Tuesday 7 February 2012

अपनी खबर


                               अपनी  खबर                  *विजय  शर्मा
यह  जो  सिस्टम  के खिलाफ  आक्रोश  है,लोकतंत्र  के  अनिवार्य  अंतर्निहित संशय  हैं,क्या  इसकी कोई  छड़ी हमारी पीठ  पर  भी  पड़ती  है,इसका कोई  जूता  हमारे  सर  भी  चलता  है? या  यह  कोई  वायवीय वैश्विक किंवा सर्वभारतीय  सत्तावादी,अमरीकन  -युरोप ,साम्राज्यवादी षडयंत्र और  पूंजीवादी-मुनाफाखोर डिजाईन  भर  है? इन  प्रवर्त्तियों  का  हमारे  भी  मानस  पर  कोई  प्रभाव  है,हममें  भी  यह  व्याप्त  है,या  हम  इससे  सर्वथा  मुक्त  हैं- इसकी  भी  पड़ताल करनी  चाहिये। क्या  हम अपनी  गलतियाँ  न  देखें,हमारी  बेईमानियाँ,हरमजदगियाँ,धोखे, स्वार्थों पर  चुप  रहें?
हम  कैसे  ईर्ष्यालु,बंधुहंता,दम्भी,परिश्रमविमुख, चाटुकार,सेटिंगबाज,अंधविश्वासी ,जनविरोधी  और  राजनैतिक अंधेपन  के  शिकार शठ  हैं,इसका भी  खतियान  होना चाहिये।
हमारे  परिवार,स्कूल-कॉलेज,कारखाने,पत्रिकायें,संस्थान,मित्र मंडलियाँ-ग्रुप-गैंग,कितने  सरोकारी ,लोकतंत्रप्रिय,बंधुवत्सल,परोपकारी,कर्मठ और  प्रज्ञावान  हैं,इसकी भी  परीक्षा  होनी  चाहिये
हमने  पिछले  एक  साल  या  चार  साल में क्या  लिखा,क्या नया पढा,क्या  पाया,क्या   दाँव  पर  लगाया,वैचारिक  रुप  से  ही  हो-इसका  भी  खतियान जरुरी  है। इस  पढने-लिखने  का  ताल्लुकात कितना नितांत  निजी  है  और  कितना  सामाजिक?
1980 में  हमारा  जो  स्टैंड  था,वह  1990  में  क्या  रहा,फिर  2000-2010  में उसमें  कितनी  और  कैसी  तब्दिलियाँ  हुई,अपडेटिंग  हुई,इस पर  भी  गौर  करें।  युरोप की  चमक-दमक,सोवियत  का  टूटना, बर्लिन  की  दीवार  का  ढहना, तमाम  हिंदोस्तानी  राज्यों  में  सत्ता  दखल-परिवर्तन ,पिछड़ा,दलित ,वाम  ,भाजपा का  उत्थान-पतन  हमें  कुछ  सिखा  गया ,हमारी  बौद्धिकता  को  सर  के  बल  खड़ा  कर  गया  या हमें मजबूत  कर  गया,इसकी  खबर  लेनी होगी। हमारी प्रगति-दुर्गति  क्या है,कैसे  है,इसका  रोजनामचा टटोलना  चाहिये-कमसकम खुद  तो  देखें-भालें।
एक  प्रकार के बुजुर्ग विद्वान  हैं,कोलकाता  में,   जो  20-30  सालों  से रुढि  के  खिलाफ  ,धर्मनिरपेक्षता के  पक्ष  में,साम्प्रदायिकता के  विरोध  में सुलगते  सवालों  पर  अड़े  है। यह  वैचारिक  निष्ठा  है  या जिद्दी  मूर्खता? एक  दूसरे प्रकार के  विद्वान  हैं,जो जिस  शिद्दत  से  30  बरस  पहले  पार्टी करते  थे,आज  तक  उससे  टस  से  मस  न  हुए। यह  क्या  प्रदर्शित करता  है-ठहराव  या  कमिटमेंट। संकीर्णता या  विस्तार,दिमागी आजादख्याली  या  गुलामी  का  हठी गुमान?
मारवाड़ी  के  प्रति  बिहारियों  की,बिहारियों  के  लिये मारवाड़ियों  और  यूपी  वालों  की,व्यवसायी  के  लिये  सरकारी  कर्मचारियों  की, मास्टर  की  तंख्वाह  के  प्रति  अन्यों  के  विचारों में घृणा,द्वेष,संभ्रम,श्रद्धा,प्रेम,विस्मय,समझदारी का  ग्राफ  थोड़ा  भी  बदला  है  कहीं?
यह  सिस्टम  क्या  है? कौन  है? सिर्फ  गाली  देकर  छुट्टी  न  पायें। जिनके  घर  शीशे  के  हों  वो  दूसरों  पर  पत्थर नहीं  फेंका करते- यह  कहावत  पुरानी  होकर  मर  चुकी  है। अब  तो  शीशमहल  वाले  ही  ज्यादा  पत्थर  बरसाते  हैं,ताकि उनके  महल  सुरक्षित  रहें,कोई  पास  फटक  भी  न  पाये,उधर  ध्यान  ही  न  जाने  पाये। बंग्ला  में  कहते  हैं-चोरेर  मायेर  बड़ो  गला...(चोर  की  माँ  जोर  से  चीखती  है)। हम  कौन  हैं-साहूकार,चोर  या  चोर  की  माँ?
विधायिका ,अफसरशाही,न्यायपालिका का  क्रियान्वयन  किनसे  होता  है?  सचिवालय-दफ्तरों  के   बाबू-क्लर्क,अस्पताल के  मुंशी-डाक्टर,बैंक  के  कैशियर-मैनेजर,स्कूल-कॉलेज  के  मास्टर-टीचर...ये  सब  इस  सिस्टम  की  अभद्रता  के  शिकार-पीड़ित  हैं  या इसके  उत्प्रेरक?
पहले  सिस्टम को  रिग करके  नौकरी  हासिल  करिये,फिर  नौकरी  से  कभी  न  हटें  ,इसके लिये  आंदोलन  करिये।  इस  जबरई को  जो  विचारधारा  नि:शर्त समर्थन दे,उसके  प्यादे  बनिये। बड़ी  -बड़ी  पार्टियों  के  वाद यही  तो  कर  रहे  हैं। बोनस  ,भत्ते,राहखर्च  की  जुगाड़  में  डूबा सरकारी कर्मचारी  क्या  आदर्श  स्थापित  कर  रहा है?
शायद  पहली  बार  अन्ना  हजारे  दिखे,जहाँ वेतन  -बोनस बढाने का,काम  के  घंटे  घटाने  का,बिजली  और  टैक्स माफी  का,कम  नम्बर में  दाखिले का,हास्टल  और  कैंटिन को  सस्ता      करने या  रेल-बस  को  मुफ्त  करने  का  मुद्दा  पुरजोर  नहीं  है।
वरना  तो  राजनीति  और  साहित्य  दिते  होबे,दिते होबे...  का  पर्याय  हो  गयी  है।लंठई,लफुवागिरी,जबरई,संख्यातंत्र  के  नीचे  दबी  पड़ी  है-चेतना,न्याय,विवेक। फिर  इस  कुचक्र  में  वह  खुद  भी  दबता  जाता  है,कराहता  है,साथ  ही  इसी  सिस्टम  को स्वचालित  और  तेज  भी  करता  चलता  है।
किसी  विचारधारा (आइडियोलाजी)  की  कमसकम  दो  कसौटियाँ तो होनी ही चाहिये।पहली  यह  कि  इसमें  इधर-उधर की  आवाजाही  -आवागमन की  निर्दिष्ट शर्त हों। यानि  कि जिसे  हम  अन्य मानते  हैं,आर्थिक,सामाजिक  ,वृत्तिमूलक  कारणों  से,उस  दुश्मन  को  यह  पता  होना  चाहिये  कि किस –किस  परीक्षा  में  उत्तीर्ण  होने  पर  उसे मित्र माना  जायेगा । और  अगर इस  आवागमन  का  रास्ता  अवरुद्ध  है,तो  यह  वर्गविभाजन,विचारधारा एक  रुढि  से  अधिक  कुछ  नहीं।केवल  उकसावे  की वोट राजनीति  का हथियार,पिछड़ेपन  के  पक्काकरण  का  पैरोकार जो  अंतत: घृणा  और  एक्सक्लुजन के  हाईवे  पर  खत्म  होता  है।
दूसरी बात:  हर  संशोधन ,फटकार का  कुछ  प्रभाव हम  पर  भी  पड़ना  चाहिये। चाहे  वह  कमाई में  कटौती  हो,रुतबे  में  कमतरी  हो,अतिरिक्त संयम  की  माँग हो,या  फिर  हमारे  पद,प्रतिष्ठा,रुतबे,दक्षता,इफीसियेंसी ,कार्यशैली को ही  नियंत्रित,अनुशासित करती  हो-तब  तो  ठीक  है,  यह  क्या  संशोधन हुआ  कि मुझे  तो  इससे  फायदा  ही  फायदा मिले,मेरी  जिम्मेदारी  और  संयम की  परीक्षा ही न  हो,और  बाकी  सब  पर  कोड़े चल  जायें। इस  कसौटी के  अभाव  में फिर  यह  किसी अन्य पर  छोड़ा  गया कारतूस ही होगा ,जिसकी  क्रेडिबिलिटी कुछ  खास  नहीं  और  परिणाम संशयग्रस्त होंगें।
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