सस्ते  गमछों में लिपटी खुले में दाँत माँजते,नहाते,ईंट के चूल्हे पर खाना पकाते,रेलवे लाईन पर कपड़े (गूदड़) सुखाते,नंग धड़ंग बच्चे दौड़ते भागते मिलेंगे।यह इतना मॉरबिड सीन होता है के मनुष्य की गरिमा पर ही   आपको शक हो जायेगा और लानत देनी होगी। कैसी विचारधारा,कैसी संस्कृति,कौन सी गरबीली गरीबी, कौन सी हक-हकूक की लड़ाई इसे जायज ठहरा  सकती है?
कॉलेज जहाँ सरकारी अस्पतालों से बास मारते हैं,वहाँ के बाथ रुम में पेशाब और गैमेक्सीन पाउडर की गंध आपके नथुनों को भेद कर आपको बेहोश कर सकती है,अस्पताल शवगृह से दिखते है,मॉर्ग।और् शवगृह बूचड़खाने से रक्त सने, गंधाते। ताज्जुब कि इससे यहाँ किसी को कोई परेशानी नहीं इन्हें यह सब सामान्य और नार्मल दिखता है,जिस पीढी को प्रतिवाद करना चाहिये उसने इससे अच्छी दुनिया देखी ही नहीं है,इन सबके लिये लिबरलिस्म,मार्केट,पूंजीवाद, अमरीका,साम्राज्यवाद आदि को सीधे दोषी करार दिया जाता है।यही बंगाली जब पूणे,बंगलोर हैदराबाद, गुड़गाँव मे होता है तो साफ-सुथरा, विवेकवान और इफीसियेंट हो जाता है, फिर न जाने क्यों यहाँ  यह सब स्वाभाविक हो गया।खुली मोहरियाँ,ट्राफिक जाम, मच्छरों का उत्पात यहाँ इतना स्वाभाविक है किसी फर्स्ट क्लास भौतिकी के विद्यार्थी स्नातक का मानना है कि यह तो सभी जगह ऐसा ही होता है। कभी-कभार पड़ोसी बिहार ,पूर्वी उत्तरप्रदेश के लुटे कस्बों से तुलना कर छाती  ठंढी करते है। इनका  वर्ल्ड व्यु इसके पार नहीं  जा पाता।
जो इसे महसूस करता है वो डर और संकोच के मारे पॉलिटिकल करेक्टनेस के दिखावे में मुँह नहीं खोलता और शीघ्रातिशीघ्र यहां से निकल जाने को सचेष्ट होता है,बंगाल में ब्रेन ड्रेन पीएच डी, एम बी ए और बड़ी पूंजी का केवल नहीं होता यहाँ 10वीं के बाद असंख्य छात्र दूर चले जाते हैं,केवल बांग्ला माध्यम के औसत छात्र, आर्ट्स के स्टूडेंट, गरीब ,कुछ बिहार के हिंदी भाषी कोलकाता युनिवर्सिटी यादवपुर और प्रेसिडेंसी को आबाद करते हैं। बंगाल की स्कूल शिक्षा बेहद निराशाजनक है ,बेचारा और पड़ोसी गरीब गुरबे, नवसाक्षर के अलावा यहाँ कोई नहीं है। यह बात कह देने पर आपको बिरादरी बाहर माना जायेगा-गद्दार। जिसकी सजा कैपिटल पनिसमेंट भी हो सकती है। पक्की पगार और उँचे ओहदे वाले कर्मचारी, जज ,शिक्षक ,सरकार पोषित कारोबारी के अलावा यहाँ कोई खुश नहीं है,कुछ लोग उम्मीद पर भी जी लेते हैं। हिंदीभाषी छात्र का आलम यह कि एक अध्यापक मित्र अशोक ने क्लास में पूछा कि कितने बच्चों के अभिभावक ग्रेजुएट हैं,तो एक भी हाथ नहीं उठा,अनामिका जी लिख चुकी हैं हिंदी पढने गरीब,पिछड़े ईलाकों ,किसी अन्य विषय में न जा पाने की मजबूरी वाले छात्र ही आते है। फिर जैसे नवधनाढ्य के इनरिचमेंट से उसमे एक प्रकार की फूहड़ किस्म की शोशेबाजी,दिखावा और अहंकार टपकता है, वैसे ही इन नव साक्षरों में एक कर्कश किस्म की सामाजिकता,द्वेश-डाह पनपती है,जिसे वे मूल्य समझते है,और विसियस सर्किल अटोमेटेड हो जाता है।
“कहाँ तो तय था चराग़ाँ हरेक घर के लिये.मयस्सर नहीं एक दीया सारे शहर के लिये..”
कॉलेज- विश्वविद्यालायों को ऐसे बच्चों की ग्रंथियाँ तोड़ने का कारखाना बनना था,संकीर्णता मिटाने का औजार होना था,रुढि और विचारों को पूरा आकाश दिखाना था,और यह इन ग्रंथियों के पक्काकरण,संकीर्णता को अमरत्व और रूढि को धार देते चले गये। एक बच्चा जिन जिदों पूर्वाग्रहों और अवचेतन की दुर्घटनाओं पीड़ाओं, वंचनाओं को लेकर आता है.विश्वविद्यालय उसपर मरहम लगाना,चोट के नीले निशानों को हल्का करना, दूर ,उन्हे जीवन के अक्षय मूल्यों में तब्दील कर देते हैं।
कलकत्ता  के 4 प्रधान बातें है,जिससे इसे अलग से पहचाना जा  सकता है।कलकत्ता लाऊड है,जोर से बात करना, हॉर्न बजाना यहाँ फितरत है,पहले इसे कुछ लोग रिफ्यूजी कल्चर से जोड़ते थे,फिर यह बहुसंख्यक होकर सर्वग्रासी और मेनस्ट्रीम कल्चर हो गया।लेकिन रिफ्यूजी आये तो 65 साल हो गये,1971 को कट ऑफ माने तो भी 40 साल.क्या यह समय खुरदरे किनारों को साफ करने को पर्याप्त  नही है, कलकत्ता को हांकिंग कैपिटल के खिताब से कभी भी नवाजा जा सकता है,विश्व स्तर पर।यहाँ मोटर दुर्घटना के बाद गाड़ी को जला देने का और ड्राईवर पैसेंजर को पीट –पीट कर मार डालने का रिवाज है,तत्क्षण न्याय का अनोखा उदाहरण। जो विदेशी यहाँ घूमने-पढने आते है, उन्हें हिदायत होती है के गाड़ी न चलायें वरना दुर्घटना के बाद जीवित रहने की सम्भावना कम है-इसे लींचींग कहते हैं-जनवादी भाषा  में गणधुलाई,जनधुलाई।
यह इतना सामान्य स्वाभाविक है कि कोई पार्टी, संगठन, न्यायालय इस पर कोई कारवाई नहीं कर सकता इसे जनता का न्याय और स्वाभाविक आक्रोश माना जाता है,सोलह आना वैधानिक और जमीनी। सामान्य अपराध पर आपको जनता पीट –पीट कर खत्म कर सकती है- इन ब्राड डे लाईट, इन पब्लिक व्यू, थाने के सामने पुलिस की मौजूदगी में। यहा किसी असफल प्रेम, पारिवारिक विवाद, किसी के गुम हो जाने पर इस संदेह पर कि यह आपकी कारस्तानी है,आपको अपने मोहल्ले में जिंदा जलाया जा सकता है,यहाँ पाड़ा में क्लबों और पाड़ा के लड़कों का राज चलता है,इनसे मिलना-जुलना सरोकार रखना अनिवार्य है, हिला-मिला कर रखना जरुरी है,वरना आप मतलबी, स्वार्थी, उच्चभ्रू माने जायेगें और किसी भी दिन आप तोप के निशाने पर होंगे।प्राईवेट स्पेस निजी जिंदगी का यहाँ कोई खरीदार नहीं। एक दमघोंटु  मेनस्ट्रीम कल्चर है,उसका पार्ट आपको होना ही होगा।दरसल पूरा मामला ही लाऊड है,बातचीत की लाऊडनेस, हॉर्नबजाना  शायद यहाँ के जीवन की अशांति,उद्रेक,आंतरिक बेचैनी , हड़बड़ी को दर्शाते हों,जिसका मेनेफेस्टैसन कभी खतरनाक रुपों में सामने आता है,इसमे शिरकत करने वाले ज्यादातर लोग आपराधिक पृष्ठभूमि के नही होते,वे सामान्य नागरिक होते है,लेकिन उग्र स्वभाव,हड़बड़ी, हिंसा  और अतिवाद को एक नागरिक स्वीकृति मिली हुई है,ये इसे जागृत,सचेतन,संवेदनशील समाज की शर्त समझते हैं।कलकत्ता की अर्थनीति की समझ पर एक उदाहरण देख लें। स्टेट ट्रांस्पोर्ट की 3000 बसे है, 25 हजार कर्मचारी। बमुश्किल 1000 बसें सड़क पर चलती हैं,बाकी के कभी ड्राईवर नही होते कभी टायर दुरुस्त नहीं। यानि एक बस पर 25 कर्मचारी। इन्हें सालाना 500 करोड़ की इमदाद सरकार देती है। माकपा की सरकार त्रस्त थी इनसे ,कई बार समझाने-बुझाने ,गरम-नरम वार्निंग से कुछ नहीं हुआ। कट्टर ट्रेड युनियन जो सरकार की  समर्थक भी हैं, ने कभी इस पर गौर न किया। सरकार भी कभी ठोस कदम उठाने का साहस जोखिम नहीं कर सकी। वाम शासन को किसी और ने कम खाया हो ,इनकी आंतरिक लूट ,इमदाद और सहयोग से अर्थनीति गफलत में गयी,यहाँ सोवियतसंघ दोहराया गया,रशिया दूसरे देशों के समाजवादी पार्टियों को हथियार, साहित्य और अन्य मदद के चक्कर में डूबा ,ऐसा आरोप भी है। अब एक नयी सरकार आयी है,उम्मीद करें कि हालात बदलेंगें,जल्द नहीं तो देर सही। इस उम्मीदपर आस टिकाये,शक भी कम नहीं
  मुझे  शहर अजनबी लगता है,शरीफ आदमी,भीरु इंसान  यहाँ बच कर चलता है,और भी भीरु,और भी कमजोर किसी गिरोह में शामिल हो जाता है,जिन गिरोहों से हमारी आत्मा आतंकित होती है,वैसा ही एक गिरोह हमें निरापद बनाता है,यह है विशियस सर्किल। जिन शहरों- समाजो से सीखना चाहिये उंससे नफरत करना सिखाया जाता है,लोकतांत्रिक व्यव्स्था में आप गलत हों,अक्लीयत हों तो   भी क्षेत्र विशेष में आप जम्हूरियत बन सकते हैं। नियंता बन सकते  है,जैसे तालीबान ने बामियान की मूर्ति को तोड़ते वक्त सारी दुनिया की इल्तिजा नहीं सुनी,उसे अंतरराष्ट्रीय इमेज से कोई  सरोकार ही नहीं। खुदमुख्तारी का अजब-गजब  वाकया।  इस विचित्र विधान में लोकल फँसा है। कराह रहा है,सारी दुनिया और उन्नत, सलीकेदार समाजों से उसे क्या मतलब?अपनी कंस्टीचुएंसी में वह हीरो है,मेजारिटी  है,टंच है,फन्ने खाँ है।
**विजय शर्मा

remembering Pf. Saibal Mitra,my guru..


                    
                 शैवाल मित्र की  याद में:तारुण्य  का  प्रतीक        * विजय  शर्मा
कोई  शहर अपनी  भौगोलिक स्थिति से जाना जाता  है। फिर  उसकी राजनीति ,इतिहास,रोजगार,कारोबार-व्यापार और दूसरे सामाजिक सूचकांक  भी  उसे  जाहिर  करते हैं।इतिहास के करवट लेने के  वक्त उसका अचानक चमक  उठना  भी उसे शोहरत दिलाता  है। कुल  मिला  कर जो  योगफल  बनता है शहर  दरअसल उससे ज्यादा  कुछ  होता  है।नया विज्ञान  बता  रहा  है कि किसी  वस्तु  के तमाम अणु-परमाणु को  जोड़ने पर भी  कुछ  कम  रह जाता  है,यह  दरसल वह स्पेस होता  है,जिसमें शायद  कुछ होता  हो। पर  वह  नंगी आँखों  से  खाली  सा  दिखता  है। यानि  शून्य  स्थान वैसा  खाली  नहीं  होता जैसा  कि  हम  समझते  हैं।  वहाँ  भी कुछ होता है और  जिसके  बगैर  वस्तुएँ –ब्रह्मांड  वैसे  नहीं  होते  जैसे  कि  हैं। संस्कृति भी  शायद  ऐसी  ही  कोई चीज  है। कोलकाता  के  सांस्कृतिक  स्पेस  की कहानियाँ सारे  देश  की  फिंजा  में  है,खासकर बौद्धिक,विचारवान,प्रश्नाकुल,प्रतिवादी  नागरिक समाज में।
हमलोग तब  कॉलेज में पढते  थे। किसी दिन  छात्र  यूनियन के  समर्थक क्लास  बॉयकाट कर  रहे  थे।भीड़-भड़क्के और  शोरोगुल के  बीच एक  जवान प्रोफेसर उनसे बहस  कर  रहे थे,उन्हें  वापस  क्लास में  जाने को  कह  रहे  थे।बाकी  सारे  प्रोफेसर पहले  ही  कन्नी  काट  चुके  थे-स्टूडेंट्स से  कौन  उलझे! नयी-नयी  यूनियन  थी,वामपंथी,इनकी  सरकार  तब  आयी ही  थी। लेकिन ये  प्रोफेसर डटे हुये  थे। छात्र आखिरकार  उग्र हो  रहे  थे,’हमलोग यूनियन करते  हैं,वाम छात्र संघ.... तभी  किसी ने  कहा  कि  ये  प्रोफेसर कुछ साल  पहले अखिल भारतीय  छात्र यूनियन के  अध्यक्ष रह  चुके  हैं,बल्कि उसके  संस्थापकों में  एक  प्रमुख  नाम।
.......छात्रों  के  जोश पर  ठंढा  पानी  पड़  गया।
ये  शैवाल मित्र  से  हमारी पहली मुलाकात थी। अगली  बार  वो  दिखे,  एमरजेंसी के बाद बंदीमुक्ति आंदोलन  की  अगुवाई  करते एतिहासिक जुलूस में सबसे आगे। सारे  अखाबारों  में  उनकी  तस्वीर। यह  कैसा  प्रोफेसर  है!  छात्रों  से  ज्यादा  उर्जावान,छात्र  राजनीति की  समझ  भी  छात्रों  से  ज्यादा!
कॉलेज  में  माकपा में  सक्रिय अहंकारी अध्यापक  भी  शैवाल  दा  को  हैरत  और  संभ्रम से  देखते थे। उनके  तमाम  शीर्ष नेता इनके  सहपाठी और  दोस्त  थे।  खुद  वे  ये  कभी नहीं  बताते,लेकिन  सबको  पता  होता।
इस  शहर को जिन  बातों  का  गुमान-गर्व  है,उस  मेधा,संस्कृति,राजनीति  बोध,बंधुवत्सलता,उदारमन  को  जिन्होंने  जिया  है,शैवाल  दा उनमें  अन्यतम  थे। 50  बरसों  का  सक्रिय  जीवन, उर्जावान विद्वतापूर्ण और तेजस्वी। सारी जिंदगी  बांग्ला  पढाते हुये  वे  रिटायर  हुये। 27 नवम्बर को उनकी  देह  आर जी कर  अस्पताल के  छात्रों के  हवाले  कर  दी  गई,उनकी  ईच्छानुसार।
पुराने  कोलकाता  की  तर्ज  पर  उनके  घर  पर  रविवार को  बड़ा  अड्डा लगा करता  था। जहाँ सारे  शहर के  सरोकार  रखनेवाले  कवि,लेखक,छात्र राजनीतिज्ञ  और  समाजसेवी ईकट्ठा  होते। उनकी  शोक सभा सॉल्टलेक के  रवींद्र -ओकाकुरा भवन  में  आयोजित  हुई।
उनके  कॉलेज के  अध्यापक  श्री अलक  राय  ने  कहा  कि ऑनर्स के  वे  अकेले  विद्यार्थी थे-स्कॉटिस कालेज  में। मैं  उसे कुछ बताता तो  वो  पलट  कर  प्रश्न  करते,मैं  एक  व्याख्या  करता तो  वह कोई  नया  मसला खड़ा  करता।  थोड़े  दिनों में  यह  तय  करना मुश्किल हो  गया कि  मेरे और  शैवाल के  बीच  अध्यापक  कौन  है,छात्र  कौन? उनके  चिकित्सक  मित्र साधन  राय  ने  कहा कि मैं आज  जो  कुछ  हूँ -उनकी  बदौलत। मेरा  कल्याणी में  एक  सफल नर्सिंग  होम  है,कभी किसी  अड़चन के आते  ही  वो  बायें  हाथ  से  सुलझा  देते  थे। लेकिन  हमारी राजनीति  पर  कभी बात  नहीं  होती थी। विमान बोस  से  लेकर  श्यामल चक्रवर्ती ने  जिस मैत्रीभाव  से  उन्हें याद  किया,वह  अचम्भित  करने  वाला  है।  विमान  बोस अस्पताल  गये तो  हाथ  पकड़  कर  कहा सबसे गम्भीर और  टेढी जगह  हम  आपको  प्रतिनिधि बनाते  थे, आपही हमारे  वक्ता  होते  थे,हमें  आपकी जरुरत  है,आप  ठीक  हो  जाओ। साहित्यकार  समरेश  मजुमदार की  मुलाकात कालेज  के  प्रथम  दिन  उनसे  हुई,और  शैवाल दा  उसे  अपने घर  लिवा  गये,माँ से कहा  कि  यह  मेरा  दोस्त  हमारे साथ  रहेगा,बाहर  से  आया  है,जब  तक  इसका  कोई इंतजाम  न  हो  जाये। श्रमिक नेता प्रफुल्ल  चक्रवर्ती ने  बताया  कि  सबसे कड़ी घड़ी में  वे  साथ  देते  थे,कई  बार  रात  का  खाना  उनसे ही  नसीब  होता था। रमोला चक्रवर्ती ,पत्नि सुभाष चक्रवर्ती ने  कहा  कि  उन्होने  मुझे  पहले-पहल  भाषण  का मौका दिया,वो  मेरे सीनियर  थे,हमारे नेता थे,कालेज  में। एक  बार काफी  हाऊस इतने घाटे  में  आ गया था  कि इसे  बंद  करने और  किसी प्रमोटर  को  देने  का  निर्णय लिया जाना  था,शैवाल दा कि  अगुवाई में  यह  रुक  पाया,तत्कालीन  मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य्या  ने उनके  कहने पर सम्मानजनक  हल  निकाल दिया वरना कोलकाता से  काफी  हाऊस  रुखसत हो  चला था। यह  विरल  मौका  होगा  जब  माकपा ने पार्टी  के  बाहर  किसी  को इतने सम्मान  और  रुंधे  गले  से  स्मरण  किया  हो। आला  अफसर  आलापन बंद्योपाध्याय से लेकर  बचपन  के  साथी रमेन दा तक  उनके  फैन  रहे,हाँलाकि हमउम्र थे। श्रममंत्री पूर्णेंदु बसु ने  राज  खोला  कि हालिया परिवर्तन का  नारा शैवाल दा  का  दिया  हुआ  है। असीम  चटर्जी से  सुधांशु  दे तक  से  ऐसे  मैत्रीभाव, बगैर किसी तिक्तता के  आजीवन  रहना एक  मिसाल  है। अजीजुल हक   फफक  कर  रो  पड़े ,अपने  यार को  याद  करते।राजनीति  और  वह  भी  वाम  की,  उसमें  भी  उग्र किस्म  की  राजनीति  करने वालों  में उनके  जैसा रसूख  वाला,यारबाश,कड़वाहटहीन  व्यक्तित्व हमारे समय में  कम  दिखता है।राजनीति और  पेशेवर प्रतियोगिता के इस अंधे दौर  में  वो  हमारे आदर्श पुरुष  थे,गार्डियन।  ऐसा  मानने  वालों  की  संख्या  कोलकता-बंगाल में हजारों  में  होगी। कोलकाता  उन्हें  मिस  करेगा। कभी कोलकाता की  दीवारों  पर  एक  स्लोगन  लिखा होता  था-तारुण्य  का  प्रतीक।  यकीन  करें इसे  पढ  कर  शैवाल  दा  की  तस्वीर  ही  आँखों  आगे  खिंचती थी। उत्तर  बंगाल की नक्सलबाड़ी  से  लेकर दल्ली-राजहरा के  शंकर  गुहा  नियोगी तक के  लिये जो  दिल  धड़कता  था,जयप्रकाश  नारायण से चारु  मजुमदार जिसके  मुरीद रहे,ऐसे  थे  हमारे  शैवाल मित्र। अध्यापक,छात्र,सहपाठी,मित्र-परिचित जिसे  उन्होंने  छुआ,उसे  गहरे प्रभावित  किया।
सम्पादक  अशोक  दास्गुप्ता ने  कहा  है  कि  पहली  बार  युनवर्सिटी में  एक  हल्के हरे रंग  के  कुर्ते  में  उन्हें  टूल  पर  खड़ा  भाषण देते  देखा था। यह  हरा कोमल  भाव सर्वदा उनके साथ  रहा।   
कई  साल  पहले  ब्रिटेन की  कम्युनिष्ट  पार्टी की  सक्रिय  सदस्य  मेरी  टेलर ने  जिक्र  किया था कि किसी युवा कामरेड  को  देखकर  उनकी  भारत  में  रुचि पैदा  हुई  थी,और  उनके  आकर्षण  में  वो  उनकी  लड़ाई  में  शरीक  हुई। ये  वही मेरी  टेलर  हैं  जिन्हें जादूगोड़ा में सश्स्त्र दस्ते के  साथ   गिरफ्तार  किया गया था।
कोई  हिचक  नहीं कहने में कि बंगला  भाषी के  प्रति  जो  सम्मान  -सम्भ्रम  हमारे  मन  में  है,और  जिसे  हजारों बार  चुनौती मिल  चुकी है,,लेकिन फिर भी जो कायम  है,उसे  अक्ष्क्षुण रखने में शैवाल  मित्र  का  नाम अव्वल  दर्जे  पर  है।
बीते  दिनों के  महापुरुष हमने  देखे  नहीं  पर  शरीफ  आदमी का  रोल  माडल कैसा  हो  , इसकी  मिसाल शैवाल  दा छोड़ गये  हैं।  उन्हें उसी कच्चे रंग वाला कोमल सलाम
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