2 जून 2012,
नाबालिग कहानी
,थर्ड
वर्ल्ड
यानि रक्ताल्पता
,पीलिया
और
कुपोषण
की शिकार
परिकथा का
‘ सितम्बर-अक्टुबर ’ अंक मिला
. कुल तेरह
कहानियाँ हैं यहाँ, 6 मुख्य हिस्से
में और
बाकी 7 युवा कहानी सहयात्रा
के परचम तले.
सोमा भारती
की कहानी
‘शून्य जोड़ शून्य’
(0+0) स्त्री देह के शोषण की मार्मिक कथा है.
‘भरोसा कर लिया
जिस पर उसी ने हमको
लूटा है…. कहाँ तक नाम गिनवायें सभी
ने हमको
लूटा है…’
की तर्ज पर
पहले मामा,
फिर बूढे
पति फिर
लेक्चरर ,मंत्री सभी
ने स्त्री देह और अस्मत को चाक-चाक किया.
सोमा भारती
जी के अनुसार
आखिरकार यह
मजबूरी में किया गया यौनाचार
शायद जानलेवा एड्स
में परिणति पाता है.लेकिन तब
तक मिठी
की छोटी
बहन दसवीं
में पढने वाली चिनी भी लाईन में उतर चुकी
होती है.
इतनी ‘पुअर एस्थेटिक्स’ और सामान्य भाषा-मुहावरों में कहानी चलती है
कि माथा पीट
लेने को जी चाहता है.
सम्पर्क-परिचय में
इन्हें बिहार
में रहने वाली आकाशवाणी
में कार्यरत बताया गया है.वहाँ के सभी पुरुष
सहकर्मियों एवम दोस्तों को
इसे पढने
के बाद डूब मरना चाहिये
.
दूसरे नम्बर पर
सपना सिंह की
‘प्राप्ति’ है.यह मीठे रिश्तों और नीम प्रेम
के संवेगों
से चलती है.एक परिचित डाक्टर
के सहज आकर्षण
और स्वाभाविक दिल्चस्पी
की अर्द्धपारदर्शी कांच की दीवार के इधर उधर टहलती है.दरसल यहाँ भी वही समाज है
जो स्त्री पुरुष
के सम्बंधों को
यौनातुर कामुक प्रेम के अलावा
किसी और फोटो फ्रेम में नहीं रख पाता.
इस फ्रेम के पीछे
जो गत्ते का सहारा लगा होता है,वह है
- ‘मर्यादा’ का ब्राउन बोर्ड
.यह फिर भी प्रेम में मुस्कराती
रचना है,गुस्से में कुलबुलाती नहीं.
स्त्री नब्ज देखने वाले डाक्टर-हकीम के स्पर्श
मात्र से मिलने वाली झुरझुरी से कब मुक्त हो पायेगी?
क्या कभी ऐसा दिन आयेगा कि सहयात्रा कर रही
पास वाली बर्थ में स्त्री
को पाकर
पुरुष मुसाफिर बेखबर सो सके?
पंकज स्वामी
की ‘इंटरनेट’ पहले ब्रॉड बैंड
क्नेक्शन लेने और फिर
बच्चों का उसपर नीली
फिल्म देखना जिसे वे ‘गंदी फिल्म’ कहते हैं
,को लेकर
तनाव और
आखिर में ये खोज-पड़ताल
कि दरसल वह फिल्म
पत्नि ने देखी थी,लड़का तो भूलवश
हड़बड़ी में उस साईट से टकराया भर था.
इस पापदंश
को झेलते कहानी खत्म होती है.
ऐसी सामान्य-स्वाभाविक बातों
पर इतना विचलित
होने वाला मन-संस्कार और कब तक ढोंयें.
डॉ
पद्मा शर्मा
की ‘फिनिक्स’ वैवाहिक विज्ञापन से सीधे निकल
कर शादी की
चिंता में डूबे माँ-
बाप ,परेशान लड़की,
डायरेक्ट-इनडायरेक्ट दहेज की डिमांड में उलझती
,गुजरती है.लेकिन अंत भला तो सब भला कि तर्ज
पर एक अच्छा लड़का मिल जाता है. ‘अच्छा ’ यानि
पढा -लिखा (डिग्रीधारी), नौकरी (सरकारी हो तो और अच्छा)
जुटाने में सक्षम,
सबल (ऊँची सैलरी) और फिर शायद जात का भी,भार्गव ब्राह्मण
(एक शेड नीचे
लेकिन ब्राहमण
कुल). एक से पेशे
में जुड़े
लोगों का भावबोध,सामाजिक इंटरैक्शन
, विचारधारा इतनी सीमित देख कर कोफ्त होने लगती
है. इस भावबोध समस्याग्रस्त
अनुभव की पूंजी पर वह
क्या लिख पढ सकता
है?क्या नयी
जमीन तोड् सकता है?
,मन उचाट हो जाता है.
फिर आ
गयी बीच बाजार ज्योति
कुमारी. कस्बों गाँवों देहात-डिस्टिक से निकले
लड़के-लड़कियों का सपना,आजादी का ख्वाब.
भागलपुर , खगड़िया, मुसलमान ,शहरी पत्नि,अंग्रेजी बोलने वाला पति,स्मार्टनेश इत्यादि-इत्यादि. शादी यहाँ
भी मूल ‘थीम’ है,समस्या क्यों कहें.कब हमारी लड़्कियाँ सफेद घोड़े पर सवार
(यह काली बाईक भी हो तो चलेगा)
राजकुमार का सपना देखना छोड़ेगी.
क्या थोड़े सेल्फ कंट्रोल
की अपेक्षा
रखना ज्यादती होगी.थोड़ा स्त्री की गरिमा को सहेजना
भी चाहिये.
‘रुममेट’ में फिर ज्योति कुमारी दोहरायी गयी.लेकिन लोकेल अब बाँकीपुर
-पटना नहीं, मुम्बई
है. यहाँ चार लड़कियाँ पेईंग
गेस्ट बन कर रहती हैं.आर्थिक असुरक्षा,
सम्बंधों का अभाव,बेमेल शादी,कुछ कर दिखाने का जोश-
जज्बा, (‘कुछ’ मतलब किसी
प्रोडक्शन हाऊस में
नौकरी,एक डाक्युमेंटरी 22 मिनट की जिसे चैनल 89 पर दिखना है,कोई परमानेंट
नौकरी,कंस्ट्रक्शन, रियल एस्टेट कम्पनी
में डिजाईनर-आर्किटेक्ट की तरह मुलाजिम
लगना). ऐसी छोटी मोटी आंकाक्षाओ को महत्वाकांक्षा बताना -समझना ,नित्य प्रयोजनों
के सामानों को उपलब्धि की
तरह गिनवाना , मानना,क्या उम्मीद करें,इस मुल्क से. लघु आकाक्षायें ही देश में महत्वाकाक्षायें बन गयी देखते देखते.
यह हमारी माली हालत से ज्यादा
हमारे मानसिक
व चारित्रिक दरिद्रता को भी दर्शा
जाता है.
उस राष्ट्र समाज
की कंगाली चेतना और दरिद्रता भी
जहाँ सामान्य जीवन सुविधा
गुजर बसर कर पाना भी एक उपलब्धि एक ‘ग्लोरियस
फीट’ की तरह
है.
यह क्षेत्र
यह पीढी,यह भाषा
,इसकी लड़कियाँ,
लड़के, मर्द-औरतें पहले नागरिक सुविधा
पा लें ,मुल्क के मुख्तलिफ हिस्सों में परायेपन
के अहसास से निपट लें,अपनी कार्यक्षमता,
कौशल से
जीने-खाने-रहने का
इंतजाम कर लें तब तक इंतजार करिये . अभी तक तो नाबालिग् ही है कथा प्रदेश.
कहानी ‘बीपीएल’ की कलंक रेखा पार नहीं कर पा रही,एस्थेटिक्स की रेखा तो ‘एपीएल’ से भी काफी ऊँची और दूर है.
‘फैसला’ में
अरुण यादव
महानगर के गाय भैस के तबेले में रहते हैं.सब्जी बेचने
वाली पत्नि,निम्न वर्गीय लोगों के घर गिरस्ती बच्चे,
असमय जवान हुई गरीब लड़कियों का शोषण,
देह व्यथा
, दूसरी का सामान्य बीमारी
(प्रिवेंटेबल डिजीज) में मर जाना, और आखिर
में आत्महत्या. इतना करुण
(मॉरबिड) चित्र है कि इस कहानी का नाम
अभाव भी हो सकता था.
वैसे सारी
कहानियों का नाम
भी अभाव
हो सकता है.पैसे कि किल्लत ,दोस्ती , प्रेम की किल्लत,अच्छी सैलरी वाली परमानेंट जॉब
की किल्लत,मन चाहा हीरो टाईप जीवन साथी (जो आपको निबाह भी ले जाये) की किल्लत.
कहानी के इस प्रदेश में रक्ताल्पता
मुख्य बीमारी है.अंडरनरिशमेंट
व वजन की कमी उसका प्रमाण.
यहाँ कोई
एस्थेटिक्स,भाषाई सलीका
गहरी पड़ताल
,प्लाट की महीन बुनावट
,लेखन की पच्चीकारी का कोई चांस नहीं है.
दूसरे खंड में
जिसे पहले छापा गया है.कुसुम भट्ट की कहानी
का अंदाजे बयाँ खुशनुमा है.
‘बिलौटी’ में अनवर सुहैल उसी गंदगी,
स्लम की जिंदगी,
बूढा लाचार बाप,खट के खाने वाली सलमा(मुसलमान ) की तस्वीर
उकेरते हैं,दागदार अतीत,कालिख पुता
पारिवारिक बैकग्राउंड.
‘हड़प्पा
की शिलालिपी’
मेरी ही कहानी है.इस पर
मैं क्या
कहूँ,इसकी खबर तो
दूसरों को लेनी है.
‘राग
भैरवी’ फिर गरीबी
, बेरोजगारी, गिरस्ती के बोझ तले कराहने की कहानी है.
इसका नाम रागभैरवी क्यों हुआ
‘सिसकारी’ क्यों नहीं.’बाटुई’ से कुछ उम्मीद
दिखती थी,लेकिन वहाँ भी पहाड़
के बालक का सपना दिल्ली आकर पढना और उसे जीतने का है.जीतना यानि युनवर्सिटी
की पढाई,एक साहबी की पक्की नौकरी
,एक अदद बीवी जो पहाड़ी कनेक्शन
की हो तो और अच्छा,
बस.
रतन जांगीड़ फिर वहीं
लौटते हैं छोटी
जात ,स्त्री देह का शोषण,पैसे दिखा
कर अस्मत का सौदा.पूंजी और बाजार की जो समझ हिंदी कथा प्रदेश को है वह
मूढता के सारे रिकार्ड तोड़ती है-सार्वकालिक, विस्मृत करती है.ये सारी
कहानियाँ दरसल एक ही लोकेल की एक ही लम्बी कहानी हैं.जिसका आस्वाद आपके मुँह को किरकिरा कर जायेगा.कहीं कोई भाषा का चमत्कारिक
प्रयोग, किसी वाक्य
को गढने की
जरुरत मेहनत नहीं दिखेगी.यथार्थ भोगे हुये सच,
पिसती जिंदगी की कलात्मकता का यही
स्तर है.’पूस की रात’ और ‘गाय
पर लेख’ से कहानी आगे नहीं
बढ पायी यहाँ. रक्ताल्पता, पीलियाग्रस्त-अंडरवेट, शोषण (नौकरी का अभाव)स्त्री हो तो नौकरी और देह की दोहरी मार.यह विशियस सर्किल हिंदी कथा का
परमानेंट प्रेमाइज है.मार्क्स ने कहा था
( पता नहीं कहा भी या नहीं क्योंकि कई बातें हम उनके मत्थे
मढते हैं)
लड़ाई ‘हैव’ और ‘हैव नॉट्स’
की है.आज हिंदोस्तान मे यही वर्ग प्रबल पक्ष हैं संघर्ष
के. ‘हैव्स’ यानि जिन्हें नौकरी मिल गयी और दूसरे पाले में जिन्हें नहीं मिली.
मेरे कम्प्युटर जब- जब प्रोलेतैरियत लिखता हूँ पता नही सैलेरेतैरियत
प्रॉम्प्ट होता
है.मेरा ईरादा साथी
रचनाकारों की खिल्ली
उड़ाना नहीं है,मेरी वैसी हैसियत भी नहीं
बनी. सारी सहानुभुति रखते हुये हिंदी की कहानी का लैंड्स्केप तलाशना भर है.
***
अच्छी टिप्पणी. उम्मीद है आप कुछ टिप-टुप कुछ अपनी लिखाइयें करते रहेंगे. हिंदी तो जो है सो हइये है. और ज़रा सा किसी बच्चे को बैठाकर किसी दिन ब्लाग की थोड़ी साफ-सफाइयो करा डालिये. क्या तो एकदम हरा-नीला चमक, सुलगा रखा है !
ReplyDeleteआपकी टीप तो सई बोल्ती च बोल्ती, प्रमोद सिंह जी का बोल्ना भी सई बोल्ता ! जै जै बाबा !
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